By using this site, you agree to the Privacy Policy and Terms of Use.
Accept

Lahak Digital

News for nation

  • Home
  • Lahak Patrika
  • Contact
  • Account
  • Politics
  • Literature
  • International
  • Media
Search
  • Advertise
© 2023 Lahak Digital | Designed By DGTroX Media
Reading: चितरंजन भारती की कहानी : * ऐसे नहीं चलता काम *
Share
Sign In
0

No products in the cart.

Notification Show More
Latest News
वरिष्ठ कवि और दोहाकार डॉ सुरेन्द्र सिंह रावत द्वारा संकलित व सम्पादित सांझा काव्य संग्रह ‘काव्यान्जली 2024’ का लोकार्पण हुआ*
Literature
राकेश भारतीय की कविताएं
Literature
कमल हासन की मणिरत्नम निर्देशित फिल्म *ठग लाइफ* 5 जून को होगी रिलीज
Uncategorized
*कैदियों को कैंसर के बढ़ते खतरे से जागरूक करने के लिए तिहाड़ जेल वन में कार्यक्रम का आयोजन हुआ*
Motivation - * प्रेरक *
“वीकेएस.फिल्म एकेडमी” मुम्बई ने दो चर्चित नाटकों “राजकुमारी जुलियाना” और “मेरा पति सलमान खान” का शानदार मंचन किया*
Entertainment
Aa

Lahak Digital

News for nation

0
Aa
  • Literature
  • Business
  • Politics
  • Entertainment
  • Science
  • Technology
  • International News
  • Media
Search
Have an existing account? Sign In
Follow US
  • Advertise
© 2022 Foxiz News Network. Ruby Design Company. All Rights Reserved.
Lahak Digital > Blog > Literature > चितरंजन भारती की कहानी : * ऐसे नहीं चलता काम *
Literature

चितरंजन भारती की कहानी : * ऐसे नहीं चलता काम *

admin
Last updated: 2023/07/15 at 4:56 AM
admin
Share
31 Min Read
SHARE

सर्पीली सड़कों पर अरूण को गाड़ियाँ दौड़ाने में बहुत मजा आता है. मगर नागालैंड की जंगली-पहाड़ी सड़कें कुछ इस तरह खतरनाक मोड़ लिये होती हैं कि देखने से ही भय लगता है. कब अचानक चढ़ाई शुरू हो जाए या ढलान पड़ जाए, पता ही नहीं चलता. तिसपर लैड स्लाइडिंग के कारण अक्सर ही सड़कों पर मिट्टी-पत्थर बिखरे पड़े मिलते हैं. बारिश तो यहाँ जैसे बारहों मास होती है, जिससे सड़क भी या तो गीली रहेगी या कीचड़-मिट्टी से लिथड़ी मिलेगी. और इसी से फिसलने का डर बना रहता है.
मैंने अरूण को बहुत कहा कि जरा ढंग से और आहिस्ता गाड़ी चलाया करो. य़हाँ दिल्ली जैसी व्यस्तता और भागमभाग तो है नहीं, जो किसी प्रकार की हड़बड़ी हो. मगर वह कब किसी की सुनता है. आज कॉलेजे में जल्द छुट्टी हो गई थी. और वह प्रिंसिपल लेपडंग आओ से जीप माँग लाया था. बेचारे अपनी भलमनसाहत के वजह से कभी इंकार नहीं कर पाते. एक तो यहाँ ढंग के प्रोफेसर नहीं मिलते. तिसपर साईंस का प्रोफेसर तो और मुश्किल से मिलते हैं. फिर अरूण बात भी कुछ इस प्रकार करता है कि कोई चाहकर भी मना नहीं कर पाये. जीप में बैठे-बैठे ही हॉर्न बजाते शोर मचाने लगा था- “जल्दी करो, आउटिंग पर जाना है.”
सच पूछिये तो मुझे भी यहाँ नागालैंड का प्राकृतिक सौंदर्य काफी भला और मोहक लगता है. दूर-दूर तक जहाँ नजर जाती, काले-नीले पहाड़ों की श्रृंखलाएँ और उनमें पसरी पड़ी सघन हरी वनस्पतियों से भरे जंगल. इन सब्ज-श्याम रंगीनियों के बीच रूई के विशालकाय फाहों से तैरते हुए बादलों के झुंड. सूर्य की तेज किरणें जब इस प्राकृतिक सुषमा पर पड़ती है, तो जैसे अनुपम सौंदर्य की सृष्टि सी होती है.
अभी थोड़ी देर पहले बारिश हुई थी. पर्वतों की कोख से जैसे असंख्य जलधार फूटकर सड़क पर प्रवाहमान हो चली थीं. जीप मोकोकचुंग शहर से निकलकर अब धुली हुई काले चौड़े सड़क पर दौड़ने लगी थी. पेड़-पौधों के पत्ते पानी से धुलकर जैसे और सब्ज और सजीव बन चमकने लगे थे. उनसे आँख-मिचौनी सी खेलती सूर्य की रश्मियाँ अत्यंत प्यारी लग रही थीं. जीप अब ढलान की ओर बढ़ रही थी. यहाँ से दूर बहती हुई नदी किसी केंचुए के समान पतली, पाताल में धँसी सी दिख रही थी. कहीं सड़क मोड़ों के बीच गायब सी हो जाती, तो कहीं दूर तक घाटियों में कुंडली मारे सर्पाकृति सी दिखती.
मोकोकचुंग शहर से असम जाने वाली हाईवे पर पहुँचते ही अरूण ने जीप की स्पीड बढ़ाते हुए कहा- “हुमसेन आओ बहुत दिनों से हमें बुला रहा था. आज उसी के घर, चुचुइमलांग जायेंगे. मिलना भी हो जायेगा और घुमना भी.”
“वह तो ठीक है” मैं भय से सिहरते हुए बोली- “मगर तुम गाड़ी की स्पीड तो कम करो. देखते नहीं, रास्ता कितना खतरनाक है. मेरी तो जान निकली जा रही है.”
“मेरे रहते तुम्हारी जान निकल ही नहीं सकती दिव्या” वह ठहाके लगाते हुए बोला- “देखो-देखो, उस हरिण को. कैसे भागा जा रहा है.”
सचमुच एक हरिण तेजी से रास्ता पार करते दिखा, जो हमारे देखते-देखते जंगलों में गुम हो गया. रास्ते में कुछ और जीव-जंतु मिले. एक तेंदुए का बच्चा बिल्कुल सड़क के किनारे झरने के पास अपनी प्यास बुझाता दिखा. साँप तो खैर हर मील-दो मील पर रेंगते हुए मिल ही जाते थे. पक्षियों का शोर भी सुनाई पड़ रहा था. जंगली जीवों को नजदीक से देखना-सुनना कितना सुखद है, इसका अहसास अब हो रहा था.
सड़क के एक तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़, तो दूसरी तरफ पाताल सी नजर आतीं गहरी-गहरी घाटियाँ थीं. बाँस-बेंत से लेकर अन्य कई प्रजातियों के विशालकाय वृक्षों की टहनियाँ सड़क पर छितराये अपनी छाया दे रही थीं. प्राकृतिक सौंदर्य के उस अनंत संसार में मन-मस्तिष्क टहल ही रहा था कि अचानक अरूण की घबराई आवाज आई- “दिव्या, देखो तो क्या हो गया. लगता है ब्रेक फेल हो गया है.”

