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Reading: संजय कुमार सिंह की कहानी : विस्मृति के विरुद्ध
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Lahak Digital > Blog > Literature > संजय कुमार सिंह की कहानी : विस्मृति के विरुद्ध
Literature

संजय कुमार सिंह की कहानी : विस्मृति के विरुद्ध

admin
Last updated: 2023/07/09 at 4:12 PM
admin
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22 Min Read
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आओ तुम्हें मैं एक किस्सा सुनाऊँ

वीरों के बलिदानों का
जिनके सपने, जिनकी आँखें
उनके टूटे अरमानों का…
जिनकी नदिया, जिनके खेत
जिनकी दुनिया, जिनके देश
उनकी बेदखली के फरमानों का…..
…
गाँव में इस बंगले और बरगद का बड़ा नाम है।एक तो पूरे गाँव में यही सबसे विशाल और पुराना बंगला है, जो आज भी आसमान की बुलंदियों से हाथ मिलाता है,दूसरा जहाँ तक बरगद का सवाल है, तो विगत कई दशकों के भयंकर सूखे और प्राकृतिक आपदाओं को ठिठुआ दिखाकर न सिर्फ धरती के सीने पर कील की तरह गड़ा खड़ा है बल्कि लगातार अपने बरगद-पाश का जाल फैलाए जा रहा।कहते हैं बंगले की चमक-दमक का राज भी इसी के सीने में छिपा है,लेकिन गाँव वालों के लिए यह हमेशा से आतंक और अनिष्ट का पर्याय रहा है।लोग तो यह भी मानते हैं कि जब तक इस विशाल वट-वृक्ष की अभिशप्त छाया गाँव पर है, इसका कल्याण नहीं हो सकता, लेकिन बंगले की तवज्जो है। इसलिए तब से अब तक शानदार जलसे और तरह-तरह के आयोजन यहाँ होते रहते हैं।इलाके के शाही हुक्मरान यहाँ आते रहते हैं… यह अलग बात है कि कर्ज की मार से तंग आकर कई किसानों, मजदूरों और हताश युवकों ने इसकी सर्पीली शाखों से लटक कर अपनी जानें गँवा दी हैं, पर मजाल किसकी जो कोई इसे काट गिराए… इलाके में शंकर साव के पट्ठे की तरह जान लेने का लाइसेंस इसे सदियों से प्राप्त है… गाँव जमींदारों ,महाजनोॆ और दबंगों का स्टेटस सिंबल है वह…
उस जमाने में जब देश गुलाम था। मंत्री बलवंत सिंह के पिता चौधरी दीवान सिंह जी की बड़ी चलती-बनती थी। लोग नील्हे कोठी के गोरे शैतानों के शोषण-दमन से परेशान थे।चारों तरफ देशी तरतीब से नमक बनाने और स्वदेशी आंदोलन की जंग छिड़ी थी। अंग्रेज सरकार ने उनकी राज-भक्ति से खुश होकर ‘राय बहादुर ‘ की पदवी दी थी, जिससे न सिर्फ उनका नाम लम्बा हो गया था बल्कि रियाया से लेकर बड़े रईसों और रियासतों में उनकी धौंस जम गयी थी । उनका जोर-जुलुम भी बढ़ गया था।तब बड़े-बड़े गोरे साहब शिकार और मौज-मस्ती के लिए सीधे यहीं आते थे। जंगल में हाँका पड़ता था और बहादुर अंग्रेज और जमींदार धाँय-धाँय भागते जानवरों और मुर्गाबियों पर गोलियाँ दागते हुए घुड़दौड़ करते थे… फिर शिकार को बहिये टांग कर लाते थे… यूँ भी उन्हें अँग्रेजों और रईसों की मेजबानी खास पसन्द थी। राज-भक्ति का तकाजा भी यही था। अँग्रेजों की पूँछ उठाओ, मंसबदारी और तहसीलदारी पाओ!
