डॉ. श्रीभगवान सिंह
1. ‘‘भारत के बाहर डॉ. प्रसाद स्वभावतः ही भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति के रूप में अपनी दीर्ध सेवा के लिए ही सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। उन्होंने इस पद को महान गौरव और वैषिष्ट्य से मंडित करने के उपरान्त 1962 में अवकाष ग्रहण किया। भारत की भांति अन्यत्र यह बात सर्वदा नहीं जानी जाती कि डॉ. प्रसाद के गुणों ने सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में ही नहीं, अपितु कानून, साहित्य और शिक्षा के क्षेत्रों में भी अभिव्यक्ति पाई थी। इनमें से प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने असाधारण उपलब्धि के कीर्तिमान स्थापित किये हैं।’’ – ‘अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी के उद्गार।’1
2. ‘‘जिन दिनों राजेन्द्र बाबू राष्ट्रपति थे, उन दिनों मैं लगभग दस वर्षों तक उप-राष्ट्रपति था। सप्ताह में कम-से-कम एक बार अवश्य मेरी भेंट होती थी। साधारणतः हम कुछ क्षणों तक राजनीति की चर्चा करने के उपरान्त धर्म, दर्शन और साहित्य की ओर मुड़ जाते थे। यह वार्तालाप हमें विशेष आनंद देता था क्योंकि वह हमें कुछ क्षण के लिए राजनीति के कोलाहल से ऊपर उठा देता था।’’ भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के उद्गार।2
यह तो सर्वविदित है कि देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उच्चकोटि के विधिवेता, अग्रिम पंक्ति के स्वंतत्रता-सेनानी, राजनेता, संविधान-सभा के अध्यक्ष, भारतवर्ष के प्रथम राष्ट्रपति और इससे भी बढ़कर देश-समाज के आजीवन समर्पित सेवक रहें, किन्तु यह बहुत कम ज्ञात है कि वे सामान्य अर्थ में – यानी कविता, कहानी, उपन्यास लिखने के लिहाज से – एक साहित्यकार न होते हुए भी श्रेष्ठ साहित्य-मर्मज्ञ तथा साहित्यानुरागी भी थे। आरम्भ में ही जिन दो विश्वप्रसिद्ध शख्सियतों के मंतव्य उद्धृत किये गये हैैं वे ही पर्याप्त प्रमाण हैं राजेन्द्र बाबू के साहित्यानुरागी होने के। उनके द्वारा समय-समय पर किये गये साहित्य-विमर्श की चर्चा करना ही इस आलेख का मुख्य प्रयोजन है।
राजेन्द्र बाबू यद्यपि काव्यशास्त्र या साहित्यशास्त्र के आचार्य नहीं थे, फिर भी यह कहना मिथ्या न होगा कि उन्होंने जितना अध्ययन कानून, इतिहास, अर्थशास्त्र जैसे विषयों का कर रखा था, उससे कम अध्ययन उनका साहित्य का नहीं था। उल्लेखनीय है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में अँग्रेजी में ऑनर्स लेकर उन्होंने सर्वोच्य स्थान प्राप्त किया था, ततपश्चात अँग्रेजी में ही उन्होंने एम.ए. की डिग्री प्राप्त की थी। इससे उनके अँग्रेजी भाषा एवं साहित्य के गहरे ज्ञान का पता चलता है। किन्तु अँग्रेजी के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, बंगला, उर्दू साहित्य का भी खूब अध्ययन कर रखा था। विभिन्न भाषाओं के साहित्य के अध्ययन के परिणाम स्वरूप साहित्य के संबंध में उनकी कुछ अपनी मान्यताएँ निर्मित हुई थीं। इन मान्यताओं को उन्होंने अपने ‘साहित्यशास्त्र’ जैसी पुस्तक लिख कर नहीं प्रस्तुत किया, बल्कि अपने साहित्य संबंधी विचारों को वे हिन्दी साहित्य सम्मेलनों, विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोहों, सभा-गोष्ठियों में आदि में व्यक्त करते रहे जो निबंध के रूप में ‘साहित्य, शिक्षा और संस्कृति’, ‘संस्कृत और संस्कृति’, ‘भारतीय शिक्षा’ नामक पुस्तकों में संकलित हैं।
