कम ही कम
कम ही कम है
साधन-माध्यम-भूति-प्रभा-प्रतिभा
और फैलने अवसर,
अंजुरी कम चौड़ी-गहरी है
तो भी भरी नहीं है
छप्पर फाड़ बरस न पड़ी
मेहनत के बूते
सत्य के फले
प्रकृति वैभवी
खिंची रही अजनबी की तरह
हर शै का टोटा ही
जीवन-निधि का परिचय है,
हौसला बांधने दाद शक्ल में
व्यंग्य-हॅंसी है
कसी गई फब्ती है,
अपकीर्ति रखे कन्धे पर हाथ
घूमने के ज्यों
मूंदती आंख साथ चली है
गोल घूमती गली धरे
तकलीफें खूब इकट्ठी हैं
सुख-रिक्त पड़े स्थानों में
जिनमें द्वन्द्व और विग्रह की
कहासुनी की घनी बसी बस्ती है
जिसके भीतर जीवन का
पकड़े हुए गला
रोज का कामधन्धा है,
कटता ही नहीं मात्र वक्त का लौह
इस तरह भिड़े व गुत्थमगुत्था हुए
सख्त चक्का आगे भी बढ़ता है
हंसने वाला युग रोता है,
इस हिसाब से
वृत्ति फेर से
रोना नामे अधिक जमा है
यह राहत है
इससे भीत में खिड़की प्रकाश की
खुल सकती है
खुश होना तो जाहिर है
खतरे की दावत है,
अनुभव प्रमाण की शिखा-रोशनी
शब्द प्रमाण के सिर पर चढ़
सच बयान करती है
तो धोखा क्या
कम ही कम है श्री
तो लगना चोखा क्या
लेकिन जो कुछ है
उसका दामन भी साफ नहीं
तो घाटा है
इस पर अचरज भी क्या करना
पीटना विकल क्या सिर
इससे आशा है,
यह कुछ-भर जीवंत-भरोसेमंद
और बुलन्द
एक दोस्ती है
उसके ही वास्ते मर्म-पुकार उठी
उससे ही बिखरा हुआ बंधा
अर्थ सधा
ले-देकर वही जिन्दगी-बचतों से गढ़ी
मांगलिक मूर्ति
उसपर ही अर्घ्य चढ़ा,
हाथ वही है
धरने हाथ बढ़ा।
महाभारत
झूठ न कहो
संजय ! सच कहो
क्या हमारे मारे गए पुत्र सारे
पाण्डु के सब हुए विजयी
युद्ध में
कहा संजय ने राजन, यही सच है
पूछा धृतराष्ट्र ने
असम्भव यह घटा कैसे
जवाब दिया संजय ने –
पाण्डव सालों साल सड़कों पर
मारे मारे फिरे
जंगलों में रहे
भीख मांगा
साल एक गुमनामी में भी रहे
उस दौरान
द्रौपदी के साथ हादसा भी गुजरा
किसी ने साथ नहीं दिया
कोई काम नहीं आया
वे सर्ववंचित, सर्वहारा रहे
बीहड़ों में कल-कल बहती नदी की तरह
अविकल रहे
तपते रहे
चलते रहे
शक्तियां जुटाते रहे
आग का गोला
खुद को बनाते रहे
सत्यगर्भ रहे
देखने में पैरों से दले हुए दर्भ रहे
अतः युद्ध मैदान में वे ही रहे
वे ही फटे
वे ही जीते
आपके बेटे इसके उलट रहे
कहलाने को बड़े भारी भट रहे
मगर पेट में झूठ लिए
फूट लिए,
लहू पिए वे रहे
मारे गए
नहीं रहे
सुनकर धृतराष्ट्र रोए नहीं
गुस्सा हो उठे
भीम बहुत खटका उन्हें
भांपकर संजय ने टोका
महाराज, स्वस्थ हों
वानप्रस्थ हों
तुम्ही बताओ
डावांडोल परिस्थिति में
मैं भी झूमा हूं खूब !
भीतर-बाहर के बीहड़ में
साहसपूर्वक
मैं भी घूमा हूं खूब !
