– रमाकांत नीलकंठ
पुरानी चीजें चमक खो देती हैं। चमक खोते ही चीजें अँधेरे के कब्जे में आ जाती हैं। चीजें चाहे जानेमाने जिन्दा व्यक्ति ही हों, अँधेरे की उफनती लहरों से पार नहीं पा पाते, गुम-से हो जाते हैं। अपने समय की फड़कती कलाकृतियां, रचनाएं तक पुरानी पड़ जाने के उस चोट से उबर नहीं पातीं जिसका मलहम नहीं मिलता। पुरानापन जितना बढ़ता जाता है अलक्षित बनानेवाली धूल की चादर उतनी मोटी होती जाती है। मर्म को बेधता कसाला बढ़ता जाता है। गहराते अँधेरे में रियायतों की, मुरव्वतों की, दया की, झाड़ू मारने की तरह की सहानुभूतियों की स्नेहिल लौ कभी-कभी टिमटिमाती झलक जरूर मार जाती है। किन्तु पुराने पड़ते जाने की घनी होती जाती अँधेरी रात का कोई तोड़ नही होता। चमकते ताजे रूप पर पड़ती चमकती आंखों का नजारा फिर दुबारा नहीं दिखता। दृश्य और दर्शक का, व्यंजना और ग्राहक का सरसता के मादन शिखर से गुजरता नाता तो टूट ही जाता है। कोई कितना भी कुशल जोड़नेवाला आये, गांठ पड़ जाने के घाटे की चिन्ता भी न हो, बिखर कर लुप्त हो गयी चमक की माला फिर नहीं जुड़ती।
चमक वह अभिव्यक्ति है जो हमेशा नये के घर बैठती है। अकस्मात उभर आए या प्रकट हुए किसी होनहार नये के घर व उसके वैभव भरे ठाट का पता और वह परिचय जो कहा न जा सके, चमक ही बताती है। चमक की भाषा से अधिक सम्प्रेषणीय दूसरी भाषा नहीं। बिना किसी भाषण या कोई नेकी का काम किए कायल कर देने की क्षमता यदि किसी दुनियावी वस्तु में है तो वह चमक में है जो किसी नये के सार-सौष्ठव से गँठे हुए कदकाठ से फूटती है। नये यौवन से फूटती दैहिक चमक की विश्वविजयिनी शक्ति का लोहा मानने की जहां तक बात है उसमें त़ो कोई संशय नहीं, किन्तु नयी प्रतिभा की नयी चमक के आगे तो उसकी सत्ता स्तर-भेद की गुरुता की दृष्टि से फीकी ही ठहरती है।
प्रतिभा की खिलावट से जो चमक उठती है, उसमें संकल्प, श्रम, विचारदृष्टि और अभूतपूर्व सृष्टि की शक्ति का संयोग गुण की तरह जुड़ा रहता है। मौलिकता और नवीनता के पुट से प्रतिभा जो चकित या शमित कर देनेवाली रचना सामने लाती है वह सुबह की तरह ही लोकप्रिय होती है उसकी चमक में ज्यादा से ज्यादा लोग जाग जाते हैं। लुब्ध हो जाते हैं। ठीक उसी समय कोई प्रतिभा खिली या अधखिली या कुंठित ही रह गयी – कृतकार्य हुई या न हुई – अस्त हो रही होती है। नेपथ्य में जा रही होती है। हर्ष-शोक से भरा यह तमाशा उठती और गिरती लहर की तरह संसार के पट पर होता रहता है। निरन्तर बने रहने की हैसियत केवल चमक की होती है जो किसी मँजी हुई जारिणी की तरह नये का कदम चूमती है। उसके घर जाकर बैठ जाती है।
दुनिया में होता हुआ सब कुछ नया नहीं होता। ज्यादातर दुहराव होता है जिसे पुराने का ठहराव ही समझना चाहिए। लीक चलना भी लोक का स्थायित्व के तकाजे से बना स्वभाव होता है, आदत होती है जो छूटती नहीं। अचानक ही चमक के साथ जब कोई नयी अभिव्यक्ति होती है तो वह भी मानसिक अंधों को सूझती नहीं। पुरानापन जब अपने टिकाऊपन के हद से गुजरता है तब समय और परिवेश के दहकते गर्भ से कोई चमकदार नया प्रस्फुटन होता है जो सहसा अनुभवविदग्ध लोगों का, समझदार लोगों का ध्यान खींच लेता है। जो धीरे धीरे लोक के रसग्रहण का विषय भी बन जाता है। काल हमेशा नये पटरे से नयी कुलांच भरता है। हर भरी गयी कुलांच नया युग, नयी धारा रचती है। वास्तविक इतिहास समय-समय पर भरे गए नये कुलांचों का संग्रह है। जो एक साथ ही अँधेरा और यादगार रोशनी है।
