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Reading: वीरेन्द्र परमार के व्यंग्य-संग्रह – यतो अधर्म: ततो जय : भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय उत्सव में : अजित कुमार राय
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Lahak Digital > Blog > Literature > वीरेन्द्र परमार के व्यंग्य-संग्रह – यतो अधर्म: ततो जय : भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय उत्सव में : अजित कुमार राय
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वीरेन्द्र परमार के व्यंग्य-संग्रह – यतो अधर्म: ततो जय : भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय उत्सव में : अजित कुमार राय

admin
Last updated: 2023/06/26 at 9:55 AM
admin
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7 Min Read
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कूट वक्रताओं के विकास – क्रम में व्यंग्य एक प्रहार मूलक नुकीला और धारदार हथियार है जो कि भ्रष्टाचार की सहिष्णुता के कारण अब भोंथरा होता जा रहा है। आक्रोश की सान्द्रता और संपुंजित अभिव्यक्ति का मंत्र है व्यंग्य। इस विधा के दर्पण में हमारे समय और समाज की व्यावहारिक प्रतिच्छवि प्रति छवि की प्रविधि से विन्यस्त होती है। कबीर की उलटवाँसियों का आधुनिक संस्करण व्यंग्य के प्रारूप में सुरक्षित है। आज जब कि सर्वव्यापी भ्रष्टाचार को सामाजिक मान्यता मिल गई है और राजनीतिक संरक्षण में हम उसका अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो केन्द्रीय रस करुण नहीं, एक मात्र व्यंग्य के आयुध से ही हम भ्रष्टाचार की परतों को छील सकते हैं। व्यंग्य के स्रोतों, उसके समस्त आयामों और व्याप्ति की गवेषणा वही व्यक्ति कर सकता है जो सिस्टम में गहरे धंसा हो और लाभ के पद पर प्रतिष्ठित हो। क्योंकि आज यह माना जाता है कि ईमानदार वही है जिसे बेइमानी का अवसर नहीं मिला। वीरेन्द्र परमार भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के अधीनस्थ केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड में राजभाषा विभाग में उपनिदेशक रहे हैं और गृहमंत्रालय में भी। तो व्यवस्था में अंतर्भुक्त भ्रष्टाचार के यथार्थ को यथार्थतः जानते हैं। एक ईमानदार व्यक्ति को किस प्रकार अस्तित्व – संकट से जूझना पड़ता है, इसका साखी तो मैं भी हूँ। समर्पण, स्वीकार या समझौता तीन ही विकल्प बचते हैं। लेखक ने आत्मपरक शैली में लिखा है कि जब मैं एक लिपिक के द्वारा भ्रष्टाचार में दीक्षित हुआ तो घर से लेकर कार्यालय तक सबने राहत की सांस ली कि अब बंदा सुधर गया और विरादरी में शामिल हो गया। मेरा नागरिक अभिनन्दन समारोह आयोजित हुआ और मेरे ऊपर अभिनंदन ग्रंथ लिखे गए। क्योंकि अब मैं साहित्यिक संस्थाओं को मोटा चन्दा देने की हैसियत में आ गया था। सचिवालय का लिपिक, जिसके सामने जिलाधिकारी विनयावनत जनता की तरह खड़े होते हैं और अपने अधिकारी होने पर पछताते हैं, आर्थिक ऐश्वर्य का स्वामी जब वह भी कहता है कि भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है तो हम चौंक जाते हैं कि आखिर भ्रष्ट है कौन? निराकार भ्रष्टाचार के इस युग में गांधीजी भी जीवित होते तो चुनाव हार जाते। आज चार्वाक – दर्शन को राष्ट्रीय दर्शन घोषित कर समस्त आर्यावर्त को भोगभूमि में तब्दील कर दिया गया है। आज के रिश्वत जीवी समय में नैतिकता, ईमानदारी और सन्तोष जैसे शब्द शब्दकोष से भी गायब हो गए हैं। भ्रष्टाचार