खूब अँधेरे झांके हैं
गर्क किए हैं हँसते-हँसते
नये सवेरे खूब !
नये सवेरे और बचे हैं
खगकुल के गुंजार अभी तो
और बचे हैं,
पुष्प-प्रलोभों के प्राकृत
व्यभिचार अभी तो
और बचे हैं,
और बचे हैं रस-शिखरों पर होनेवाले
सुख के निर्गुण स्वैराचार,
सोच रहा हूं
ये भी क्या हवि होंगे
होंगे तो, देवता कौन होगा ?
बात कठिन है
मुद्दा भी पेचीदा है
समय क्षीण है,
निश्चय करना लाजिम है
उन अनदेखे आगामी दिनमानों का
किन चरणों पर
श्रेय-सुरति से
अर्पण होगा,
किस समिधा से उठी लपट की तप-जीह्वा का
उनसे तर्पण होगा,
किस मोहन-माधुर्य भरे चेहरे के
सुन्दर चौखट पर खिलती आंखों के
दीयों की साक्षी में
उनका स्थापन होगा,
रति-शेष नवेले नयनों में
उतरी ताजी उपमाओं के नैवेद्यों का
किन नदियों के भींजे उन्नत
वक्षों पर
अंन्तिम खुला विसर्जन होगा ?
मैने तो अनगिन सालों को रद्द किया है
पैर टिकाने एवज में,
होश ठिकाने लाने में ही
होश दिया है खो सड़कों पर,
घासों ने रखवाली की है
सन्नाटों ने पहरेदारी,
जितने जग में बने हाशिए
सबने खातिरदारी की है,
उठा-पठा तकदीर आप ही
आई है घरखाने,
रूप-क्षितिज के जोड़ों पर
अधरों से रक्तिम
आंखों से बांके हो
उर्मिल गालों उभरे सैनों-संकेतो से जो
बात उभर कर आती थी
उनमें फँसकर
उनकी छवियों के पैताने
आतुर बैठे मुंहजोही में
मैंने काटे हैं जग के दूभर दिन,
वे बांचे कागज-से बिखरे
पके हुए
पहले के लोहित किसलय-दिन,
तुम्ही बताओ,
किस खाते के किस प्रस्तर में
उन्हें चढ़ा दूं ?
डावांडोल परिस्थिति अब भी है
जब कुन्द हुए जाते साथी
रति से चुकते
बंझा बनते
दुनिया ढोते जाते साथी,
उर्वर उर से प्रेमिल होकर
जिनको तय था मिलना बाकी
वे जन ही दबती छाती से
पीछे से निकले जाते हैं,
जलती बाती के नीचे से
ओझल-से होते जाते हैं,
स्वार्थों की अंधी गलियों में –
विवरों में घुसते जाते हैं
चिट्ठी छोड़े
दशकों पीछे की मटियायी
अर्थों-जर्जर
वर्णों-बीती !
तब तुम्ही बताओ,
मुश्किल से जब वे ही चित्र-कढ़ाई वाले
ओढ़े हुए दुपट्टों के भागे जाते अन्तिम टोके
दृष्टि-शेष कुसुमांजलि हैं
और वही संचित थाती तो
अर्पित किसे करूं ?
कौन देवता है ?
घाट आ रहा है आगे
डोंगा से उतरूंगा तो
जाऊंगा किस गांव ?
तुम्ही बताओ लिखे हुए गाढ़े चमकीले
वर्णों में
रस-ललित मैल-आलेखों से
छपे हुए मस्तक को
कहां धरूंगा ?