मौत यदि सामने हो तो कितना कुछ याद आने लगता है. माँ-बाप, भाई-बहन, सगे-संबंधी और अन्य प्रियजन भी. सभी एक-एक कर सामने आते जा रहे थे. कॉलेज का वह विशाल भवन और फिर वह हॉल, जिसमें हम डेढ़ सौ छात्र-छात्राएँ बैठा करते थे. गंगा नदी का वह घाट, वह किनारा और फिर वह पुल, जिसके रेलिंग के सहारे मैं अरूण के खड़ी या बैठी रहकर घंटों बात किया करती थी. सब्जी-बाजरा, सुपर मार्केट, सिनेमा-हॉल, रेलवे-स्टेशन, बस-अड्डा और बुक-स्टॉल. क्या मैं कोई फिल्म देख रही थी या कोई स्वप्न ! नहीं तो, नहीं तो फिर यह क्या है! हम कहाँ हैं, कहाँ हैं हम. क्या हम मौत के शिकंजे में कसते जा रहे हैं. क्या हमारी मृत्यु सुनिश्चित हो चुकी. जंगल-पहाड़ का वह सारा सौंदर्य कपूर की मानिंद जाने कहाँ उड़ गया था. और अब सवाल ही सवाल सामने थे. सबसे बड़ी जिंदगी और मौत का सवाल.
जीप तेजी से सड़क पर सरकती जा रही थी. अरूण जीप के एक-एक कलपुर्जे को ठोंक-पीट रहा था. बदहवासी में उसका चेहरा लाल हो चुका था. ठुड्डियाँ कस गई थीं. अगर जीप घाटी में गिरी, तो क्या पता चलेगा कि यहाँ कोई नवविवाहित जोड़ा मर-खप गया है. चार माह तो हुए ही इस विवाह को. अभी तो न हाथों से मेंहदी की महक गई है, और न ही पैरों का महावर छूटा है. अभी तो ठीक से जीवन का आनंद भी नहीं लिया. वहाँ सभी चहक रहे थे “जा रही हो पिया के साथ नागों के देश में. वहाँ तुम्हारा आँचल मणि-मुक्ताओं से भर जायेगा. बड़ी सौभाग्यशाली हो तुम जो साथ जा रही हो.”
उन्हें क्या पता होगा कि हम यहाँ नागालैंड में मौत का आलिंगन करने जा रहे हैं. सरिता तो कानों में फुसफुसा कर बोली “देखो, तुम वहाँ थोड़ा जादू-टोना भी सीख लेना. अरूण को वश में करने में बहुत काम आयेगा तुम्हारे.”
चलो, सरिता का कहना सही हुआ. ऐसा वश में हुआ अरूण कि इस दुनिया से साथ ही जाना पड़ रहा है.
वह शादी की पार्टी और चहल-पहल, वह खनकती हुई सी हँसी के फव्वारे और ठहाके, मदभरी मस्तियाँ और चुहल, हँसी-मजाक की बातें आज, अभी ही इसी वक्त क्यों याद आने लगी हैं! तो क्या मौत इतनी जल्द आ जायेगी. हाँ, आनी ही है. आयेगी ही अब. मोकोकचुंग में सभी कितना मना करते थे “अनजान जगह, अनजान लोग. और आपलोगों को सदैव घूमना ही सूझा करता है. न यहाँ की भाषा जानते हैं, न भाव. क्या जरूरत है आउटिंग की. आपके घर के बाहर से ही तो दिखता है सबकुछ. लंबी पर्वत-श्रृंखलाएँ, गहरी घाटियाँ और घने जंगलों की हरियाली, सब यहीं से बैठे-बैठे देख लो. क्या जरूरत है खतरा मोल लेने की. आप अरूण को मना तो क्या करतीं, उल्टे खुशी-खुशी उसके साथ बाहर घूमने निकल जाती हैं!
और आज जब खतरा सामने था, तो होश-हवाश गुम थे. अचानक जीप को एक जोरदार ठोकर लगी और वह रूक गई. शायद सड़क पर लैंडस्लाइडिंग से गिरा कोई बड़ा सा पत्थर था, जिससे टकराकर जीप रुक गई थी. जीप को ठोकर लगते ही मैं बाहर की ओर फिंका गई. गनीमत यही रही कि मैं झाड़ियों के बीच घास पर गिरी और विशेष चोट नहीं लगी. मौत से तो बाल-बाल बची थी मैं.
अचानक मुझे होश हुआ, तो जीप की तरफ देखा. वह एक तरफ पलटी पड़ी थी. वहीं स्टेयरिंग के सहारे अरूण बेहोश पड़ा था. मुँह और माथे से खून बह रहा था. उसे तुरंत सीधा किया और चोट की जगह को कसकर अपनी हथेली से दबा दी.
