1.
फेंकना
फेंकना
गुस्से से भरे इस वक्त में
जब पत्थर फूल की जगह ले रहे हैं
और एसिड से भरी बोतलें पत्थरों की
फेंकने के लिए
बड़े जतन से एक-एक कर शब्द इकट्ठे कर रहा हूँ….
एक लड़ाई
जो लड़ी जा रही क्रूरताओं के खिलाफ
ऐसे लोगों द्वारा जो पेड़ों और फूलों जैसे अहिंसक हैं
जिनके पूर्वजों ने बस इतना कहा-” धरती, चाँद और सूरज”
उन्होंने सूखने के लिए पेड़ों की छाल नहीं उतारी
नाखून नहीं बढ़ाए चीरने को धरती और रत्नगर्भा पहाड़
नदियों के पार जाने के लिए
केले के तने की नाव और बाँस की पतवार बनाई
पनसोखे से नदियों को सोखा नहीं…
उन्होंने बांसुरी बनाई
जिसे होठों पर लगाते ही
सारे सुग्गे हरियाली बन धरती पर छा गए
कास के उड़ते फाहों से हल्के शब्द बनाए
फिर गीत, कविता और कथाएँ…
रुई के फाहों से शब्द फेंके उन्होंने
गुस्से और नफरत से भरे इस समय में भी
क्रूरताओं से भरी गठरी लादे कुछ लोग
पत्थर की शक्ल में बम और बारूद लिए
उन हल्के उड़ते शब्दों पर कर रहे हमले
वे लड़ रहे हैं….
मैं? क्या करूँ???
शब्द इकट्ठा कर रहा हूँ
बाँस की खपच्चियों में उसे तीर-सा चमका रहा हूँ
बस…
वे लड़ रहे हैं…..
2.
कभी भी बारिश…
कभी भी बारिश…
जब भी ऐसा लगे
कि “बारिश”
मौसम का नाम नहीं
कोशिश है ऊब से निकलने की
हैरान मत होइएगा…
अभी कल की मुसलाधार बारिश में
पिछले दंगे में मारा गया आदमी
हाथ जोड़कर रोता हुआ
कब्र के बाहर भींगता रहा
अभी कल की बारिश में
एक औलिया की टूटी दरगाह पर
वही आदमी एक संगीतकार की तरह
उदास करने की गरज से
शब्दों के नुकीले हथियार से
बार-बार हत्यारे के अट्टहास-सी धुन बजाता रहा
यह याद दिलाता हुआ कि
बारिश की फुहारें कभी भी
हत्यारे की ऊब को कम नहीं करती
कभी भी बारिश
दंगों की याद में
घिरने के बाद
किसी को रहम के लिए नहीं छोड़ती…
3.
देवताओं की उम्र नहीं पूछी गई
देवताओं की उम्र नहीं पूछी गई
वे दीर्घायु हैं
शतायु होने के आशीर्वाद से ऊपर उठ कर वे
न जाने किन-किन पहाड़ों की कन्दराओं तक
बरगद की तरह हजारों सालों से फैल रहे हैं…
वे दिकू हैं लेकिन कैफीयत है कि वे छाए हुए हैं
राज भोगते हुए उबे हुए चालाक राजनेता की तरह…
कहते हैं कि उनकी उम्र नहीं पूछी गई है अब तक
और यही उनकी खुशहाली की वजह है
उनकी मौत का इंतजार करने वालों के लिए
वक्त बड़ा निर्दयी है
दिव्य व्यंजनों ने उनके चेहरे के तेज को
ऐसा बढ़ाया है
कि चांद और सितारे भी कुम्हला गए
वे आशीष देते हैं
धन लुटाते हैं
उनके बाहुओं के बल से खौफ होता है
भक्त ऐसा मानते हैं कि उनके प्रताप से
हर ओर शांति है
अशांति वहीं है जहां जंगली रहते हैं
और उनके जासूस और सिपाही उन्हें ढूंढते रहते हैं
जो लोग देवताओं के कहने पर
ऋचाओं का पाठ नहीं करते
और देवताओं की उम्र पूछने की जुर्रत करते हैं
दरअसल वही जीवित रखते हैं लोकतंत्र
देवता टिके हुए हैं
क्योंकि देवताओं की उम्र पूछने वाले बहुत कम हैं
4.
हँसोड़ आदमी की आदत
हँसोड़ आदमी की आदत
पगडंडी हँसोड़ आदमी की याद में
कुछ दिन ताजा रहती है
कुछ दिन धान का बोझा ढोती औरत
के चलने की लय और
झूमते बोझे की झनझनाती आवाज से
उसका चेहरा निखर आता है…
हंसोड़ आदमी
अपनी आदत से लाचार होता है
अपने उजड़े घर को देख कर उसे हँसी आ जाती है
हँसोड़ आदमी बकरी, बैल और गायों पर
ध्यान नहीं देने के लिए
हँसी से कोई कीमत नहीं चुकाता
लेकिन अपने खेत को बेचने से पहले
थोड़ी देर के लिए
रोने का नाटक कर लेता है
हारी-बीमारी पर
रोने के लिए हँसोड़ आदमी के पास
कुछ नहीं बचता
इसलिए वह एक सूखे कुएँ के पास जाकर
हँसने का अभ्यास करने लगता है…
सूरज लाचार है
बादल लाचार है
खेत लाचार हैं
गाँव लाचार है
पर एक हँसोड़ आदमी
जिसकी याद में
पगडंडी भी कुछ दिन ताजा रहती है
अपनी आदत से लाचार होकर
हर बार सूखे कुएँ के पास पहुंच जाता है
अपनी लाचार हँसी के साथ…
5. थोड़ा और अंधेरा दे दो
अंधेरगर्दी में कितना अंधेरा मिलाया जाता है?