परिदृश्य
उनके रोष-विरोध के निरोध के लिए
जिसमें सदियों के उत्पीड़न का दर्द
इकट्ठा था
और छलक-छलक पड़ता था
और उसमें रोज इजाफा भी होता था
चार चतुर लोग दर्द-दाताओं की तरफ से
उनसे अनुरोध करने
जब मंच पर आते थे
विनम्र और मधुरवचन होकर
पानी पानी भाषा होकर
कथित कथन होकर
तब रोष-विरोध के गर्जन का स्वर
सास के द्वारा सताई हुई बहू की चीख की तरह
इतना प्रचण्ड हो जाता था
कि अनुरोध करने गए लोगों की
घिग्घी बॅंध जाती थी
जैसे यह समझौता हो
तब दोनों तरफ के लोग
अपने-अपने पुरखों के
के पाए हुए दुख और ढाए हुए जुल्म को
याद करते हुए
गाढ़े में फंसे की तरह
उन्हें ही पुकारते हुए
बिल्कुल बिलखते हुए ही जैसे
अपने अपने टोलों में लौट जाते थे
इस रीति से चलने में
कोई घाटा भी नहीं था
कुछ कविताएं
जमाने के हाथ लग जाती थीं
सामाजिक तरक्की को पीछे धकेल
साहित्यिक तरक्की
आगे निकल जाती थी
रोष-विरोध
अपने हाथ से अपने मुंह पर
जूता खाए की तरह
रसिकों द्वारा
जब सराहा जाता था
सिर के सिरे रख
तब अनुरोध
पैताने लतियाया जाकर
खुश होता था
इस लेनदेन के होते भी
मार खाते जाने की परम्परा के उजहने की
दवा क्या है
कोई सुश्रुत कोई धन्वंतरि कोई पतंजलि
आज के वक्त में भी
बता नहीं पाता था
युग डग भरता जाता था
चीत्कार की चाप के स्वर से
भरा हुआ,
फंसे हुए शिकारी जानवर के चेहरे में
बदला हुआ
डरा हुआ
फूल
थोड़े से फूल खिले हैं एक किनारे
लाल पीले सफेद
वसन्त का मौसम है
जगह कम है
अपने तईं वे हर रहे हैं
कुछ दूर बैठे जन की
आंखों में जमा खेद
कैसे, क्या पता
यह अच्छा है कि वे उसे उभारकर
तिल का ताड़ नहीं कर रहे
हृदय जो दुख से धनी होकर
अभी एक है
उसे दो फाड़ नहीं कर रहे
भाषण नहीं दे रहे
उकसा नहीं रहे
कातर मर्म को कामी की तरह
चाट नहीं रहे
लोभी की तरह लाड़ नहीं कर रहे
वे आंखों में उतरे दुख का
निदान तो कर रहे
कारण नहीं कह रहे
कारण श्रृंखला में लपेटकर
युद्ध की दुहाई नहीं दे रहे
इतना तो साफ है
वे भरोसा दे रहे
तबाही नहीं दे रहे
विचारों की पलटन बनने
खब्ती तर्कों के सिपाही नहीं दे रहे
मुकदमा जो चल रहा है
सदियों से
उसमें वे किसी पक्ष से
गवाही नहीं दे रहे
वे विमल शांत शीतल
रंग-प्रकाश बिखेर
बस खिल रहे
छोर तक
हॅंस नहीं रहे
वापसी
इस उत्कट विरोध भरे पट पर
अपनी प्रतिरोध भरी चुप्पी का
गुस्सेवर चीखता चित्र
बचे हुए वंचित कोने में
जो रोज खुलता जाता है
रखता हूं
मतलबी द्वन्द्वों के हलचल से
पटे हुए जीवन के बढ़ते हुए कदमों को
गुजरने देते हुए भी
उससे रतिबन्ध तोड़
पीछे फिरता हूं
जानता हूं कि
कि पीछे फिरने को
लोग अच्छा नहीं कहते,
लोग बहादुर बनने
पैदा हुई मृत्यु में प्रवेश करने
आगे बढ़ते हैं
झोंका की तरह
जैसे कोई धक्का दिए जाता है
बढ़ते चले जाने की
आदत पुरानी है
और बेशक नयी है, जवान है
और खूब इकट्ठा है
पुरजोर वेग से भरी हुई
और घोर
उसे अस्वीकार कर
पीछे लौटता हूं
संग्राम करता हूं
युद्ध के नियम से
चुपचाप,
तलवार के बजाय
चुप्पी के शस्त्र से
काटता हूं शत्रु
कि पीछे लौट जाने के अलावा
कोई चारा नहीं
बॅंटवारे का हाथ छोड़े बगैर
सत्य सारा नहीं…