गिरिजाकुमार जी के हमारे परिवार के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध रहे. उनके पिता द्वारा बनाया विशालकाय “बाड़ा” के किराएदारों के कानूनी मुकदमे मेरे पिता और भाई ही सम्हालते थे.
वह साल में एक बार कभी शकुंत जी के साथ, कभी मेरे हमउम्र पवन के साथ, कभी अमिताभ के साथ आते थे.
न्यूयार्क में पांच बरस तक उन्होंन हिन्दी प्रसारण किया. आकाशवाणी के निर्देशक के पद पर वह बेहद सख्त और अशोकनगर आते ही ‘मन मस्त हुआ तो क्या बोले’ वाली कैफ़ियत में आ जाते.
न्यूयार्क प्रवास का एक नागरिक बोध,
देशप्रेम से जुड़ा प्रसंग उन्होंने हमारे घर के चेम्बर में सुनाया था…
न्यूयार्क में एक बेहद सर्द सुबह वह घूमने निकले. वहाँ रोड के किनारे एक अमरीकी वर्कर सिर्फ कमीज-पेंट पहने दिखा. उसके प्रति सम्वेदना दर्शाते हुये माथुर जी ने अपना ओवरकोट उसे दे दिया. उस वर्कर ने कुछ देर तक माथुर जी को देखा और फिर उस ओवरकोट को अंगूठे और अंगूली से पकड़ कर पास के ङस्टबिन में डाल दिया. माथुर जी उसके स्वाभिमान और नेशन प्राउड से अभिभूत हुए.
यह बहुत ही सुखद संयोग रहा कि मेरी
सगाई और शादी दोनों अवसरों पर वह अशोकनगर उपस्थित थे. मेरी शादी में शामिल होने पर उनकी ख़ुशी छलक रही थी.
शादी के अगले दिन उन्होंने मुझसे कहा-
“गोपाल शादी के बाद मेरी इन दो
बातों पर सख्ती से अमल करना, सुखी
रहोगे.”
मैंने फ़ौरन कहा-
‘बताएं चाचा जी..’
उन्होंने गंभीर लहजे में कहा..
” 1. पत्नि से जो भी वादा करो, वह
हर हाल में पूरा करो.”
“2. खबरदार ❗️ पत्नी से कभी कोई वादा न करो.”
और इशारे से सचेत किया.
जब उन्होंने मुझे अपना काव्य संग्रह
“छाया मत छूना, मन” दिया, तब मैंने उनसे कहा-
‘चाचा जी यह आपने क्या किया? आपकी बहु (मेरी पत्नि) क़ा नाम छाया ही है, अगर उसने मेरा मन नहीँ छुआ तो कैसे चलेगा? ‘
वह थोड़ी देर हसते हुए लोटपोट हुए, फिर कहा –
“‘अरे! गोपाल छाया प्रतीकात्मक हैं,
इसका निहितार्थ छायाओं से हैं. डॉ. छाया तो जीवन भर तुम्हे सुख -शान्ति की छाया में रखेगी”
अब ‘छाया मत छूना, मन’ गीत पर बात…..
1. यह गीत विधा का बेहतरीन गीत हैं.
2. इस गीत के केंद्र में करुणा और सम्वेदना हैं.
3. अशोकनगर में आयोजित काव्यपाठ में सबसे अधिक इसी गीत की फरमाइश होती थी
4. प्रलेस, अशोकनगर ने इसे प्रभावी संगीतबद्ध किया.
पूरे गीत क़ा आनंद लीजिये….
” छाया मत छूना मन
होता है दुख दूना मन
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।
भूली-सी एक छुअन
बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन
यश है न वैभव है, मान है न सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।
जो है यथार्थ कठिन
उसका तू कर पूजन-
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुया जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?
” जो न मिला भूल उसे
कर तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन “….
लेखक-संस्मरणकार, ग्वालियर, (एमपी)