कविता के सपाट, अभिधात्मक, विचारात्मक गद्यवत् हो जाने के कारण उसके अर्थग्रहण में कोई बाधा, कोई कुहासा, कोई झिलमिलाता चिलमन आड़े आने से बाज आ गया। लय या छन्द से जो एक सम्मोहनकारी प्रभाव पैदा होता है वह भी नहीं रहा। तब कविता की गहराई में उतरकर और उसकी व्यंजना की व्यापकता में जाकर उसका व्याख्यान करने की जरूरत भी नहीं रही। किसी रोजमर्रा की सीधी सादी बात की तरह कविता भी हो गई जिसका छूटते ही मतलब निकला और बात खत्म हो गई। आई-गई हो गई। आज की काफी समय से चली आती कविताएं ऐसी ही हैं जिनके अर्थग्रहण, रसग्रहण के लिए, ध्वनि और व्यंजना की प्रतीति में मदद के लिए न शिक्षक की जरूरत रही न आलोचक की। कविता पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाए इसकी भी कायदे से देखिए तो जरूरत नहीं रही। जब कविता में कोई मार्मिक गोपन वस्तु ही नहीं रही तो खोजा किसे जाए। अर्थजल की गहराई लिए कविता सरोवर का कोई दायरा ही नहीं रहा तो डूबा किसमें जाए। आज कविता उसकी परम्परा के विकास के लिए नये जमाने के दायित्व बोध से लैस होकर नहीं की जाती बल्कि कविता मात्र को समाप्त करने के लिए की जाती है। कविता के अंगों-अवयवों का, उसके मूल का इस तरह उच्छेद किया जाता है मानो कहा जा रहा हो कि न रहेगा बांस न बाजेगी बांसुरी।
तो आज न कविता रही न कवि रहे। फिर भी कवि कहलाने वाले लोग दिखाई पड़ते हैं, कविता की पुरानी भौतिक शक्ल की नकल करते गद्यखण्ड दिखाई पड़ते हैं, उनके पीछे-पीछे चलते हुए कठोर हृदय आलोचक समीक्षक और टीकाकार भी दिखाई पड़ते हैं। आज साहित्य की प्रधान विधा कविता मरणासन्न पड़ी हुई है फिर भी विस्मय की वस्तु यह है कि निष्चेष्ट होकर न होती हुई भी वह दिन दूनी रात चौगुनी हो रही है। इतनी हो रही है कि उसे पढ़ने, सॅंभालने के लिए आदमियों की कमी पड़ रही है। साहित्य-प्रेम के अन्तर्गत कविता से रस खींचनेवाले, उसके लिए जीवन समर्पित कर देनेवाले, उसके अर्थग्रहण में जीवन खपा देनेवाले, दूर से दूर तक की कौड़ी लाने में कभी म्लान न पड़ने वाले लोगों की नस्ल के उजहते जाने के इस दौर में आश्चर्य है कि उनकी जगह लेनेवाले अरसिक, कर्कश राजनीतिक चेतना संवेगों से भरे, दुराग्रही और मताग्रही लोगों की संख्या में इजाफा भी होता जा रहा है। कविता तो नहीं रही लेकिन उसका प्रेत गद्य के जामे में डराता हुआ आज भी फिरता दिखाई पड़ता है। सुकुमार चित्त के लोग उसे देख कर डर जाएं तो समझिए प्रेत कसौटी पर खरा उतरा। कविता-प्रेत की रचना करने और उससे लोक की सुलझी हुई सौन्दर्य वृत्ति को डराने के लिए पिछले दशकों में बेसिर-पैर की और अर्थ की दृष्टि से कबन्धनुमा कविताएं हुईं हैं जिनकी कुरुचि सम्पन्न सम्पादकों और विकल-औचित्य आलोचकों ने मानवीय स्वभाव को धता बताते हुए आतुरता पूर्वक अगवानी की है।