चूनांचे उस समय यह पूरा इलाका जंगलाती था। वह तो बाद में हलकट आदमी की फसल फौज हो गयी और बाद मंत्री जी ने पूरा जंगल किसी कलकतिया व्यापारी को बेच दिया, जिसने ने सिर्फ पूरे इलाके को ठूँठ-बंजर बना दिया बल्कि धरती का पूरा सौभाग्य ही लूट लिया।लेकिन इस दरम्यान जो गौर करने लायक बात है, वह यह कि गाँव में तब भी गरीब-बहियों की दशा अच्छी नहीं थी और अब आजादी के दशकों बाद भी उनके पास खाने के लिए पेट और कमाने के लिए जांगर के सिवा कुछ नहीं । सरकार की विभेदकारी नीतियों ने अमीर को अमीर और गरीब को और गरीब ही बनाया।नील्हे कोठी वाले गोरे भले चले गए, पर वह प्रतीक आज भी लोकतंत्र की उम्मीदों से लटक कर उसका खून चूस रहा। लोग दर-ब-दर भटक रहे। अपनी ही दुनिया में बेगाने की तरह तरस कर जी रहे…
हाँ, जब जमीन थी, उस पर अपना मालिकाना हक था, तो और बात थी। लगान और पट्टे का उतना भार नहीं था। उतने मुंशी- पटवारी नहीं थे। अन्नपूर्णा धरती पद दलित होती गयी। लोग बेजार होते गए । इतना ही नहीं एक जंगल था ,तो शिकार की कमी नहीं थी। लोग दस चीज बीन लाते थे… कंद-मूल से लेकर दुनिया भर के फूल-पत्ते… जो हरियल और मुर्गाबी आज देखने को नहीं मिलते ,उस समय बोरियों में ठूँस कर लाये जाते…और जिन्हें यकीन न हो कि कभी यहाँ बाघ-सिंह कि सूअर-हिरण, चीतल विचरण करते थे, तो वे आज भी देख सकते हैं कि बंगले में भूसा खाकर जिंदा हैं…एक बात और जंगल था, तो दस आसरा थे, नहीं है, तो बंजर का जंजाल है फैला-पसरा, नदी पच्चीस कोस दूर! पानी पाँच बाँस पत्थर-पहाड़ के अंदर!मेघ नहीं बरसे, तो आग लग जाती धरती में!
कहते हैं अँग्रेज कलक्टर जैक्सन को बड़ा शौक था शिकार का। शौक तो खैर उसके कई थे। उसके आते ही राय बहादुर चौधरी दीवान सिंह की बाँछें खिल जातीं और वे कदमों में बिछ जाते। जाजिम-जूती बनकर। इससे होता ये कि जहाँ अँग्रेज अफसर खुश होते, तो इलाके में उनका नगाड़ा बजना शुरु हो जाता।अकड़ दुगुनी हो जाती और दो सौ बावन कित्ते तक वे मूँछ पर ताव दिये फिरते।कलक्टर साहब की सोहबत में पुलिस अफसर डेविड का होना भी जरूरी होता। लेकिन इस समय और उस समय में एक बड़ा फर्क यह है कि तब गोरे साहबों के सामने बड़े-बड़े ओहदेदारों और जमींदारों की हैसियत वास्तव में ‘जीरो’ होती। सब कुछ उनके रहमो-करम पर होता।मगर आज वो मिसाल है खादी कि बड़े-बड़े कलक्टरों और एस.पी. साहबों के सामने जब मंत्री जी होते , तो एक घुड़की में उनकी पतलून ढीली हो जाती। जनता को भेड़-बकरी की तरह हाँकने वाले जनाब भीगी बिल्ली की तरह सुट-सुट करते। कहने का गरज यह कि जिस चौधरी दीवान सिंह के डर से इलाके के औरत-मर्द धोती में हग-मूत देते, उनकी हालत जैक्सन और डेविड साहब के सामने बावर्ची और खानसामे से अधिक नहीं होती-यह लीजिए हुजूर, वह टेस्ट कीजिए… कहते जबान टूटती।
यह वह समय था, जब राजे-रजवाड़े अँग्रेजो की पूँछ सहला रहे थे, तो दूसरी तरफ पूरा देश अँग्रेजों और देसी जमींदारों के शोषण-दोहन के खिलाफ पूरी ताकत से आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। लोग अपनी मुक्ति के लिए जान की परवाह किए बगैर सड़क पर उतर आए थे और साम्राज्यवाद का जुआ उतार फेंकने के लिए संघर्ष कर रहे थे।गोरी सरकार इस आंदोलन और विरोध को बेहरमी से कुचल रही थी, मगर आजादी की चिंगारियाँ दबाए नहीं दब रही थीं। क्रांति की आग हर तरफ सुलग रही थी, तब इन रजवाड़ों और जमींदारों का एक ही काम था आंदोलनकारी क्रांतिवीरों की सुराग अँग्रेजों को देना। आम-अवाम को बरगलाना कि अँग्रेज कभी नहीं जाएँगे। वे हमारे हितू-मितू हैं। उनके राज में सूरज उगता और डूबता है… इस लाठीवाले गाँधी से देश चलेगा… भगत सिंह और आजाद तो उग्रवादी हैं… सरकार सब को पकड़ लेगी! जेल में ठूँस कर काला पानी भेज देगी मरने को लिए… अमन -चैन से रहना है, तो अँग्रेजों की बात सुनो….
