यादों का मेला
यह यादों का
मेला देखो
कितने लोग
चले आये हैंं
कोई इतना
पास खड़ा है
जीवन भर जो
साथ हाल है ।
आज अकेले
हम चलते हैं
फूलों की बातें
सुनते हैं
मुरझाए दिल से
हम अपने
उनका आवाहन
गिनते हैं ।
कितनी ख़ुशियाँ
मचल रही हैं
हमने आंसू
छलकाएँ हैं।
खिल जाता है
मन यह अपना
कैसे उनको
यह बतलायें
उनके कितने
मादक चेहरे
आखों में नर्तन
करवाएँ ।
हमने उनकी
अगवानी में
ये विगलित
नयन बिछाये हैं ।
इस मेले में
खो जाने की
कोई हमको
फ़िक्र नहीं है
कोई सुबह
कैसे निकले
जिसमें उनका
ज़िक्र नहीं है ।
जिसकी उपमाओं
से हमने
अंतर के राग
सुनाये हैं
रोज उन्हीं की
यादों में हम
कैसे मन को
बहलाते हैं
ये यादों के
मेले देखो
दुनिया एक
बसा जाते हैं।
कितने टूटे
दिल बेचे हैं
कितने दर्द
दबाये हैं ।
इस धरती के सारे उत्सव
इस धरती के
सारे उत्सव
सिर्फ़ तुम्हारे
आँचल में थे
वो आँचल
जिसको छू लो तो
उड़ने लगता
था लहराकर
कितने मौसम
सिर्फ़ तुम्हारी
आँखों में
उत्तर करते थे
फूलों सा खिलना
सीखा था
राहों पर चलना
समझकर ।
उन आँखों की
झीलों में भी
देखे मैंने चन्द्र
दिवाकर ।
जीवन साथी
बनकर तुमने
इस दुनिया में
रंग बिखेरे
मेरे मन में
अपने मन के
रसभिने से
भाव उकेरे
साथ तुम्हारे
चलकर मैंने
आशाओं को
जीत लिया था
जाने कितनी
रातें बीती
जाने कितने
उगे सवेरे ।
रोज़ नई इक
आशा बनकर
खिल जाती थी
तुम मुसकाकर ।
यह दुनिया भी
जीने लायक़
सिर्फ़ तुम्हारे
ही कारण थी
वरना तो इस
दुनिया की हर
गति पहले से
निर्धारित थी
पास तुम्हारा
होना शायद
मुझमें जीवन
का होना था
वर्ना तो मेरी
ख़ुशियों की
हर कथा – कहानी
दारुण थी ।
पाँव रखे थे
जिस दिन तुमने
मेरे घर आँगन
में आकर ।
इन सपनों में क्या
जुड़ जाता हूँ
किस किस से मैं
नहीं पता यह
अबतक मुझको
अपने दिल में
कितने सपने
अभी जगाने हैं
फिर मुझको ।
अपने कितने
अफ़साने भी
अभी सुनाने हैं
फिर मुझको ।
देख रहा हूँ
कितनी चीजें
बिखर -बिखर
कर रह जाती हैं
जाने कितनी
आशायें भी
कहीं किनारा
कर जाती हैं।
बँध जाता हूँ
किस-किस से मैं
नहीं पता यह
अब तक मुझको ।
खो देता हूँ
जाने क्या-क्या
पा लेता हूँ
जाने क्या क्या
इन सपनो मैं
नहीं पता है
शामिल हो
जाएगा क्या-क्या ।
कितने उलझे
प्रश्नों के अब
अर्थ लगाने हैं
फिर मुझको ।
कभी सुबह का
कभी शाम का
आकर्षण
खींचा करता है
जाने कितने
प्रतिरूपों की
हर पल जिज्ञासा
करता है।
जाने कितनी
नादानी भी
रोज़ जतानी
पड़ती मुझको ।
कभी अचंभित
हो जाता हूँ
मादकता के इस
जमघट पर
किसी नयन से
छलका पानी
अंतर्मन सींचा
पनघट पर ।
फूलों से
कितने वीराने
अभी खिलाने हैं
फिर मुझको ।
जीवन उत्सव
जब भी दिल
की बात लिखूँगा
थोड़ा -थोड़ा
दर्द लिखूँगा
मचल रहा
जो धीरे -धीरे
थोड़ा -थोड़ा
प्यार लिखूँगा ।
लिख डालूँगा
काली रातें
कितनी दिवानी
होती हैं
और सितारों
से की बातें
कितनी
मस्तानी होती हैं।
अपनी
अभिलाषाओं का मैं
थोड़ा-थोड़ा
सार लिखूँगा ।
सोचा मैंने क्या-क्या
मन में
जीवन उत्सव
बन जाएगा
और निराशाओं
का सारा
बादल छाँटकर
रह जाएगा।
हर बादल के
कतरे से मैं
पानी की बौछार
लिखूँगा।
मेरे लिखने से
अब शायद
टूटे दिल को
चैन मिलेगा
जब भी दिल
यह घबरायेगा
कोई हमदम
मुझे मिलेगा।
हर भीगे मौसम
में अपनी
सांसों की
मल्हार लिखूँगा ।
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स्टॉकहोम, स्वीडन