यह दुनिया है. इसे दुखग्राम किसने बनाया? हम इंसानों ने. लोभ और स्वार्थ के चक्कर में फंसे लोगों ने. इसे फिर से कैसे सुखग्राम बना सकते हैं? हृदय की संवेदना से. वह संवेदना जो हृदय में सोई हुई है, उसे फिर से जगाकर. और यह संवेदना जागेगी कैसे? साहित्य से. साहित्य लोगों के मन को निर्मल बना सकता है और दुखग्राम को सुखग्राम.
एक अरसे बाद मैंने साहित्य पढ़ा है. हाल के वर्षों में कथा-कहानियों से दूर हो गया था. नॉन फिक्शन की तरफ मन चला गया था. मगर फिर अपने प्रिय कथाकार चंद्रकिशोर जायसवाल का नया उपन्यास हाथ लगा.
यह कहना तो गलत होगा कि चंद्रकिशोर जायसवाल ने इस दुखग्राम की रचना की है. सच यह है कि जिस तरह हम सब दुनिया को दुखग्राम से सुखग्राम बनाने की चाहत अपने मन में पाले बैठे हैं, वही चाहत 83 साल के लेखक चंद्रकिशोर जायसवाल की भी है और वे इस नये उपन्यास के जरिये एक समाधान पाठकों के सामने पेश करते हैं.
यह एक अलग तरह का उपन्यास है. चंद्रकिशोर जायसवाल की पहचान जिस तरह के कथा साहित्य को लेकर रही है, उससे अलग. वे अमूमन वंचित तबके के लोगों के जीवन के रस को उजागर करने वाले कथाकार रहे हैं. उनके जीवन में घट रहे बदलाव को चिह्नित करने वाले लेखक. समाज को लेकर उनकी समझ बहुत सूक्ष्म स्तर तक जाती है. ठीक उसी तरह जैसे निर्मल वर्मा मन को बहुत महीन तरीके से पकड़ते हैं.
उनकी कथोपकथन की शैली है. किरदारों के बीच में बातचीत है, जो कई बार आपको अतिरेक भरी लग सकती है. वे बातों की कड़ियां जोड़ते चले जाते हैं. उनके किरदार इतनी बातें करते हैं कि आप सोच में पड़ जाते हैं, कोई इतना भी बकबक करता होगा. आप घबराने लगते हैं कि कहीं सामने वाला किरदार इस बातचीत से ऊब न जाये.
जैसे यह पूरा उपन्यास दो किरदारों की बातचीत पर ही आधारित है. एक रिटायर प्रोफेसर हैं और एक नया लेखक. रिटायर प्रोफेसर जो तर्किक, खूब पढ़ा लिखा और इस दुनिया के लिए मिसफिट रहने वाला इंसान है. एक छोटे से शहर पूर्णिया में रहता है. वहां उसकी दोस्ती सिर्फ एक लेखक श्रीकांत से है. प्रोफेसर साहब के जीवन की एक ही चिंता है, उनका मानसिक विकलांग पोता मयंक. वे उसके भविष्य को लेकर परेशान रहते हैं और उसकी बातें अपने लेखक मित्र से हमेशा सुनाते रहते हैं.
प्रोफेसर साहब इस चिंता में रहते हैं कि उनके बाद उनके पोते की देखरेख कौन करेगा. इसके लिए फिर से आसपास के लोगों से जुड़ने लगते हैं. अपने पोते के लिए दोस्तों और हितैशियों की कतार खड़ी करने लगते हैं. फिर एक दिन वे उसे लेकर अपने गांव चले जाते हैं. वह गांव जो अब बिल्कुल बदल गया है. मगर वे अपने पोते के लिए वहां रहते हैं और अपने जुड़ाव का संसार खड़ा करते हैं.