राजेन्द्र बाबू के साहित्य-विमर्श को यदि हम काव्यशास्त्रीय चिंतन परम्परा में खोजना चाहेंगे तो निराश होना पड़ेगा। कारण कि, जैसा प्रसिद्ध समालोचक डॉ. नगेन्द्र का ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के साहित्य-सिद्धान्त’ शीर्षक निबंध में कहना है, कि ‘‘नियमित रूप से समालोचक न होने के कारण राजेन्द्र बाबू ने साहित्यशास्त्र के विभिन्न अंगों-उपागों पर विस्तृत विचार नहीं किया। फिर भी साहित्य के व्यापक, तत्त्वों पर – साहित्य का धर्म, साहित्यकार का दायित्व, साहित्य की आत्मा, साहित्य के प्रेरक तत्व, साहित्य और राजनीति, समालोचक के गुण, हिन्दी का स्वरूप, अनुवाद की आवश्यकता, पारिभाषिक शब्दावली के प्रयोग आदि के संबंध में उनके विचार स्पष्टरूप से उपलब्ध हैं। ’’3 लगभग इसी प्रकार का अभिमत वरिष्ठ समालोचक डॉ. सदानंद प्रसाद गुप्त का है – ‘‘राजेन्द्र बाबू ने साहित्य के व्यापक तत्त्वों-साहित्य का उद्देश्य, साहित्य का धर्म, साहित्यकार का दायित्व, साहित्य की आत्मा, साहित्य के प्रेरक तत्त्व, समालोचक के गुण, अनुवाद की आवश्यकता, संस्कृतभाषा की पूर्णता तथा उसके वांग्मय का विस्तार और महत्त्व विषय पर अपने महत्त्वपूर्ण और युक्तियुक्त विचार व्यक्त किये हैं। साहित्य के प्रयोजन को लेकर भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्परा में बड़ी गहराई से विचार किया गया है, विदेशी साहित्य में भी साहित्य के प्रयोजन को लेकर चर्चा हुई है। राजेन्द्र बाबू ने भी विभिन्न व्याख्यानों में साहित्य के प्रयोजन पर या कहें उद्देश्य पर अपने मंतव्य सपष्ट किये हैं।’’4
मतलब यह कि जिस तरह काव्य या साहित्य को ‘रसात्मकं वाक्यम् काव्यं’, ‘शब्दार्थो सहितौ काव्यं’, ‘रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दम् काव्यं’ या फिर ‘साहित्य समाज का दर्पण है,’ या ‘साहित्य जीवन की आलोचना है’ या ‘काव्या आत्मा की संकल्पात्मक अनुमूति हैें जैसे एक सूत्रात्मक कथन के जरिये परिभाषित करने की साहित्यशास्त्रीय परम्परा रही है, उस तरह का एक सूत्रात्मक कथन राजेन्द्र बाबू के साहित्य-विमर्श में कदाचित न मिले, किन्तु अपने विभिन्न वक्तव्यों में उन्होंने साहित्य का धर्म, साहित्य का प्रयोजन, साहित्यकार का दायित्व आदि पर विचार व्यक्त किये हैं, उनमेें इस सारी उपर्युक्त परिभाषाओं की अनुगूंज स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ती है। सबसे पहले यहाँ पर हम उनके द्वारा 1923 में कोकीनाडा में सम्पन्न हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के विशेष अधिवेशन में सभापति के रूप में दिये गये भाषण के कुछ अंशों पर दृष्टिपात करेंगे। इस लम्बे भाषण में जो ‘साहित्य की राजनीतिक पृष्ठभूमि’ नाम से प्रकाशित है, उन्होंने साहित्य को लक्ष्य करते हुए कहा – ‘‘साहित्य मानव-जाति के उच्च-से-उच्च और सुंदर-से-सुंदर विचारों तथा भावों का वह गुच्छ है, जिसकी बाहरी सुदंरता और भीतरी सुगंध दोनों ही मन को मोह लेती हैं। कोई जाति तब तक बड़ी नहीं हो सकती जब तक कि उसके भाव और विचार उन्नत न हों। जब भाव और विचार उन्नत होंगे, तब उनका विकास उस जाति के साहित्य के रूप में ही हो सकता है, इसलिए जाति या राष्ट्र के उत्थान के साथ-साथ उस जाति या राष्ट्र के साहित्य की उन्नति और उत्थान होना स्वाभाविक है। इसी प्रकार साहित्य की अवनति उस जाति के पतन का अटल और अटूट प्रमाण है।’’5