अंधेर को अंधेरे की और कितनी जरूरत होती है?
है कम तो थोड़ा और बढ़ा लो भाई!
रोशनी के स्याह अंधेरे में
हॉकी स्टिक, कट्टे और पेट्रोल बमों के साथ
चौराहे पर रंगबाज की तरह मंडराने आओ
बांए हाथ से आग का खेल खेलने आओ
गुटखे की दुकान से सिगरेट और माचिस मांगते हुए
अचानक माचिस की आग को
शांत और खुशमिजाज शहर पर पिघलाए लोहे की तरह
उड़ेल दो…
हो सकता है भाई तुम मेरे मित्र-परिचित होओ
फिर भी शहर के किसी सुन्दर पार्क की बेंच से
अचानक निहत्था आदमी समझ कर मुझे ही
खींचकर चौराहे पर ले आओ
देश की सेवा करने की गुस्ताखी करो
यह कहते हुए कि ‘प्यारे देश वासियो
हमें इस धर्म के संकट से उबार लीजिए
हमें अपना काम करने दीजिए
वे हमारे देह के पसीने में बदबू की तरह घुस आए हैं’
ये सोचना गलत है तुम सतर्क नहीं करते
हम तुम्हारी आदतों को इग्नोर कर जाते हैं
ये सोचना गलत है कि तुम और तुम्हारे जैसों
की भाषा को चाय के छन्ने की तरह छाना नहीं जा सकता
बस हम चाय गटक कर भाषा के पीछे छिपे विचार पर
बात करना भूल जाते हैं
ये सोचना भी ग़लत है कि तुम और तुम्हारे जैसे लोग
माला पहने हुए गलियों में
नहीं घूमते खुलेआम
तुम पर फूलों की बरसात करने वाले हम नहीं हैं
शायद ये सोचना भी गलत ही है
जब भी कोई सचेत होकर भाषा पर बात करेगा
उसपर भी बात करने में तुमको कोई गुरेज नहीं होगा
ये सोचना गलत होगा कि तुम अहिंसा पर बात नहीं कर सकते
रोशनी पर बात नहीं कर सकते
हम किस मुंह से कहें
किस वक़्त के आगे
हाथ फैलाएं
क्या यह कहते हुए
कि थोड़ा और अंधेरा ही दे दो भाई…
6.
सारे शहंशाह
सारे शहंशाह
क्या कभी रोते हैं वे?
कभी हंसते भी हैं?
इतिहास की किताबों में
और चित्रकारों की पेंटिंग्स में हमेशा
उनकी अकड़ी हुई मूंछें ही सामने दिखीं
फ्रेम से निकलती हुई
प्रजा और कभी कभी राज्य की चौहद्दी से बड़ी…
एक छोटी-सी जिज्ञासा है
कि क्या किसी पल
बकरी के मिमियाने की आवाज
उन्हें अच्छी लगती है?
कोई ऐसी सुबह भी है
कि वे निकले हों फूल के बगीचे
और चटख रंगों की तितली देख सुध-बुध खोकर
बच्चे की तरह उसके पीछे हो लिए हों?
किसी अजूबे पक्षी के
राज्य की सीमा में उतरने की खबर से
आह्लाद में वे खाना भूल गए हों
क्या शहंशाहों के कैलेंडर में
कोई दिन कोई पहर है
जब वे सुनाते नहीं
सिर्फ सुनना पसंद करते हैं?
क्या सारे शहंशाह
हरे पत्तियों-सी विजय पताके की तरह फहराते ही हैं?
क्या उन्हें झड़े हुए सूखे पत्तों के सपने नहीं आते???
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परिचय
नाम- श्रीधर करुणानिधि
जन्म पूर्णिया ,बिहार के एक गाँव में
प्रकाशित रचनाएँ- दैनिक हिन्दुस्तान‘, ‘ दैनिक जागरण’’प्रभात खबर’
’उन्नयन‘(जिनसे उम्मीद है कॉलम में) हंस, ‘कथादेश’ ‘आधारशिला’’पाखी‘, ‘‘वागर्थ’ ’बया‘ ’वसुधा‘, ’परिकथा‘ ’साहित्य अमृत’,’जनपथ‘ ’नई धारा’ ’छपते छपते‘, ’संवदिया‘, ’प्रसंग‘, ’अभिधा‘‘ ’साहिती सारिका‘, ’शब्द प्रवाह‘, पगडंडी‘, ’साँवली‘, ’अभिनव मीमांसा‘’परिषद् पत्रिका‘ आदि पत्र-पत्रिकाओं, ‘समालोचन’ लिटेरेचर प्वाइंट’, ‘बिजूका’ ‘अक्षरछाया’ वेब मेगजीन आदि में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-
1. ’’वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप‘‘(आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार
2. ’’खिलखिलाता हुआ कुछ‘‘(कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
3. “पत्थर से निकलती कराह”(कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित)
4. ‘अँधेरा कुछ इस तरह दाखिल हुआ(कहानी-संग्रह), बोधि प्रकाशन से रामकुमार ओझा पांडुलिपि प्रकाशन योजना 2021 के तहत प्रकाशित
संप्रति-
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, गया कालेज, गया( मगध विश्वविद्यालय)
मोबाइल- 09709719758, 7004945858
Email id- shreedhar0080@gmail.com