शोर सुनकर कुछ स्थानीय लोग जमा हो गये थे. सूखी लकड़ियाँ, फल-सब्जी, बाँस की कोंपलें आदि लाने, खेती का काम और शिकार करने स्थानीय लोग प्रतिदिन जंगल का रूख करते ही हैं. रास्ते में उन्होंने जो जीप को दुर्घटनाग्रस्त होते देखा, तो अपनी बास्केट-थैले और भाला-दाव एवं दूसरे सामान आदि फेंक-फांककर इधर ही दौड़े चले आये थे. अपनी स्थानीय आओ भाषा में जाने क्या कुछ कह रहे थे, जो मेरी समझ के बाहर था. इतना अवश्य था कि वह हमारी सहायता करने और अस्पताल पहुँचाने की बात कर रहे थे. मुझे भी चोटें आई थी और मैं मुर्छित सी हो रही थी कि एक नागा युवती नें मुझे सहारा दिया. एक नागा युवक ने अरूण के माथे के चोट पर अपना रंगीन नागा शॉल बाँध दिया.
अचानक मैं अचेत हो गई. फिर तो कुछ याद न रहा. बस इतना स्मरण भर रहा कि एक बुजुर्ग नागा किसी पौधे की पत्तियाँ तोड़ लाया था और उसे अपनी हथेलियों पर मसलकर उसकी बूँदे अरूण के मुँह में टपका रहा था. एक दूसरी युवती उसके चेहरे पर पानी की छींटे मार रही थी.
आँख खुली तो मैं एकबारगी ही घबरा कर उठ बैठी. अरे, यह मैं कहाँ और कैसे आ गई! अरूण कहाँ, किस हालत में है? मन में सैकड़ों सवाल कुलबुलाने लगे थे. विपत्ति के वक्त व्यक्ति ऐसी ही अनेक आशंकाओं से घिर जाता है.
ठीक पहाड़ की चोटी पर बसा कोई गाँव था, जहाँ वे लोग हमें उठा लाये थे. सामने ही सूर्य के तीखे प्रकाश से एक भव्य चर्च का क्रॉस चमक रहा था. मैं एक झोपड़ी में एक चारपाई पर पड़ी थी. मगर अरूण कहाँ है? गाँव के अनेक लोग मुझे घेरे आओ भाषा में जाने क्या बातें कर रहे थे. और जैसी की इधर आदत है, बीच-बीच में उनके ठहाके भी गूँज जाते थे. अधिसंख्य बुजुर्ग नागा स्त्री-पुरूष ही थे. उनमें से एक नागा बुजुर्ग आगे बढ़कर टूटी-फूटी हिंदी में बोला- “अब कैसा है बेटी?”
“मेरे पति कहाँ हैं” मैं चीखी. अचानक मुझे अहसास हुआ कि शायद ये हिंदी न समझें. सो अंग्रेजी में बोली- “व्हेयर इज माई हसबैंड?”
“हम थोड़ी हिंदी जानता है” वही बुढ़ा स्नेहसिक्त आवाज में बोला- “तुम्हारा आदमी घर के अंदर है. उसे बहुत चोट लगा. बहुत खून बहा. तुमलोग कहाँ से आता था. कहाँ रहता है?”
“हम मोकोकचुंग में रहते हैं. मेरे पति चुचुइमलांग के अपने एक मित्र से मिलने के लिए निकले थे. मगर गाड़ी का ब्रेक खराब हो गया और एक्सीडेंट हो गया” घबराये स्वर में मैं बोली- “अभी वह कहाँ हैं. मैं उन्हें देखना चाहती हूँ.”
बुजुर्ग ने अपनी आओ भाषा में बुढ़िया से कुछ कहा. बुढ़ी महिला मुझसे आओ भाषा में ही कुछ कहते हुए अंदर ले गई. काफी पुरानी और गंदी सी झोपड़ी थी यह. बाँस की चटाई बुनकर इस झोपड़ी की दिवारें तैयार की गई थीं. ताड़ के पत्तों सरीखे बड़े-बड़े पत्तों से उपर छत का छप्पर छाया गया था. फर्श मजबूत लकड़ियों का था. और यह झोपड़ी जमीन से लगभग हाथ भर उपर मजबूत लकड़ी के खंभों पर टिका था. नागालैंड की ग्रामीण रिहाइश आमतौर पर ऐसी ही होती है.
कहने को यह झोपड़ी थी. मगर थी बहुत बड़ी. बाँस की चटाइयों का घेरा देकर दो कमरे बने हुए थे. उसी में से एक कमरे में एक चौकी पर अरूण लेटा था. उसका चेहरा एकदम निस्तेज हो गया था. साँस धौंकनी की तरह चल रही थी.
मैं उसे देखकर एकदम फूटकर रो पड़ी. हमारे पीछे कुछ और लोग चले आये थे. वे आगे बढ़ आये और मुझे हिंदी, अंग्रेजी और आओ भाषा में कुछ-कुछ कहकर दिलासा देने लगे. बुढ़ी महिला ने पुनः आओ भाषा में मुझसे कुछ कहा. छाती पर क्रॉस का निशान बनाया और मुझे वापस बाहर ले आई.