जैक्सन जैसे साहब उनकी पीठ ठोंकते,” तुम ठीक बोलटा हैय… हम इस मुल्क को आजाद नहीं करने सकटा….”
एक बार तो बंगले की दाई रमिया ने हाथ पकड़ने पर उनका मुँह ही नोंच लिया। बाद में रमिया के साथ जो हुआ वह तो आप आज भी अखबारों में पढ़ते हैं। उन कुत्तों ने उसे चीर-फाड़ कर मार दिया। वैसे भी उस जमाने में अँग्रजों के खिलाफ जाने के लिए जिगरा चाहिए था। आज भले ही हम रमिया जैसी जिगरावालियों को हम भूल गए हों, पर आजादी की इबारत में उनके खून की एक-एक बून्द शामिल है… उसने मरकर जैक्सन उसकी औकात दिखा दी।
अँग्रेज कलक्टर जैक्सन मिजाज से था भी सिरफिरा। उस पर शराब जब हावी होती, तो सुरूर में वह बलबलाने लगता,”…मिस्टर सिंह हम टुमको बहुत लाइक करटा है…. टुम हो असली अँग्रेज भक्त…जो आजाडी नहीं माँगटा…टुम ठीक बोलटा हैय रियाया से … अँग्रेज भारट से कब्भी नहीं जाएगा … गाँधी पागल हैय…. जंगली काला डेस चलाएगा? अम उस रामडयाल को बरगड में लटका कर मारेगा… वो भगत सिंह और आजाड का आडमी हैय…टुम काहे डरटा है… उसका सुराग डो… आजाडी… आजाडी… क्या करेगा आजाडी लेकर….?”

….
चौधरी साहब चौंक उठते। उन्हें जैक्सन की सोहबत में पक्का यकीन हो गया था कि अँग्रेज भारत से नहीं जाएँगे। अँग्रेजों के रहते जमींदारों के सौ कल्प सुख थे। जमींदारी ठाठ-बाट। भोग-विलास। वे मन ही मन जैक्सन और डेविड साहब के इशारे पर जाले बिछाते। बेचैनी केसाथ सुराजियों की सुराग सूँघते । लोगों से कहते कौन सी दिक्कत है अँग्रेजों के राज में? अब सूई नहीं बनाने वाले देश में मोटरगाड़ी… भापगाड़ी चलती है… हैजा-फौती सब भगा दिया अँग्रेजों ने…. देश को जोड़े हुए है पूरब-पश्चिम … सब तरफ… जनता भुच्च-गँवार है… सुराज लेकर क्या होगा?” कोई अगर फिर भी सुराज की बात करता, तो उसकी मुश्कें कसवाते और पीटते और राम दयाल का पता पूछते। कहते हैं जैक्सन के इशारे पर उसने कई भेदियों और सिटियारों को लगा रखा था रामदयाल के पीछे….जो उस पर चोर-नजर रखे हुए थे। इस इलाके में अँग्रेजों के खिलाफ अपने दल के साथ वही क्रांति की बिगुल फूँके हुए था…. और एक दिन कमीन ने राम दयाल को पकड़वा ही दिया।
…..
