समीक्षक : डॉ हरेराम पाठक
मित्रो , हिंदी के सांस्कृतिक समाजेतिहासिक आलोचक श्रीभगवान सिंह की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘ साहित्य की भारतीय परंपरा ‘ लगभग सप्ताह दिन पहले सामायिक बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित होकर मुझे प्राप्त हुई। आज जबकि साहित्य एवं साहित्यालोचन विभिन्न प्रतिबद्ध शिविरों में आबद्ध नारेबाजी के दायरे में सिमटता जा रहा है , वहां विराट मानवीय एवं मानवेतर संदर्भों की पड़ताल में दत्तचित श्रीभगवान सिंह निरंतर भारतीय परंपरा को साहित्य की केंद्रीय भूमि में पुनर्स्थापित करने में कटिबद्ध दिखाई दे रहे हैं। साहित्यिक परंपरा की बात वही आलोचक एवं लेखक कर सकता है जिसके पास ऐतिहासिक अवबोध की गहन विवेचन – क्षमता एवं हृदय पक्ष की श्रेष्ठ संवेदनशीलता प्राप्त हो।
सामान्यतः ‘परंपरा ‘ का अर्थ रूढ़ हो चली उन रीति रिवाजों से लगाया जाता रहा है जो समाज की प्रगति में बाधक बन रहे हों, पर ध्यान रखना होगा कि यहां साहित्य की ‘ भारतीय परंपरा ‘ की बात हो रही है। साहित्य की भारतीय परंपरा इतिहास – बोध के साथ आधुनिकता – बोध की सदैव मार्गदर्शिका रही है। इतिहास -बोध के भावकत्व और परंपरा के सम्यक अवबोध के अभाव में आलोचना कर्म के साथ न्याय हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि श्रीभगवान सिंह घोर शिविरबद्ध प्रतिबद्धता के इस युग में हमें उन परंपराओं की याद दिलाते हैं जिनके अभाव में हमारी ज्ञान – संवेदनाएं मरती चली जा रही हैं। एक समय टी एस इलियट ने ठीक ऐसा ही महसूस किया था और मरती हुई साहित्यिक संवेदनाओं को पुनः जाग्रत करने के लिए उसने ‘परंपरा ‘ की भावी उपयोगिता पर अपने विचार प्रस्तुत किए। सन १९१९ में अपने लिखे लेख ‘Tradition and Individual Talent ‘ में आलोचकों का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया कि होमर से लेकर अबतक का यूरोपीय साहित्य लगातार एक नई ‘ साहित्यिक परंपरा ‘ का निर्माण करते रहे हैं। ये केवल हमें अतीत ज्ञान से ही समृद्ध नहीं करते बल्कि वर्तमान को भी सकारात्मक निर्माण में सहयोग करते हैं।
यह संयोग की बात है कि साहित्यिक परंपरा की बात करते हुए जहां श्रीभगवान सिंह सर्वप्रथम महर्षि वाल्मीकि का नाम लेते हैं हैं , वहीं टी एस इलियट होमर का नाम लेते हैं। दोनों अतीत में डुबकी लगाते हैं और अतीत से जो रस खींचकर वर्तमान पीढ़ी को जिस प्रकार उसका आस्वादन कराते हैं उससे दो शाश्वत सत्य विनिर्मित होते हैं – पहला , अतीत की गुणवत्ता का ज्ञान और ; दूसरा , वर्तमान परिस्थितियों के साथ उस गुणवत्ता का रूपांतरण।
श्री भगवान सिंह जी लिखते हैं – ” रामायण का आदि श्लोक पक्षी की पक्षधरता से शुरू होता है, तो महाभारत की कथा का अंत धर्मराज युधिष्ठिर के मनुष्येतर प्राणी श्वान के साथ स्वर्गारोहण के साथ होता है। मनुष्येतर प्राणियों के साथ पशु – पक्षी, पेड़ – पौधे, नदी- पहाड़, आदि के साथ भी मनुष्य के रागात्मक संबंधों का निर्वाह रामायण , महाभारतकी परवर्ती काव्य – कृतियों में होता रहा।” सोचने की बात है , आज हम मनुष्येतर प्राणियों के प्रति जिस प्रकार संवेदनहीन होते जा रहे हैं उस संवेदना को पुनः लौटाने के लिए क्या हमें हमारी साहित्यिक परंपरा की ओर मुखातिब होने की आवश्यकता नहीं है ? अवश्य है।
आलोचक हमारी संवेदनाओं को जगाता ही नहीं बल्कि उसे संपुष्ट कर अपने उदाहरणों द्वारा हमारे संस्कार में ढाल देता है। यह हमारी ही परंपरा का संस्कार है कि यहां राजा शिवि पैदा होते हैं जिन्होंने ‘कबूतर को बाज से बचाने के लिए कबूतर के वजन के बराबर अपने शरीर का मांस देना स्वीकार कर लिया।’ इस प्रकार हमारी साहित्यिक परंपरा मानवीय एवं मानवेतर करुणा भरी हुई है। उन सारे संदर्भों को प्रस्तुत करने का एक मात्र उद्देश्य यही है कि पश्चिम की तरफ बेतहाशा दौड़ते हुए हमारे लेखक अपनी ज़मीन से अपने को ओझल न करें।
लेखक हमारा ध्यान मार्क्सवादी वागछल की और आकृष्ट करता है जहां शोषित और शोषक के अतिरिक्त समाज की अन्य परिघटनाओं से कोई मतलब ही नहीं है। लेखक के शब्दों में – ” हमारे यहां के मार्क्सवाद में दीक्षित लेखक भी पूरी भारतीय परंपरा को अनदेखा करते हुए साहित्यिक कृतियों में केवल आर्थिक पक्ष की प्रधानता का निरूपण चाहने लगे।” परिणाम यह हुआ कि छायावाद के बाद का हमारा साहित्य कोरे नारेबाजी का इतना जबरदस्त शिकार हुआ कि और तो और पंत जी जैसा प्रकृति प्रेमी और करुणा का महा गायक मार्क्सवादी नारेबाजी का शिकार हो गया।
स्त्रीवाद , दलितवाद , आदिवासी , अवर्ण -सवर्ण आदि लेखकीय विमर्शों के लुभावने वाग्जाल की पगडंडियों पर चलते हुए हम इतने दूर तक भटक गए हैं कि वहां पहुंचकर हमारे इरादे कहीं पीछे छूट चुके हैं और हम किसी षड्यंत्रकारी के हाथों बिकने को मजबूर हो गए हैं। तुलसीदास ने ठीक ही कहा है –
हरित भूमि तृण संकुल समुझी परही नहि पंथ।
जिमि पाखंड विवाद ते लुप्त होहि सद ग्रंथ ।।
अर्थात जिस प्रकार दूब के फैलने से रास्ते ढंक जाते हैं , वे दिखाई नहीं देते उसी प्रकार विभिन्न वाद विवादों के चलते सद्ग्रंथ लुप्त होते जा रहे हैं।
आलोच्य पुस्तक में लेखक विभिन्न ज्वलंत मुद्दों को उठाया है जिस पर चिंतन मनन करना आज की महती आवश्यकता है। इन मुद्दों पर हमें मौन नहीं बल्कि मुखर होने की आवश्यकता है।
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