“यहाँ से चुचुइमलांग कितनी दूर है? न हो, तो इनके मित्र हमसेन आओ को बुला दें.” मैं सुबकते हुए बोली- “वह शायद कुछ मदद कर पायें.”
वह बोले- “तुम चिंता मत करो. चुचुइमलांग यहाँ से दसेक मील दूर है. तुम्हारे उस परिचित फ्रेंड को भी हम खबर कर देगा. तुम्हारा हसबैंड को बहुत चोट लगा. मगर डॉक्टर ने बताया कि वह खतरे से बाहर है. वह अच्छा हो जायेगा.”
“मगर यहाँ क्या व्यवस्था हो सकती है” मैं बोली- “उन्हें अस्पताल पहुँचाना बहुत जरूरी है. अगर आप उसकी व्यवस्था कर देते तो…”
“चर्च के पास ही तो एक हॉस्पिटल है” बुजुर्ग मेरी बात काटते हुए बोले- “वहीं तो हम सबसे पहले तुम्हारे हसबैंड को ले गया था. डॉक्टर ने चेक किया और दवायें लिखी. कंपाउंडर ने फर्स्ट एड दिया. लेकिन वह बोल रहा था कि हालत ठीक नहीं. बॉडी से खून ज्यादा निकल गया है. खून चढ़ाना होगा. हम उसी की व्यवस्था में लगा है.”
बुढ़े ने बुढ़िया से कुछ कहा. वह अंदर चली गई थी. मैं अब कुछ सहज होने लगी थी. फिर भी मन में कुछ आशंका थी. अपरिचित लोग, अनजान जगह. हाँलाकि बात-व्यवहार से कहीं कुछ अजीब नहीं लग रहा था. मगर ये अभावग्रस्त लोग हमारी क्या मदद कर पायेंगे, यही विचार मन में घुमड़ रहा था. यह भी कि ये लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे! कि बुढ़िया आई और जाने क्या कहा कि बुढ़ा उठते हुए बोला- “चलो बेटा, चाय पीते हैं.”
मेरा मन बिल्कुल नहीं था. मन तो अरूण में टँगा था. फिर भी अनिच्छापुर्वक उठना पड़ा. झोपड़ी के एक किनारे ही रसोई थी. अल्युमुनियम, स्टील, तामचीनी और लकड़ी के भी ढेर सारे बर्तन करीने से रखे हुए थे. एक तरफ दो बड़े ड्रम थे, जिनमें पीने का पानी था. सरकारी कृपा से नागालैंड के हर गाँवों में और कुछ पहुँचे, न पहुँचे, बिजली और पानी की सप्लाई ठीकठाक है. कुछ छोटे पीपों में कुचले हुए बाँस के कोंपल भरे थे. उसके उपर करीने से बोतलें सजी थीं, जिनमें बाँस की कोंपलों का ही रस निकाल कर रखा हुआ था.
नागा समाज अपनी रसोई में तेल-मसालों की जगह इन्हीं बाँस के कोंपलों के खट्टे रसों का उपयोग करता है, यह बात अरूण ने एक दिन बताई थी. एक तरफ चुल्हे में आग जल रहा था, जिसपर बड़े से केतली में पानी खदक रहा था. बुढ़िया ने एक अलग बर्तन में कप से पानी नापकर डाला और चुल्हे के दूसरी तरफ चढ़ा दिया. अब मैंने ध्यान दिया. चुल्हे के उपर मचान बनाकर लकड़ियाँ रखी थीं. और इन दोनों के बीच लोहे के तारों में गूँथे गये माँस के टुकड़े रखे थे. मेरा मन अजीब सा होने लगा था.
बुढ़िया सबको चाय देने लगी थी. वह एक प्लेट में बिस्कुट भी निकाल लाई थी और खाने के लिए बार-बार आग्रह कर रही थी. उसका वात्सल्य देख मेरा मन भर आया और प्लेट पकड़ ली. बुजुर्ग अब खुद ही अपने बारे में बताने लगे थे- “मैं यहाँ का गाँव-बूढ़ा (मुखिया) हूँ. तीन बेटे और एक बेटी है. बेटी की शादी हो गई. एक बेटा गौहाटी में टीचर है और दूसरा डिमापुर में एक ऑफिस में क्लर्क है. तीसरा मोकोकचुंग के एक कॉलेज में पढ़ाई करता है. आज ही वह आया है. मगर अभी जंगल गया हुआ है. आता ही होगा अब. अच्छा, तुम्हारा आदमी क्या करता है?”
“वह मोकोकचुंग कॉलेज में प्रोफेसर हैं.”
“अच्छा, तो वह टीचर है” बुढ़ा बुदबुदाया- “और तुम क्या करती है?”
“मैं” मैं इस तनाव में भी हँस पड़ी – “मैं तो घर पर रहती हूँ.”