किस्सा कहते-कहते राम आधार कक्का की आँखें छलछला आती हैं,” एक बार रामदयाल के दो रिश्तेदारों को दिन भर उल्टा टांग कर रक्खा जैक्सन और टोमी पुलिस ने… पर जगतराम और परिंदर ने यही कहा…. हमें कुछ नहीं मालूम हुजूर। हारकर उतार दिया … कंधे का दर्द महीनों रहा, मगर उफ नहीं किया उन दोनों ने…. पर उन दोनों को आज कौन जानता? नाम चलता है चौधरी बलवंत सिंह का … जिसके बाप ने देश से दगाबाजी की….” उनका मन असहज हो उठता है,कुछ पल शून्य में वे उस मोहिनी मूरत को निहारते हैं,मानो रामदयाल मुस्कूराकर उनके सामने खड़ा हो गया हो” उफ ! क्या गबरु जवान था रामदयाल…. बड़ी-बड़ी कोका फूल जैसी आँखें… काले घुँघराले बाल… लम्बी-चौड़ी पहलवान छाप कद-काठी… ” मानो कह रहा हो,” सुराज आया न कक्का!अँग्रेज भागे कि नहीं? हम जो कहते थे हुआ न..?” बहती हुई नदी,… लहलहाती हुई फसल…सरसराती हुई हवा… खिली धूप… खुला आसमान… सबकी ताब है उसके स्वर में….
अचानक लगता है कि एक पल को वे भरम गए हों , बदल कर कहते हैं,” दुर कुच्छो नहीं हुआ…. सब झूठ है… धोखा हुआ आजादी के नाम पर…”रामदयाल की आँखें सूज जाती हैं, बाल झड़ जाते हैं, नाक से खून टपकने लगता है…. वह थरथराने लगता है…. और फिर बेहोश होकर गिर पड़ता है…. कक्का की सिसकी फूट पड़ती है….
” क्या हुआ कक्का?” कोई कहता है,” आप रो काहे रहे हैं?”
” हम काहे रोएँगे बेटा? कोई नदी रो रही है… हवा…आसमान.. तितली… फूल … वे सब रो रहे हैं… मिट्टी रो रही है….” वे उकठ कर कहते हैं,” अब हम क्या कहें, कथा कहने का मन नहीं होता।”
” कहो न कक्का!” लोगों की अधीरता उन्हें बेचैन कर देती है,” हम सुनना चाहते हैं उनका इतिहास…. आज तुम कहो… कल हम कहेंगे…”
कहते है राम आधार कक्का शहीद रामदयाल और उसके साथियों की कथा…. कितने साथियों के तो नाम ठिकाने का भी पता नहीं। किसी किताब में भी नहीं। कौन जानता है उनको? इसी रामदयाल को कितना आदमी जानता है देश-दुनिया में?मगर क्या यह आजादी वैसे आयी है बाबू? कितनी माँ-बहिनों के भाग-सुहाग उजड़ गए ….गोदें सूनी हो गयीं… तब जाकर आयी आजादी…”
….
मैं कक्का को आकुल-व्याकुल देख रहा हूँ, वे एक तस्वीर में बदल रहे हैं, एक ऐसी तस्वीर जो खड़िया मिट्टी से बनी है, एक किनारे कोई सूरत उभरती है, दूसरे किनारे कोई । मुझे लगता है कोई गाँधी विक्षिप्त हँसी हँस रहा हो…. देश आजाद हो गया…. फिर वह तस्वीर गायब हो जाती है… कक्का खड़िया से कुछ लिखने लगते हैं वक्त के श्याम-पट पर…तभी कोई जैक्सन हैट-पैट करने लगता है, पर कक्का निर्भीक हो उसे देखते हैं, वह भाग जाता है… राम दयाल की आत्मा उतर आती है कक्का में!आजाद भारत में तू कहाँ छिपा था जैकेसन ? तुझे तो खदेड़ना होगा… कक्का खयालों में दौड़ने लगते हैं… जैक्सन भागता है बेतहाशा… फिर किसी गैबी शक्ति से गायब हो जाता है, कक्का गच्चा खा जाते हैं, उन्हें निराशा होती है…. तभी भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद उनके कान में कुछ फुसफुसा कर कहते हैं, वे हवा में हाथ लहराते है, मुट्ठियाँ भींच लेते हैं….रामदयाल का चेहरा खड़िया की इबारत के बीच में उभरता है…

नाउम्मीद नहीं हूँ
इस वक्त से मैं
अगर बुझ गया हूँ,
तो मेरे ज़ज़्बे को जलाओ तुम
इतिहास नहीं बनता है
कभी आईने में सूरत निहारने से
एक कदम बढ़ाओ तुम!