कुछ समय से डरावनी कविताओं की मुहिम बन्द सी हो गई है। और उन कविताओं के कवि सीधे सादे आदमी की शक्ल में काफी भले और सभ्य ढंग के हो गए हैं। यह परिवर्तन उनके कविता से हाथ खींच लेने के कारण सम्भव हुआ जान पड़ता है। जिन वर्गों और समाजों के विरुद्ध किसी निहित इरादे से उन्होंने कविता के मुंह को पत्थर पर रगड़ कर विरूप बनाया था, उन्हीं के द्वारा अब वे अभिनन्दित होते हैं। काल के प्रभाव से कैसे कैसे गुल खिलते हैं ये कल के डरावने कवि उसके नमूने हैं। डरावनी कविताओं के जहर का लहर थम जाने के बाद अब जो कविताएं हो रही हैं वे निर्जीव प्रकृति की हैं। उनमें न भाव संवेग का जोर है न आवेगात्मक वजन है। वे काफी थोथी, वर्णनात्मक और व्याख्यात्मक हो गईं हैं। वे कविता कहलाना चाहती हुईं भी सिरे से कविता न होने के लिए पूरा जोर भी लगा बैठीं हैं। सम्पादकों की मति इतनी मारी गई है कि पत्रिकाओं में ऐसी ही कविताएं छापकर लोक को कविता से विमुख-विरक्त करते जाते हैं। उन्हें साहित्य की जरा भी परवाह नहीं रह गई है। कि वे मूलतः साहित्यिक ही नहीं हैं। कि वे साहित्य की दृष्टि से इन्द्रियों से मूक-बधिर-अंध हैं। कविता क्या है, उन्हें इसकी रत्ती भर भी धारणा नहीं है। भावना नहीं है, कल्पना नहीं है। इस मामले में वे पूरी तरह अशिक्षित हैं। अन्यथा इतनी दुर्बल ही नहीं गई-गुजरी के दर्जे से भी गिरी कविताएं इतने विपुल परिमाण में वे छापते क्यों। छापकर पाठकों को हताश क्यों करते। साहित्य-सम्पादक होकर साहित्य के विरुद्ध क्यों जाते।
शब्द-शक्तियों का समुचित प्रयोग न करने से कविता की अभिव्यंजना जहां कुंठित हुई है वहीं वक्रता के अभाव से भोंथरी भी हुई है। कल्पनात्मक धारणा के क्षीण होने से उक्ति की चित्रात्मकता, बिम्बात्मकता और प्रतीकात्मकता की ओर भी ध्यान कम ही जाता है। शब्द शक्तियों के विपुल प्रयोग और चित्र-सर्जक भाषा के नियोजन से ही छायावादी कविता हिन्दी खड़ी बोली कविता को इतना आगे बढ़ा ले गयी। जबकि उर्दू खड़ी बोली कविता काफी पहले से ही अभिव्यंजना-कौशल में आगे बढ़ी हुई थी। द्विवेदी युग के कवि भाषा शक्ति के प्रयोग के मामले में पिछड़े रहे। जिसके कारण बड़े सशक्त ढंग से छायावादी प्रतिक्रिया हुई। और हिन्दी खड़ी बोली कविता का बाग-वन अभिव्यंजना के मामले में पूरा खिल उठा। उसके समानांतर चलती धाराओं की कविता भी कुछ अलग ढंग से श्री-सम्पन्न हुई तो छायावादी प्रभाव के कारण ही। नयी कविता के काल तक कविता में अभिव्यंजना की चमक किसी न किसी रूप में दिखाई पड़ती रही। दो-चार कवि उसके उपरांत भी अभिव्यक्ति कौशल में, शब्द शक्तियों के उचित प्रयोग में, काव्यभाषा को युगानुरूप यथाशक्ति समृद्ध करने के उद्योग में अपनी प्रतिभा के हाथ की सफाई दिखाते रहे। लेकिन हिन्दी कविता की ऊंची उठी हुई तरंग अधोमुख होकर पतनशील तो हो ही चुकी थी। तब कविता की ठहर गई सी उर्मि-विहीन धारा में औसत दर्जें के और उससे भी नीचे के छंदच्युत, लयच्युत, गतिच्युत, अर्थ-गौरवच्युत तथा विशिष्ट शैली से गलित कवियों ने खांटी गद्य में निर्वस्त्र होकर खुलकर हाथ धोए।
अब कोई यह चर्चा करनेवाला हिन्दी में बचा नहीं कि शैली या प्रकार की दृष्टि से कोई कविता किस रीति की है। वैदर्भी, गौंडी, पांचाली आदि काव्य रीतियों में से किसकी ओर झुकी है। काव्य से गुणों की परख जब अनावश्यक ठहरा दी गई तब माधुर्य, ओज, प्रसाद आदि गुणों का मूल्य दो कौड़ी का हो गया। कवि को इससे मतलब ही नहीं रहा। आलोचक यह देखने तक अपने विचार के पैरों में बेड़ी डाले रहा कि समसामयिक राजनीति की छाप कविता में उभरी है कि नहीं, किसी चालू दार्शनिक दृष्टि के अनुरूप कवि कविता में कथ्य का मुंह फेरे हुए है कि नहीं। इस सीमा तक अपने को कीलित कर समकालीन कवि-आलोचकों ने भावाभिव्यंजना के घटे हुए