तबतक डॉक्टर आ गया था. हम सभी उठ खड़े हुए. अरूण की जाँच करने के उपरांत उसने अरूण को एक इंजेक्शन लगाने की तैयारी करने लगा. इंजेक्शन लगते ही अरूण कुनमुनाया. चेहरे पर बेचैनी के कुछ लक्षण उभरे. फिर वह शांत दिखने लगा था. डॉक्टर बंगाली था. फिर भी धाराप्रवाह आओ भाषा बोल रहा था. सारी बात उसी में हो रही थी. इसलिए मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था. बस यही आभास हुआ कि अरूण की दशा देख सभी चिंतित हैं. अरूण को चारपाई समेत बाहर निकाल अस्पताल पहुँचा दिया गया.
अस्पताल क्या था, बस एक साफ-सुथरी झोपड़ी थी, जिसमें दवायें रखी थीं. सफेद पर्दे का पार्टीशन देकर चारेक चारपाईयाँ बिछी थीं. उसी में से एक पर अरूण को लिटा दिया गया. अरूण की बेहोशी पूरे ढाई घंटे बाद टूटी थी. बड़ी तकलीफ के साथ उसने आँखें खोली. मैं उसपर झुक आई.
बाहर खुसर-पुसर चल रही थी. अचानक बूढ़ा हिन्दी में बोला- “डॉक्टर, मेरा खून चढ़ा दो.”
“नहीं जी” डॉक्टर ने जवाब दिया- “बुढ़े का रक्त नहीं चढ़ाया जा सकता. इसके लिए तो किसी जवान का ही खून चाहिए होता है.”
अब वह मुझसे अरूण का ब्लड-ग्रुप पूछने लगा. मैंने उसे बताया. उसने अरूण का रक्त चेक करने के बाद कहा- “यू आर राइट मैडम.”
“आप मेरा खून इन्हें चढ़ा दीजिये सर” मैं बोली- “शायद यह मैच कर जाए.”
“हमलोग के रहते तुम यह काम कैसे कर सकता है. बस्ती में इतना सारा लोग है. किसी न किसी का जरूर मैच कर जायेगा.”
भीड़ में से कई युवक आगे बढ़ आये थे. डॉक्टर एक-एक कर उनका ब्लड चेक कर नकारता जा रहा था. साथ ही मेरी बेचैनी भी बढ़ती जाती थी. अचानक वहाँ एक युवक प्रकट हुआ. बुजुर्ग दंपत्ति से जाने क्या उसकी बात हुई. और अब उसने अपना हाथ बढ़ा दिया था.
उसका ब्लड ग्रुप अरूण के ब्लड ग्रुप से मैच कर गया था.
बुढ़ा मुझसे मुखातिब होकर बोला- “यह मेरा बेटा कुमजुक आओ है. यह तुम्हारे हसबैंड के कॉलेज में ही पढ़ता है और इन्हें जानता है. लक का बात, उसका खून उससे मिल गया है. अब वह उसे खून देगा. तुम बेकार डरता था.”
मैं उनलोगों के प्रति कृतज्ञता से भर उठी.
आधेक घंटे में कुमजुक आओ के शरीर से खून निकलकर अरूण के शरीर में पहुँच चुका था. अरूण का चेहरा अब तनाव-रहित और स्थिर था. ब्लड देने के बाद भी कुमजुक आओ के चेहरे पर एक दिव्य चमक सी थी. मैं उस सुदर्शन युवक को देखती रह गई.
हृष्ट-पुष्ट खिलाड़ियों का सा बदन, जिसपर कहीं अतिरिक्त चर्बी का नाम नहीं था. हिन्दी फिल्मों के हीरो समान करीने से कटे, सँवारे केश. हँसता हुआ चेहरा, जिसमें दुग्ध धवल दंत-पंक्तियाँ मोती सी आभा बिखेर रही थीं. उसकी अधखुली, स्वप्निल सी आँखों में न जाने कैसा तेज और निश्छलता थी, कि वह कांतिमय हो रहे थे.
बेड से उठते ही उसने हाथ-पैर फेंके और सीधा खड़ा हो गया. डॉक्टर ने उसे कुछ दवायें और हिदायतें दी, जिन्हें हँसते हुए स्वीकार कर लिया. फिर अपने पिता को दवायें देते हुए मुझसे बोंला- “अब सर बिलकुल ठीक हो जायेंगे. सर बहुत अच्छे हैं. एकदम ह्यूमरस नेचर. पढ़ाते भी बहुत अच्छा हैं. दोस्तों की तरह मिलते हैं हमसे. आप चिंता न करें. आप यहाँ आईं, तो इस हालत में. खैर कोई बात नहीं. चलिये, मैं आपको अपना गाँव घुमा दूँ.”