…
मुँह जबानी इतिहास हैं कक्का! कक्का नहीं होते , तो हम राम दयाल की कहानी भूल गए होते। अब तक जिन्हें हम भूल गए, उन्हें भी याद कर रहे हैं कक्का। न जाने कितने सुराजियों और क्रांतिकारियों की बात याद है उन्हें!
“फिर क्या हुआ कक्का?”
“फिर जो हुआ , सो बहुत अँधेर हुआ।उस दिन रामदयाल की बहन का विवाह था। उसके पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। वह भाई की लाडली थी।पर उसने मना किया था भाई को। गाँव में सुग-बुग था कि चारों तरफ सफेद भेड़िये राह सूँघ रहे हैं… पर होनी कैसे टलती… अभी वे खेत और पहाड़ी जंगल से निकल कर पगडंडी पर आए ही थे कि घात लगाए बिल्लों ने उन्हें दबोच लिया…”
” फिर क्या हुआ?”
कक्का कुछ पल बिलमते हैं और फिर कहते हैं,” चौधरी दीवान सिंह ने गाँव की इज्जत की परवाह किये बगैर जैक्सन की मदद से जाल बिछवा रक्खा था…. नहीं तो क्या मजाल की अँग्रेज पलटन इनको छू भी लेती….”
” फिर?” बेचैन स्वर ! उग्र उत्कंठाएँ!
” गोरे साहबों और उनकी पलटन के जवानों ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया उन तीनों को। चौधरी साहब तमाशा देखते रहे।लेकिन वे भारत माता की जय बोलते रहे… तब भी जब उन्होंने संगीन चुभोया उनके जिस्मों में…. तब भी जब जलती सिगरेट से दागा गया उनको… ” उनकी आवाज अवरुद्ध होने लगती है,भीतर कुछ भहराने लगता है,” मूतकर पिलाया उन हैवानों ने ….बूटों से बारी-बारी से कुचला उन रण-बाँकुरों को, तब भी उनकी जुबान नही खुलवा सके…”
” जैक्सन और डेविड उनसे बेलदह शस्त्रागार लूट और रोहियामा कांड की बात पूछ रहे थे, बदले में सरकारी गवाह बनाने का प्रलोभन भी दे रहे थे…” कक्का कुछ पल सोचते हैं और फिर याद कर कहते हैं,” जानते हो बेलदह में क्या हुआ था। वीरता की अद्भुत घटना है…रात के तीसरे पहर नाव से कोसों सफर कर रामदयाल और उसके साथियों ने बेलदह थाना पर धावा बोल कर शस्त्रागार को लूट लिया… अँग्रेज अफसर बौखला कर रह गए…”
हालाँकि उस अभियान में उसके कई साथी शहीद हो गए…”
“… और रोहियामा में…?”
” रोहियामा में शस्त्रों से लदा हवाई जहाज नीचे आ गया… तेल खत्म हो गया था शायद… लोगों की भीड़ जमा हो गयी… जहाज के अंदर से कुछ अँग्रेज अफसर फायर कर रहे थे, पर रामदयाल और उसके साथियों ने उन्हें मार गिराया और फिर हथियारों के जखीरे को लोगों ने लूट लिया…” कक्का के चेहरे पर दर्प की आभा पसर आती है,” ऐसे थे वे लोग… कहते हैं चौधरी और जैक्सन ने जब उन्हें और प्रलोभन दिया, तो उन्होंने थूक दिया उनके चेहरों पर… आक थू!”
” फिर क्या हुआ कक्का?”
” फिर वही हुआ, जो होना था, बरगद की शाखों से टाँग कर सूट कर दिया उन तीनों को…” कक्का की आँखें विस्मय से फैल जाती हैंं, जैसे अभी-अभी गोलियाँ चली हों और बरगद की शाखों से खून टपक रहे हों… टप! टप!! टप!!!

