पितृ दिवस पर लिखी गई मेरी एक रचना आपके और पिताजी के आशीवार्द की अपेक्षा से आपके सामने प्रस्तुत।
मेरे बाबूजी
आंखें टप-टप बहने लगी जब
बाबा के हाथ का एहसास
अपने सर पर याद आया…
याद आया वह भँवर का पतवार
याद आया वह समाधान हर चिंता का
याद आयी वह विदाई के दिन
मुझसे मुँह छिपाने की कला
और… वह सारी यादें….
जो सारे किवाड़ और खिड़कियााँ
बंद होने के बावजूद
आँधियो में चलाते थे हिम्मत से कश्तियाँ
उस खाट को देखते रहती मैं
जिस पर पहाड़ जैसा शरीर
थक हार कर सोता था
आज उस कुर्ते को खोजा जो
सोने से ज़्यादा चमक रहा था
पर… अब टँगा था खूँटी पर
अपनी जगह हमेशा की तरह
उस कुर्ते का सफ़र अब पूरा हो चुका
पर उसकी ख़ुशबू के सफ़र को कैसे रोकूँ
हाथ आयी आज वह बलवान छड़ी
जो लडखडाते बाबूजी को सीधे खड़े रहना सीखाती थी
जीवन की सच्चाई, सादगी, सरल लकीर की तरह
आज भी बहुत कुछ सीखा रही थी,
तस्वीर टंगी हैं फूलों में उनकी
जो मुस्कुराकर कह रही हो
लडो… अपने जीवन के संघर्ष से
क्योंकी जीवन जीने का नाम हैं
लड़ना और खड़े रहना ही जीवन हैं
आज इस तस्वीर के आगे खड़े होकर
अपनी परछाई खोजती रहती हूँ
कहीं अपने बाबा जैसे निर्दिष्ट, निश्चय, नि:संकोच,
नि:स्वार्थ जीवन के पाठ अपने बच्चो को पढ़ा सकूँ……
— सूर्यकान्त सुतार ‘सूर्या’