उथले पानी में छपक-छपक कर खूब ही खग-स्नान किया। अपने ही से अपनी पीठ ठोंकी। परस्पर की स्तुति से धन्य और कृतार्थ हुए। हिन्दी कविता को गद्य की मिट्टी में मिलाकर इतना रौंदा कि मिट्टी ही रह गई कविता कूच कर गयी। कि उसके होश पैंतरे हो गये। लोक में किसी ने विशिष्ट शैली-विहीन गद्य कविता को दिल से अपनाया नहीं फिर भी वह अजीबोगरीब पद्धति से फली फूली। कवि-आलोचक भी फले फूले। समय की अनिवार्य चोट समझकर सामान्य पाठकों ने, कविताविदों ने, पुराने रसिकों ने, शिक्षकों ने, छात्रों ने अपनी चेतना की पीठ पर पाद-प्रहार की तरह उसे झेला और झेलते चले जा रहे हैं। कविता संग्रह और कूड़ा संग्रह का फर्क मिट गया। कविता के प्रबन्धात्मक प्रारूपों का तो लोप ही हो गया। यदि कोई इसमें हाथ लगाता भी है तो उसके मसक्कत की हॅंसी उड़े बिना नहीं रहती। छोटी-लम्बी गद्यनिबंधात्मक कविताओं के इस दौर में कवियों ने बढ़चढ़ कर यदि एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है तो वह है कविता से कवितापन दूर कर देने का। यह वैसे ही जैसे स्त्री से स्त्रीपन, पुरुष से पुरुषपन, कुलमिलाकर मनुष्य से मनुष्यपन दूर कर दिया जाए। पर बात यहीं तक नहीं है, इस कुकृत्य पर इतराया भी गया। दु:साहस यह है।
जब रक्त पिपासु, हिंसा प्रतिहिंसा पर आधारित काठवत् कड़ी विचारधारा ने मानवता के सामंजस्यकारी और सूक्ष्म नमनीय विवेक के वेग में भारी हस्तक्षेप किया तब काव्य साहित्य जगत् में बहनेवाली स्वछंद भाव या अनुभूति की धारा उससे प्रभावित हुए बिना, उसके ढंग में ढले बिना न रह गई। उस विचार के ठोकर से ही मुंह के बल गिरी कविता अचानक विचारात्मक गद्य की मुद्रा में लोक के सामने आ खड़ी हुई और बिना लोकमान्यता के ही बलात् दरेरा देकर काफी जगह घेरकर फैल गई। उसे लोकमत की कभी परवाह नहीं हुई। वह अधिनायकवादी होने के कारण अपने औचित्य के लिए चालू धार्मिक प्रवृत्तियों की तरह अपने प्रवर्तकों की किताबों पर ही निर्भर थी। उसे व्यापक सृष्टि प्रसार से कुछ लेना देना न था। उसके जाल में जब हिंदी के काफी कवि फॅंस गये तब हिन्दी कविता अपनी प्रकृति के प्रतिकूल कथ्य और रूप के रेगिस्तान में विरासत में पाई रस सम्पदा से भरपूर होते हुए भी खो गयी, सूख गयी। सूखी नदी जैसी हो गई कविता में अब कवियों का योगदान जल जैसा न होकर रेत जैसा होता है। और निराला के गीत की इन पंक्तियों को चरितार्थ करता है –
स्नेह निर्झर बह गया है।
रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है – अब यहां पिक या शिखी
नहीं आते, पंक्ति वह मैं हूं लिखी
नहीं जिसका अर्थ –
जीवन दह गया है।
इन पंक्तियों में और इस पूरे गीत में निराला की जो आत्मव्यथा व्यंजित हुई है वही व्यथा, वही निराशात्मक अनुभूति आज की हिन्दी कविता की भी है। यदि कोई उससे पूछे तो उसका बयान ऐसा ही वेदना-तरल होगा। हिन्दी कविता की मनोदशा जहां इतनी विषण्ण है वहां उसके कवियों ने खेप के खेप गद्यकर्कश कविताएं उसके आवास में, अहाते में ठेलते हुए उसके खड़े होने भर भी जगह नहीं छोड़ी है। कविता परेशान है। व्याकुल है। मृत्यून्मुख है। और मानों बहादुर शाह जफर की तरह कह रही है –
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में।
और
दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में।