नीरज नीर की कविताओं में झारखण्ड के पहाड़ों का अरण्य रोदन साफ सुना जा सकता है। वहाँ के जीवन – स्तर, सांस्कृतिक चेतना, प्रेम की संगीत – लिपियाँ और आदिम जीवन राग की अनुगूँज नीरज के काव्य – संसार में संलक्ष्य है। झारखंड के माध्यम से सम्पूर्ण देश की संगति और विसंगति को स्वर देने का दायित्व निभाते हुए सत्ता के प्रलोभन और विकास के षड्यंत्र का अनावरण उन्हें एक जिम्मेदार कवि के रूप में प्रतिष्ठित करता है। जिसे हम जंगल कहते हैं उसे मनुष्य द्वारा निर्मित जंगल ने अपदस्थ कर दिया है। वन प्रान्तर में ठिठोली करते हुए पीपल, पाकड़, पलाश, सखुआ, महुआ और खैर के वृक्षों के बीच बांसुरी और मांदर के संगीत की सहजीविता को एक सत्यानाशी सड़क की नजर लग गई —–
फिर वहाँ आई एक सड़क
और जंगल धीरे धीरे गायब हो गया,
जैसे शहर से गायब हो गई गौरैया।
अब वहाँ उग आये हैं
पेड़ों से भी गहरी जड़ें जमाए
कारखाने, कोयले के खदान और बड़े बड़े भवन।
प्रश्न यह उठता है कि चमकीले रैपर में सजा कर राजा ने जो सपने परोसे थे, क्या उससे वहाँ के मूल निवासियों का जीवन आलोकित हुआ? वे तो अभी भी बांस के पुल पर चलने और इलाज के अभाव में मर जाने को अभिशप्त हैं। विकास का जुआ उन्हीं के कांधे पर धरा है जिसे वे सलीब की तरह ढो रहे हैं। उन्हीं की कमठ – पीठ पर रखा है रोशनी का दीया। उन्हीं के लोहे और कोयले से विकास का ढांचा रौशन होता है लेकिन वे विकास के शामियाने से बाहर खड़े हैं, गोया वे अपने देश के नागरिक न हों। बरगद की जड़ें उनके भीतर गहरे तक गई हैं। धानरोपनी के गीत उनके भीतर हरियाली और चमक भर देती हैं। बराबर आने वाली बाढ़ उनके हौसले और जिजीविषा की परीक्षा लेती रहती है किन्तु यह विस्थापन की पीड़ा और कोयले के खदानों के यातना – दंश दुर्निवार हैं। महंगाई की मार से सल्फास खाकर खटिया की पटिया से लटका मुंह से झाग निकालता किसान कविता के मुक्ति लोक में जगह पाता है। आज कल टर्मिनालाजी में एक नया शब्द आया है ‘गैंगरेप’। पाषाण हुई अनुभूतियों के बीच वृद्ध वृक्षों की पत्तियों पर संस्कृति के शोकगीत लिखता हुआ कवि कहता है कि हर विलुप्त सभ्यता के द्वार पर
तुम्हें पड़ी मिलेगी
स्त्री की एक जली हुई लाश।
लहजा भले ही अतिरंजित है किन्तु मानवता की मृत्यु का सूचक संदर्भ है यह। त्रेता में एक आमिष भोगी गीध सीता को बचाने के लिए विश्व विजेता रावण से जूझ जाता है किन्तु आज लोग अधिक से अधिक वीडियो बनाने में संलग्न हो जाते हैं। और मीडिया के लिए तो हर शहादत एक ऊष्म सनसनीखेज मसाला भर है जिसे वह बाजार में महंगे मूल्य पर बेंच सकता है। भेंड़ के भेड़िया बनकर अपनी ही जाति का शिकार करने और किसी सत्ताधीश के लिए भेड़ों को ध्रुवीकृत करने के दृष्टान्त से पृथक प्रेम की पृथ्वी का आविष्कार अधिक वांछनीय है ——-
समय की नदी में
जो धोए थे तुमने पांव,
कायम है उसकी रंगीन खुशबू
हवाओं के चित्र पट पर।
आंखों की अलगनी पर
टांगे थे जो सवाल,
कब से सूख रहे हैं
दुखों की धूप में।
खिड़की पर चिपकी
एक जोड़ी निगाह
देखती है राह,
दुखों के उत्तरायण होने की।
जिंदगी दुखों का एक सुखद संकलन है। प्रेम उठता रहा है ऊपर गरम हवा की तरह गुरुत्वाकर्षण के नियम के विपरीत। मन के नील निलय में प्रेम बादलों के फाहे से तरह – तरह की आकृतियाँ बनाता रहता है। मटमैली नदी दर्पण होना नहीं चाहती। सूरज के रथ में घोड़े नहीं, स्त्रियाँ जुती हुई हैं और स्त्री की अनुपस्थिति में सूर्य अपनी चमक और गति खो देगा। पर्वत पृथ्वी के उरोज हैं और उनके अभाव में धरती बूढ़ी हो जाएगी। इस लिए मनुष्य के सर्वसंहारी आत्म विस्तार के वर्चस्वी स्वभाव को टोकती ये कविताएँ बहुत आश्वस्त करती हैं और पर्यावरण – विनाश की कीमत पर अन्तहीन विकास से सावधान और अलार्म करती हैं। बहुत याद आते हैं अज्ञेय —-
भूमि के कंपित उरोजों पर झुका सा,
विशद, श्वासाहत, चिरातुर।
‘सावन मेघ’ शीर्षक कविता का यह बिम्ब विलुप्त हो जाएगा। जब बादलों को आमंत्रित करने वाले जंगल तिरोहित हो जाएंगे। ये जंगल हमारे भीतर फैलते जा रहे हैं। नीरज नीर के काव्य – शिल्प में मटमैली नदी का प्रसन्न प्रवाह लक्षित होता है। उनके काव्यार्थ की सान्द्रता और निथरे रूप में सामने आए, ऐसी मंगलाशा है।
अजित कुमार राय, कन्नौज