के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालते हुए लेखक जुगाड़ बाजी और दलाल बाजी को उसके मुख्य कारक के रूप में अन्वेषित करता है। सारा अर्थतन्त्र दलाली के चक्रव्यूह में फंस गया है। किसान जीतोड़ मेहनत करने के बाद भी मरने के लिए अभिशप्त हैं और बिचौलिए मलाई काट रहे हैं। घोंचू मल ज्वलंत और चलंत सूचना – केन्द्र हैं और अफवाह उड़ाने में पाकिस्तान से भी दो कदम आगे हैं। बिना आग के भी धुआँ उड़ाने की कला कोई उनसे सीखे। वे सत्ता के आंख और कान हैं और देश को चरागाह बनाने की तकनीक के विशेषज्ञ। इन्हीं के बल पर सड़क से लेकर संसद तक अधिकारी मुद्रा – मोचन के एकसूत्री अनुष्ठान में इस कदर लीन हो गए हैं कि वे अपने – पराए के बोध से ऊपर उठ गए हैं और उनकी समरूप दृष्टि में मित्र और शत्रु सबके लिए रिश्वत की राशि में एकरूपता आ गई है। बढ़ते तापमान के बीच कभी कभी रिश्वत के सूचकांक में गिरावट भी दर्ज की जाती है। सत्ता की आर्थिक लम्पटता को राष्ट्र हित में उठाए गए कदम सिद्ध करने वाले चारणों की कमी नहीं है और नेताओं की गालियाँ भी समाजवादी और महाकाव्यात्मक हो गई हैं। उनका भाषावैज्ञानिक और सौन्दर्य शास्त्रीय विश्लेषण करने वाला मीडिया नेताओं की छींक को भी राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना देता है। एक कुशल अभिनेता से भी अधिक विदग्ध नेता दार्शनिकता ओढ़ लेते हैं और उनके अनुयायी उनके अलंकृत भाषणों की अर्थ – मीमांसा करने में विचक्षण होते हैं। तेल लगाने की कला और मिलावट का व्याकरण तो कोई उनसे सीखे। सामाजिक शिक्षण के इन अनिवार्य विषयों के अतिरिक्त लेखक ने आतंकवाद के संरक्षक मानवाधिकार संगठन के वामपंथी गिरोह का श्रद्धा के साथ स्मरण किया है। लेखक को बुद्धत्व की प्राप्ति भी दिल्ली के एक संपादकीय कार्यालय में हुई थी —-
माया महा ठगिनी मैं जानी।
लेखक अनुभव करता है कि वामपंथी लंगोट पहनकर कोई भी जाहिल, कुपढ़ और असंवेदनशील व्यक्ति भारत में संपादक, आलोचक या प्रोफेसर बन सकता है और दलाली की सिद्धि में अपने सिद्धांत का योगदान दे सकता है। सचिवालय में नौकरी करने वाले भले अवकाश पर चले जायं, लेकिन दलाल तीन सौ पैंसठ दिन अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। फाइलों पर कुंडली मार कर बैठे बाबुओं का तिलिस्मी भवन तो भारत के विश्व गुरु होने का प्रमाण पत्र है। पूर्वोत्तर भारत के आदिवासियों और उनके लोकसाहित्य के सबसे प्रामाणिक अध्येता और विशेषज्ञ वीरेन्द्र परमार जी ने कई बार लोककथाओं को भी अपनी कल्पनाशीलता के द्वारा व्यंग्य के शिल्प में ढालकर प्रस्तुत किया है। अधर्म की ऐसी जय कितनी वांछनीय है! किसी तारिका के गर्भवती होने की खबर को गर्भगृह से खींच कर हेडलाइन्स प्रदान करने वाले मीडिया और सी बी आई को अब अच्छे लोगों की तलाश करनी पड़ेगी। परमार जी की इस मार से प्रधान सेवक के भाषणों की दिशा तो नहीं बदलेगी और न ही सत्ता के लिए लार टपकाते विपक्ष की तपस्या भंग होगी, किन्तु व्यवस्था को थोड़ी सी चोट तो पहुंचेगी ही। हम सत्ता की अराजकता को रोक तो नहीं सकते पर टोक तो सकते ही हैं। बहुत याद आते हैं कुबेर नाथ राय। महाकवि की तर्जनी ही त्रेता के वृहत्साम की प्रस्तावना रचती है और याद आते हैं डा. रामाश्रय मिश्र ‘उजबक’ (बकलोल या मूर्ख) ——
अपराध का पता लगाने के लिए
जब थाने से एन सी सी एन कुत्ते छोड़े जाते हैं
तो ये कम्बख्त घूम – फिर कर
थाने में ही घुसे आते हैं।

अजित कुमार राय, कन्नौज

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