वे अक्सर गांव से लौटकर पूर्णिया आते हैं और अपने लेखक मित्र से मयंक की कथा लिखने कहते हैं. वे गांव में चल रहे उथल-पुथल की कथा भी उन्हें सुनाते हैं.
वे मयंक के भविष्य को लेकर ही परेशान नहीं हैं. वे दुनिया भर के बच्चों के दुख को लेकर परेशान हैं. एक दिन वे सीरिया में डोंगी से गिर गये बच्चे की तसवीर देखते हैं और द्रवित हो उठते हैं. वे उसकी कथा भी लेखक से लिखने कहते हैं. वह लेखक कहानियां लिखता है और उनके गांव वें वे कहानियां कही और सुनी जाने लगती हैं. उन्हें लगता है कि दुखग्राम थोड़ा बदल रहा है. और शुरुआत में दुनिया से नाउम्मीद प्रोफेसर साहब को लगता है कि साहित्य ही दुनिया को बदल सकता है.
चंद्रकिशोर जायसवाल अद्भुत कथाकार हैं. मगर मुझे उनका सबसे प्रिय रूप तब दिखता है, जब वे बच्चों के लिए लिखते हैं. उनका एक बहुत मोटा उपन्यास चिरंजीव मुझे बहुत पसंद है. उस उपन्यास को मैं लगातार 24 घंटे पढ़ता रहा.
उसका आधा पिता और पुत्र के प्रेम की मधुर गाथा. इतना मधुर कि आपको सूरदास याद आने लगते हैं. मगर दूसरा हिस्सा उस पुत्र से पिता के विछोह की कथा है. इसके उलट दुखग्राम में कहानी दुख और निराशा से शुरू होती है. किताब का लगभग तीन चौथाई हिस्सा उदासी भरी बातों से भरा है. आप कभी भी उकता कर इसे बंद कर सकते हैं. आखिर के एक चौथाई हिस्से में लगता है कि उन्हें इस नाउम्मीदी भरी दुनिया से उबरने का रास्ता मिल गया है. उस हिस्से में गांव है और गांव के उनके प्रिय किरदार आते हैं.
चंद्रकिशोर जायसवाल का यह नया उपन्यास न तो उनकी शुरुआती कहानियों जैसा मधुर है और न ही सात फेरे और पलटनिया जैसा समाज के अंदरूनी हिस्से में आ रहे बदलावों की सूक्ष्म विवेचना करने वाला. इस उपन्यास में उनका अपना समाज बहुत कम है. बातें उनके मन में चलती हैं. बड़ी संख्या में सूचनाएं ऐसी हैं जो उन्हें किताबों और सोशल मीडिया से मिली हैं. मगर शायद यह हम जैसे शहरियों के जीवन का भी सच है. क्योंकि जब प्रोफेसर साहब गांव लौटते हैं तब उपन्यास में अचानक कई जिंदा किरदार शामिल होने लगते हैं.
शायद उन्होंने जानबूझकर अपने क्राफ्ट को इस उपन्यास में तोड़ा है. एक नया क्राफ्ट, एक नये तरह का विषय चुना है. उसे उदासियों से भर दिया है. इसमें रस कम है, फिक्र ज्यादा है. यह चंद्रकिशोर जायसवाल मार्का उपन्यास नहीं है, कथा नहीं है. यह एक अलग ही किताब है. मगर फिर भी यह एक जरूरी किताब है, एक महत्वपूर्ण उपन्यास है. 83 साल का एक लेखक खुद को रिडिस्कवर कर रहा है, अपने आपको चुनौती देते हुए, एक अलदहा फार्म में एक नयी बात कहने का रिस्क ले रहा है. यह सामान्य बात नहीं है. कितने लोग अपने बंधे-बंधाये और सफल फार्मेट को तोड़ने का रिस्क लेते हैं. और यही बात इस उपन्यास को महत्वपूर्ण और चंद्रकिशोर जायसवाल के लेखन को ऊंचा साबित करती है.