ध्यान से देंखे तो इस कथन में साहित्य संबंधी कई विषिष्टताओं का समावेष है – ‘साहित्य मानव -जाति के उच्च-से-उच्च और सुंदर-से-सुंदर विचारों तथा भावों का वह गुच्छ है’ प्रकारान्तर से ‘शब्दार्थो सहितौ काव्यं’ का द्योतक है, तो बाहरी सुंदरता और भीतरी सुगंध’ में ‘रमणीयार्थ प्रतिपादकः’ और ‘रसात्मकं वाक्यम्’ दोनों की अभिव्यंजना है जो मन को मोह लेने में सक्षम है। किन्तु राजेन्द्र बाबू इन सबको मात्र शब्दों का चमत्कार नहीं समझते, बल्कि उसके उत्स की ओर भी संकेत करते हैं जब वे ‘जाति या राष्ट्र’ की उन्नति और अवनति से उसे सम्बद्ध मानते हैं। अर्थात् साहित्य उनके लिए न कल्पना की मनोरंजक क्रीड़ास्थली है, न शब्द-शिल्प के चमत्कार प्रदर्शन का प्रांगण है। इसे और तथ्यसंगत और तर्कसंगत रूप में वे आगे कहते हैं – ‘‘भारत के इतिहास को ही लीजिए। महाभारत, रामायण और उपनिषद् अवष्य ऐसे समय में लिखे गये थे जब यह देष बहुत उन्नत था। यह कल्पना असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है कि ऐसे ग्रंथ-रत्न किसी असभ्य, बर्बर जाति के आचार्यों द्वारा लिखे गये हों। जब बौद्धों का राज्य भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गया और उनका प्रभुत्व तथा गौरव भारतवर्ष के बाहर भी पहुँच गया तो पाली भाषा और पाली साहित्य की उन्नति भी उस साम्राज्य की उन्नति के साथ-ही-साथ बढ़ती गई।’’6
स्पष्टतः राजेन्द्र बाबू साहित्य की देश और काल सापेक्ष सत्ता में विश्वास करते हैं जो बहुत हद तक विधेयवादी दृष्टि के अनुरूप है और सही भी है। वे अपनी बात को न केवल भारतीय साहित्य बल्कि यूरोपीय साहित्य के संदर्भ में भी पुष्ट करते हैं – ‘‘यूरोप का इतिहास भी इसी बात का साक्षी है कि जिस समय किसी देश ने राजनीतिक उन्नति की है, ठीक उसी समय या उसके आसपास वहाँ के शिल्प, कला और साहित्यकी भी उन्नति हुई है। सबसे पुरानी जाति जिसकी विद्या, कला और साहित्य का प्रभाव यूरोप के समस्त इतिहास पर पड़ा है और जिसका साहित्य आज भी बड़े चाव के साथ मनन किया जाता है – ग्रीक जाति है। ग्रीस देश पर पारसियों का भयंकर आक्रमण ख्रष्टाब्द के प्रायः पाँच शताब्दी पूर्व हुआ था। उस समय ग्रीस में कई छोटे-छोटे राज्य थे, जिनमें से एक एथेंस ही पारसी आक्रमण का अवरोध करने में अगुआ बना था और ग्रीस के सभी राज्यों को एक सूत्र में बाँधकर उसी एथेंस ने पारसियों को पराजित किया। इसका फल यह हुआ कि एथेंस का नेतृत्व प्रायः सारे ग्रीस को स्वीकार करना पड़ा। इतिहास लिखने वालों का विचार है कि ग्रीस के इतिहास में सबसे अधिक महत्त्व का समय यही था। उस समय का एथेंस शांति सुसंगठित शक्ति और पारस्परिक एकता का केन्द्र हो रहा था।…..उस समय का एथेंस विचार सौंदर्य में यहाँ तक परिपूर्णता को पहुँचा था कि आज तक जहाँ कोई भी देष नहीं पहुँच पाया है।…….यहाँ के दर्षन, इतिहास, वाक्-चातुर्य, कविता तथा नाटक सभी में अत्यन्त सुंदरता और गांमीर्य पाया जाता है और आज तक वे ही समस्त यूरोप के लिए पथ-प्रदर्षक हो रहे हैं।’’7 राजेन्द्र बाबू का यह सत्य कथन अँग्रेजी के बड़े कवि-समालोचक टी.एस. इलियट के ‘परम्परा और वैयक्तिक प्रतिभा’ शीर्षक लेख से भी अनुमोदित होता है जिसमें वे यूरोपीय साहित्यकारों के लिए ग्रीस-परम्परा में पूरी तरह स्नात होना आवष्यक बताते हैं और उससे प्राप्त पाथेय को वे वैयक्ति प्रतिभा के उत्कर्ष के लिए अनिवार्य मानते हैैं।