शाम ढलने तक मैं उसके साथ सारा गाँव घूम चुकी थी. मुझे जरा भी यह अहसास तक नहीं हुआ कि मुझे भी चोट लगी है. उल्टे अब मैं प्रफुल्लित सी महसूस कर रही थी. कुमजुक बात-बात में ठहाके लगता, हँसता. उसके पास बातों का पिटारा था. आओ जाति की सभ्यता-संस्कृति के संबंध में अनेक बातें बताई. विज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद उसकी इतिहास-भूगोल-समाज विज्ञान की गहरी समझ थी. उसने गाँव के कई युवक-युवतियों से मुझे मिलवाया. फिर कुछ घरों में भी ले गया. घर में रखे प्राचीन सामानों के बारे में विस्तार से जानकारी भी दी. यही नहीं वह दुभाषिये समान बातों की व्याख्या भी करता. एक घर के बाहर कोई आधेक दर्जन खोपड़ियाँ टँगी थीं. उन्हें देख मैं सिहर उठी.
पूर्वोत्तर प्रदेशों में रात जल्द ढलती है. सो रात होते ही हम वापस लौट चले थे. अरूण अस्पताल से वापस कुमजुक के घर शिफ्ट कर दिया गया था. और अभी भी सो रहा था. चाय पीने के बाद भी कुमजुक देर तक मेरे साथ बात करता रहा. दाव-भाला से लेकर लकड़ी-बेंत आदि से बने टोकरी-बास्केट और बर्तनों के बारे में बताता रहा. उसकी वर्णनात्मक पटुता को देख मैं विस्मित थी. जैसे कोई दादी-नानी अपने नाती-पोतों को कोई प्राचीन लोककथाएँ सुना रहा हो!
अचानक उसकी माँ आकर बोली कि अरूण की नींद टूट गई है और मुझे याद कर रहा है.
अरूण अब स्वस्थ दिख रहा था. हमें देखते ही वह बोला- “अरे कुमजुक, तुम यहाँ कैसे?”
“यह तो मेरा ही घर है, सर” वह हँसकर बोला- “लक का बात कि आप हमारे घर पर हैं.गाँववालों ने आपकी जीप को एक्सीडेंट करते देख लिया था. मेरे फादर आपको घर ले आये.”
“इनका शुक्रिया अदा करो अरूण” मैं बोल पड़ी- “इन्होंने ही तुम्हें अपना खून दिया है. अब तुम्हारी धमनियों में इन्हीं का खून दौड़ रहा है.”
“शुक्रिया कैसा. यह तो अपना ड्यूटी था. अपने गेस्ट को सेफ्टी देना अपना काम है.”
हम सभी हँस पड़े. वातावरण काफी सहज और सुखद हो गया था. तभी कुमजुक की माँ खाने के लिए पूछने आ गई थी. कुमजुक बोला- “माफ करेंगे मैडम, हम नागा लोग शाम को ही खाना खा लेते हैं. वैसे आपलोगों के लिए तो अलग से ही व्यवस्था करनी होगी.”
“नहीं-नहीं, रहने दो.” मैं बोल उठी- “परेशान होने की जरूरत नहीं. आपलोगों के अनुसार ही हमें भी चलना है.”
आधेक घंटे बाद कुमजुक वापस आया, तो उसके हाथ में दो थाली थी. थाली में चावल, सब्जी और उबले अंडे थे. थाली को टेबल पर रखते हुए वह बोला- “मैंने इन्हें अलग से स्टोव पर खास आपलोगों के लिए पकाया है. आराम से खाना खाओ.”
अरूण तो अपनी अशक्तता के कारण नहीं के बराबर ही कुछ खा पाया. बमुश्किल मैंने उसे अंडे खिलाये. अनिच्छा होने के बावजूद मैंने भोजन किया. फिर अरूण के बगल में पड़ी चारपाई पर पड़ रही. मगर आँखों में नींद कहाँ थी! पूरा गाँव सन्नाटे और अँधेरे में डूबा था. कुमजुक आओ से इतना सब कुछ जान-समझ लेने के बावजूद कुछ अजीब सा लग रहा था. एक बार फिर मन न जाने कहाँ-कहाँ भटकने लगा था.
इन्हीं भटकावों के बीच कब आँख लग गई, पता नहीं. कि अचानक शोरगुल सुनकर नींद खुल गई. मन में भांति-भांति की आशंकाएँ-कुशंकाएँ घुमड़ने लगीं. खिड़की में लगे शीशे से बाहर झांककर देखा. कुछ लोग दौड़ते-भागते नजर आये. अनेक टॉर्च की रोशनियाँ जल-बुझ रही थीं. एक झुंड वर्दिधारियों का भी दिखा. ये कौन हो सकते हैं. अभी सोच ही रही थी कि दरवाजे पर दस्तक पड़ने लगी.
दरवाजा खुलते ही आधेक दर्जन वर्दीधारी अंदर घुस आये थे. अंदर घुसते ही वे यहाँ-वहाँ बिखर कर कुछ खोजने लगे थे. एक कड़कती आवाज गूँजी- “घर में कौन-कौन है?”