किन्तु काल जीता वर्तमान में है। जीवित चमक वर्तमानजीवी होती है। उसकी क्षणजीविता की उम्र चाहे जितनी लम्बी हो। वह परकीय नये के प्रेम में फँस जाने वाली चंचल स्वैरिणी है। एकनिष्ठ होना उसके मिजाज में नहीं। वह वादी नहीं होती। कट्टर नहीं होती। किन्तु अनासक्त निर्मम होती है। पराये के घर नये उत्साह के साथ बैठ जाने में उसे कोई आपत्ति नहीं। वर-चयन में वह चिक्कन प्रतिभारूप अन्तर्वैभव के साथ संघर्षशील दुर्दमनीयता के सामंजस्य को वरीयता देती है। वह साहसपूर्ण पुरुषार्थ के नये उन्मेषों की सहचरी है। चमक वह है जिसकी परिभाषा नहीं। व्याख्या नहीं। बस, बूझी जाती है। महसूस की जाती है। वह जब उठती है दुर्निवार होती है। बुजदिलों की भलाई आंख मूंद लेने में होती है। जिगर के मजबूत प्रेमियों की तमन्ना उसे आंखों के आंचल में भर लेने की होती है। चाह की चोटी पर पहुंचे लोग तो ऐसी चमक के आगोश में फना हो जाने की हसरत रखते हैं।
चमक लौकिक ही होती है किन्तु कभी-कभी किसी-किसी के करतबों-कारनामों से ऐसी लोक-विमोहन और लोकमांगलिक चमक छिटकती है कि उसका तेजप्रसार विस्मयकारी लगने लगकर अर्थवाद की दृष्टि से लोकोत्तर महत्त्व का हो जाता है। ऐसी चमक की विशेषता यह होती है कि वह अपने वर्तमान का मुहताज नहीं रह जाती। वह गुजरते समय के साथ नयी आंखों का माध्यम पाकर और चटक होती जाती है। समय उसपर अँधेरे का शामियाना नहीं तान पाता। इस कोटि की कुछ विरल चमकों के पीछे पागल-सी हुई दुनिया बँटी-बँटी-सी दीखती है। उन चमकों की सुदूर भविष्य तक जाती रश्मियों की विरासतें ढोता उसका अनुयायी वर्तमान समाज स्वयं दकियानूस, कट्टर, मतान्ध वगैरह तो हो सकता है, चमक बेदाग रहती है। वह चमक भी क्या जिसमें दाग हो। दाग हो भी तो चमक पर कुर्बान वह नजर क्या जिसे वह दिखाई दे।
चमक के बारे में यह भी समझना चाहिए कि वह हमेशा जन्म से या वर्तमान का पल्ला पकड़े ही फूट नहीं पड़ती। कयी बार उसपर दुर्योग, दुर्भाग्य की मिट्टी की गन्दगी की इतनी कलई चढ़ी होती है, तोपकर तिरोहित कर देनेवाला तकलीफों का इतना अभेद्य मुलम्मा चढ़ा होता है कि चमक के उभरने में देर लगती है। बड़ा मांजना और घिसना पड़ता है। इतना कि मँजाई का साधन चमक उठता है, बर्तन नहीं। ऐसी अन्तर्निहित चमकों का वर्तमान बिना चमके ही निपट जाता है। चमक भविष्य पर बकाया रह जाती है। अतीत होकर भी ऐसी चमक सुयोग, सौभाग्य, समधर्मा के उपस्थित होने पर भविष्य के किसी वर्तमान में जरूर चरितार्थ होती है। गुमशुदा चमक का भी कभी-कभी दिन फिर आता है। उसकी प्रासंगिकता का हो-हल्ला मच जाता है। लेकिन उन लुटीं चमकों को कौन जानता है और उनका ब्यौरा भी कहां है जो बिना चमके ही कालकवलित हो गईं। अपने पीछे सबूत का एक सूत भी नहीं छोड़ गईं।
यह भी समझना चाहिए कि चमक जितना उजाला करने का दम रखती है उतनी ही नाजुक भी होती है। एक हल्का-सा आक्षेप, एक टुकड़ा भर बादल, एक बित्ते का ओट भी उसपर भारी पड़ सकता है। बेगानी हुई कठोरहृदय दुनिया का सामना हो जाए तो उसकी मुद्रित आंखों के लिए चमक हुई होकर भी न हुई हो जाए। किन्तु कोई चमक जब तूल पकड़ लेती है, जन-जन के हृदयों में मुहब्बत का आसरा पा जाती है, बड़े दायरे में कद्र किए जाने के काबिल हो जाती है तो वह न चाहनेवाले अविश्वासी विरोधियों के सिर पर भी चढ़कर बोलती है। वह चमक ही है जो खण्डित होते हुए भी एक रोआं से बांका नहीं हो पाती और बहुधा मण्डित होते हुए भी किसी एक पर ज्यादा समय तक टिक नहीं पाती।
पुरानी चीजें चमक खो देतीं हैं यह सृष्टि का सत्य है। नयी चीजों पर चमक रूप के लावण्य की तरह, कर्म की कीर्ति की तरह, रचना की व्यंजना की तरह छा जाती है, यह सृष्टि का सौन्दर्य है।