कक्का का चेहरा विकृत हो जाता है,” उसी चौधरी दीवान सिंह का बेटा। हर साल राम दयाल की बरसी पर माल्यार्पण कर कहता है… राम दयाल हमारे रियासत का गौरव है, उसने अँग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए… हम सरकार से कहेंगे कि रियासत में उनका स्मारक बनाया जाए…. कितना बड़ा विश्वासघात है यह? इतिहास पर आज भी उनका कब्जा है, कल वे जो कहेंगे… वही होगा… वही हो रहा..अँग्रेजों का बिष्ठा खाने वाले कौए आज भी सत्ता-सुख भोग रहे हैं…हमारे सपनों का मजाक बना रहे हैं…. ”
कक्का को मैंने संभाल लिया,” आप मत रोइए कक्का… आपने हमें सच बता दिया है, आगे इतिहास अपनी कहानी खुद कहेगा। जनता एक दिन फैसला लेगी… राम दयाल और उनके साथियों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा…”
कक्का के आँसुओं में उम्मीद की एक लकीर खिंच कर रह जाती है।

————–
नाम- संजय कुमार सिंंह
जन्म- 21 मई 1968 ई.नयानगर मधेपुरा बिहार।
शिक्षा- एम.ए. पी-एच.डी(हिन्दी)भा.वि.भागलपुर।
रचनात्मक उपलब्धियाँ-
हंस, कथादेश, वागर्थ, उद्भभावना, पाखी ,साखी, नवनीत, आजकल, नव किरण, अहा जिंदगी,चिंतन दिशा कथाबिंब ,दोआबा, कथाक्रम, लहक, कलायात्रा, प्राची, परिंदे, अक्षरा , गगनांचल, विपाशा, हिमतरु, साहित्य अमृत, समकालीन अभिव्यक्ति, मधुराक्षर, परती पलार,दि अण्डरलाइन, हिन्दुस्तानी जबान,सृजन सरोकार, सृजन लोक, नया साहित्य निबंध, पाठ, किस्सा, किस्सा कोताह, नवल, ककसाड़ , एक और अंतरीप, अलख, नया, अग्रिमान, हस्ताक्षर, नव किरण, आलोक पर्व, लोकमत, शब्दिता, काव्य-प्रहर,नव निकष, स्वाधीनता ,रचना उत्सव, अभिनव इमरोज, शोध-सृजन, पश्यंती , वर्त्तमान साहित्य, कहन, गूंज, संवेद, संवदिया, पल, प्रतिपल, कला, वस्तुत: उमा, अर्य संदेश, गूँज, सरोकार, द न्यूज आसपास, कवि कुंभ,मानवी,अलख साहित्य समीर दस्तक, सरस्वती सुमन, हिमालिनी, मुक्तांचल, साहित्य यात्रा, विश्वगाथा , शीतल वाणी, अनामिका, वेणु, जनतरंग,किताब , चिंतन-सृजन, साहित्यनामा, हिमाचल साहित्य दर्पण, दैनिक हिन्दुस्तान, इन्दौर समाचार, मालवा हेराल्ड, कोलफील्ड मिरर, नई बात, जनसत्ता, प्रभात खबर आदि पत्र- पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ,आलेख व समीक्षाएँ प्रकाशित।
प्रकाशित कृतियाँ-
1 टी.वी.में चम्पा (कहानी संग्रह) सस्ता साहित्य मंडल दिल्ली
2 रंडी बाबू ( कहानी- संग्रह)जे.बी.प्रकाशन नई दिल्ली
3 कैसे रहें अबोल( दोहा-संग्रह) यश प्रकाशन दिल्ली
4 धन्यवाद-( कविता संग्रह) नोवेल्टी प्रकाशन पटना।
5 वहाँ तक कोई रास्ता नहीं जाता-(कविता-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
6 लिखते नहीं तो क्या करते-(कविता-संग्रह) वही।
7 रहेगी ख़ाक में मुंतज़िर-(उपन्यास) वही
8 सपने में भी नहीं खा सका खीर वह!(उपन्यास) वही
9 समकालीन कहानियों का पाठ-भेद( आलोचना की पुस्तक)यश प्रकाशन दिल्ली।
10- कास के फूल ( संस्मरण)वही
11करवट (कहानी-संग्रह)न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली।
12 अँखुआती है फिर भी जिंदगी (काव्य-संग्रह) सृजन लोक प्रकाशन नई दिल्ली।
13 आलिया की कविता का सच(कहानी-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
14 लाल बेहाल माटी (कहानी-संग्रह) अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
15 हजार पंखों का एक आसमान (कहानी-संग्रह) अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
16 गरीब रथ(कहानी-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली

सम्प्रति- प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला काॅलेज पूर्णिया-854301

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