“मैं हूँ और मेरी वाईफ और छोटा बेटा है. दो गेस्ट भी है.” बुजुर्ग सर्द आवाज में बोल रहे थे- “रास्ते में उनका एक्सीडेंट हो गया था. हम उन्हें यहाँ उठा लाये थे.”
“मुझे इस घर की तलाशी लेनी है” वही स्वर उभरा- “पक्की सूचना मिली है कि…”
“तो ले लो न!”
धड़ाधड़ सामान इधर-उधर किये जाने लगे. एक तरह से फेंके जाने लगे. नागा समाज इतना सहज, सरल है कि उसके पास छुपाने को कुछ नहीं. बेहयाई के साथ सामान बिखेर दिये गये थे. अब वह सैन्य अफसर मेरे सामने खड़ा था- “आप यहाँ कैसे? कौन हैं आप?”
“मैं दिव्या हूँ. यह मेरे पति अरूण हैं और मोकोकचुंग कॉलेज में प्रोफेसर हैं. हमारी जीप एक्सीडेंट कर गई थी.”
“क्या सबूत है ?”
मैंने अरूण के वॉयलेट से उसका परिचय-पत्र निकालकर दिखाया.
“जीप का क्या नंबर था?”
अरूण ने कराहते हुए जीप का नंबर बताया. तभी एक जवान आकर बोला- “ठीक कहता है. इसी नंबर की एक जीप रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त मिली थी.”
तभी दूसरी तरफ से एक अन्य जवान कुमजुक आओ को पकड़ लाया था. आते ही बोला- “यह देखिये सर, हमने उसे पकड़ लिया, जिसकी हमें तलाश थी.”
कुमजुक के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही थीं. वह चिल्ला रहा था- “छोड़ो, छोड़ो मुझे. मैंने क्या किया है?”
“क्या किया है” अफसर उसे घुड़क रहा था- “पकड़े गये, तो चालाकी दिखाते हो. कहाँ रहे बाईस दिनों तक?”
“सर, यह आप क्या कह रहे हैं!” अरूण आवेश में आकर बोला- “यह मेरे मोकोकचुंग कॉलेज का स्टूडेंट है. मैं इसे अच्छी तरह से जानता हूँ. यह कोई गलत काम कर ही नहीं सकता. बड़ी बात यह कि पिछले डेढ़ माह से यह नियमित कॉलेज आता रहा है. संभव है, इसकी मिलती-जुलती शक्ल-सूरत वाले किसी अन्य की तलाश हो आपको. सभी तो एक जैसे ही दिखते हैं! वह कोई और होगा.”
“देखिये, आप मुझे मत सिखाइये. यह भाषणबाजी कॉलेज में ही चले तो बेहतर. हमें आदमी पहचानने की ट्रेनिंग मिली है. हम गलती कर ही नहीं सकते. आखिर आर्मीवाले हैं हम. कोई सिविलियन नहीं, समझे जनाब” अफसर रंज स्वरों में कह रहा था- “इसको बचाने के चक्कर में आप भी फँस जायेंगे, तो होश ठिकाने आ जायेगा.”
“इसने कल शाम ही इन्हें रक्तदान किया है” मैं बोल पड़ी- “अभी अशक्त है. थोड़ी इंसानियत भी दिखाइये. ऐसी हालत में आप इसे नहीं ले जा सकते.”
“आप होती कौन हैं हमें अपने काम से रोकने वाली!” अफसर ने मुझ घुड़का, तो मैं सहम गई. कुमजुक आओ को बेड़ी पहनाते वक्त मैंने फिर मिन्नत की. अफसर बोला- “देखिये, हम कुछ नहीं जानते. अब आर्मी-कैम्प में ही सच-झूठ का पता चलेगा. मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता. मैं भी देश का ही काम कर रहा हूँ.”
“ऐसे आप देश का करते रहे काम, तो हो चुका देश का कल्याण” अरूण व्यंग्य से बोला- “अपराधी पकड़ पायेंगे या नहीं, पता नहीं. मगर दस अपराधी जरूर तैयार कर जायेंगे.”
“देखिये मिस्टर प्रोफेसर” अफसर एकदम से अरूण के सिरहाने आ खड़ा हुआ- “मुझे बकवास एकदम पसंद नहीं है. चुपचाप पड़े रहिये.”
बुजुर्ग दंपत्ति पत्थर का बुत बनकर रह गये थे. गाँव में विचित्र सी शांति थी. और मैं आर्मीवालों के साथ बंदी बनाये गये कुमजुक आओ को जाते हुए देख रही थी.
“मुझे मोकोकचुंग कॉलेज जाना ही होगा” अरूण उठते हुए बोला- “कल ही कुमजुक का अटेंडेंस शीट की प्रति जमा कर उसे छुड़ाना है.”
मगर वह अपनी अशक्तता की वजह से निढाल हो बिछावन पर गिर पड़ा. हम सभी उसे सँभालने में लग लिये.
…………

