ग़ज़ल -1
राह मुश्किल सही, हौसला कीजिए।
क्या किसी का यहाँ आसरा कीजिए।
धर्म क्या, जात क्या देखिए ख़ूबियाँ,
फ़र्क़ अच्छे- बुरे में किया कीजिए।
ज़िन्दगी मुख़्तसर ख़्वाहिशें हैं बहुत,
क्या लक़ीरों में है तबसरा कीजिए।
अब्र रहमत के जाने कहाँ खो गए,
तिश्नगी बढ़ रही है दुआ कीजिए।
उँगलियाँ जो उठाता है सब की तरफ़,
रू-ब- रू उसके भी आइना कीजिए।
हो गई बेगुनाही भी साबित मेरी,
सोच कर ही कोई फ़ैसला कीजिए।
इस नए दौर का है तक़ाज़ा यही,
साथ दुनिया के ‘हिमकर’ चला कीजिए।
ग़ज़ल -2
क्या बतायें तमाशा हुआ क्या।
देखिए और होता है क्या-क्या।
क्या अना, क्या वफ़ा, है हया क्या,
इस अहद में भला क्या, बुरा क्या।
बेनिशाँ हैं अभी मंज़िलें सब,
हर क़दम देखना आबला क्या।
कोस मत तू मुक़द्दर को अपने,
सर पटकने से है फ़ाएदा क्या।
ये नसीबों का है खेल सारा,
जो मिला सो मिला अब गिला क्या।
दूर तक बदहवासी के साये,
दीप फिर नफ़रतों का जला क्या।
हौसला रख थमेगा ये तूफ़ाँ,
कर ख़ुदी पे यक़ीं नाख़ुदा क्या।
ग़ज़ल : 3
रवानी गर नहीं हो तो नदी अच्छी नहीं लगती।
कोई फ़ितरत बदलती चीज़ भी अच्छी नहीं लगती।
छलकते बाप के आँसू, सिसकती रात भर अम्मा,
बुढ़ापे में किसी की बेबसी अच्छी नहीं लगती।
कहीं पे जश्न का आलम, कहीं पे मुफ़लिसी तारी,
चराग़ों के तले यह तीरगी अच्छी नहीं लगती।
खिलौनों की जगह हाथों में बच्चों के कटोरे हैं,
किसी मासूम आँखों में नमी अच्छी नहीं लगती।
कभी जो साथ रहते थे, हुए हैं दूर वो मुझसे,
मुझे यूँ दोस्तों की बेरुख़ी अच्छी नहीं लगती।
तुम्हारी याद में अक्सर मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ,
जमाने को मेरी ये बे-ख़ुदी अच्छी नहीं लगती।
जहाँ इंसानियत के नाम पर कुछ भी नहीं बाक़ी,
वहाँ तहज़ीब की बेचारगी अच्छी नहीं लगती।
-हिमकर श्याम
राँची, झारखंड