चितरंजन भारती,
फ्लैट सं0- 405, लक्ष्मीनिवास अपार्टमेंट
जगतनारायण रोड, कदमकुँआ, पटना-800 003
मो0- 7002637813, 9401374744
ईमेल- chitranjan.2772@gmail.com

You Might Also Like

वरिष्ठ कवि और दोहाकार डॉ सुरेन्द्र सिंह रावत द्वारा संकलित व सम्पादित सांझा काव्य संग्रह ‘काव्यान्जली 2024’ का लोकार्पण हुआ*

राकेश भारतीय की कविताएं

सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ताओं की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक संस्था “मेधा साहित्यिक मंच” ने किया “कविता की एक शाम” का आयोजन हुआ,

कृष्ण-कृष्णा की प्रेमावस्था… (कुछ शास्त्रीय चरित्रों पर मुक्त विमर्श)!- यूरी बोतविन्किन

जवाहरलाल जलज की कविताएं

Sign Up For Daily Newsletter

Be keep up! Get the latest breaking news delivered straight to your inbox.
[mc4wp_form]
By signing up, you agree to our Terms of Use and acknowledge the data practices in our Privacy Policy. You may unsubscribe at any time.
admin July 15, 2023
Share this Article
Facebook Twitter Copy Link Print
Share
Previous Article भाकपा-माले नेता कॉमरेड गोपाल सिंह का निधन, पार्टी राज्य कमिटी ने दी श्रद्धाजंलि
Next Article जसबीर चावला की ग़ज़लें
Leave a comment Leave a comment

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Stay Connected

235.3k Followers Like
69.1k Followers Follow
11.6k Followers Pin
56.4k Followers Follow
136k Subscribers Subscribe
4.4k Followers Follow
- Advertisement -
Ad imageAd image

Latest News

वरिष्ठ कवि और दोहाकार डॉ सुरेन्द्र सिंह रावत द्वारा संकलित व सम्पादित सांझा काव्य संग्रह ‘काव्यान्जली 2024’ का लोकार्पण हुआ*
Literature June 11, 2025
राकेश भारतीय की कविताएं
Literature June 5, 2025
कमल हासन की मणिरत्नम निर्देशित फिल्म *ठग लाइफ* 5 जून को होगी रिलीज
Uncategorized May 21, 2025
*कैदियों को कैंसर के बढ़ते खतरे से जागरूक करने के लिए तिहाड़ जेल वन में कार्यक्रम का आयोजन हुआ*
Motivation - * प्रेरक * May 19, 2025
//

We influence 20 million users and is the number one business and technology news network on the planet

Sign Up for Our Newsletter

Subscribe to our newsletter to get our newest articles instantly!

[mc4wp_form id=”847″]

Follow US

©Lahak Digital | Designed By DGTroX Media

Removed from reading list

Undo
Welcome Back!

Sign in to your account

Register Lost your password?