सामजिक-राजनीतिक-भौतिक परिस्थितियों का कितना प्रभाव साहित्य- सृजन पर पड़ता है, इसे राजेन्द्र बाबू भारतवर्ष के मध्यकाल की अकबरी शासन-व्यवस्था का उदाहरण देकर भी सिद्ध करते हैं। वे कहते हैं – ‘‘यद्यपि अकबर ने भी हिन्दू राजाओं को पराजित करके मुगल राज्य स्थापित किया, तथापि अकबर के राज्य में हिंदुओ के अपने धर्म-कर्म में किसी प्रकार की बाधा नहीं पड़ती थी। अकबर स्वयं बहुत बातों में हिंदू रीतियों और विचार-षैली को श्रद्धा की दृष्टि से देखता था और उसने हिंदुओं के प्राचीन साहित्य से परिचय प्राप्त करने में परिश्रम भी किया था। उसका शासन प्रभावशाली होने के कारण देष में शांति थी। भारतवर्ष के लिए अकबर का राज्य-काल और इंग्लैंड में एलिजाबेथ का राज्य प्रायः एक ही समय में पड़े थे और दोनों देशों के साहित्य पर उस समय का बहुत प्रभाव पड़ा है। अकबर की आज्ञा से बहुत से संस्कृत ग्रंथों का उल्था फारसी में किया गया था, जिनमें महाभारत, रामायण, अथर्ववेद आदि विषेष उल्लेखनीय हैं, पर उसके अतिरिक्त अकबर का समय हिन्दी साहित्य के लिए भी अत्यन्त गौरव का है, क्योंकि उसके सूर्य और चंद्रमा, तुलसी और सूर दोनों ही, मानो एक ही साथ उदय होकर विलक्षण ज्योति और प्रभा का विस्तार कर रहे थे।’’8
उपरोक्त मंतव्यों के आलोक में डॉ. प्रसाद बहुत हद तक ‘साहित्य को समाज का दर्पण’ माननेवाली मान्यता के पास पहुँच जाते हैं, किन्तु साहित्य की भूमिका को वे दर्पण की निष्क्रियता तक सीमित न रख कर मानव-चेतना के निर्माण और विकास में, आत्मा के उत्कर्ष में उसकी सकारात्मक, निर्णायक भूमिका पर भी बल देते हैं। वे ‘साहित्यकार का दायित्व’ स्पष्ट शब्दों में रेखांकित करते हैं। द्रष्टव्य है उनका यह कथन – ‘‘मुझे पूरा विश्वास है कि यदि आप अपनी कृतियों में सृजनात्मक और सहकारिता के सिद्धान्त के प्रति वफादार रहें तो आप सचमुच ही अपनी कृतियों को भारत के नव निर्माण और यहाँ की जनता के दुख-दारिद्रय को दूर करने का प्रबल अस्त्र बना देंगे। भगवान ने आपको ऐसी शक्ति प्रदान की है कि आप उसके द्वारा अपने अन्य भाई-बहनों की समस्याओं को ऐसे सुस्पष्ट शब्दों में व्यक्त कर सकते हैं कि वे उनको ठीक-ठीक पहचान लें और साथ ही, आप उनको वह प्रेरणा और वह दिग्दर्शन प्रदान कर सकते हैं, जिससे ज्योति और उत्साह पाकर वे अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए कटिबद्ध होकर लग जाएँ। हमारे देष में करोड़ों नर-नारियों का जीवन आज विफलतापूर्ण और विपत्तिमय है और हमारी स्वतंत्रता का तब तक कोई अर्थ न होगा जब तक कि वे अपने जीवन को सफल और सार्थक न कर सकें। इस महान कार्य-संपादन के लिए आज हमारे देश को प्रत्येक व्यक्ति के अंष-दान की आवश्यकता है। जो राजनीतिज्ञ हैं, वे राजनीतिक दृष्टि से उस दषा को सुधारने का प्रयास कर रहे है, किन्तु न तो राजीतिज्ञ और न यंत्रकारों के हाथ में यह बात है कि वे जनता के हृदय मे ऐसी स्फूर्ति, ऐसा उत्साह और ऐसी लगन पैदा कर दें कि जनता इस समस्याओं को शीघ्रातिषीघ्र सुलझाने में अपनी पूरी शक्ति लगा दे। जनता के हृदय में यह भावना पैदा करने का काम साहित्यिकों का है। आज हमारे लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि साहित्य प्रेयसी का गान न होकर प्रसविनी माता की सृजनात्मक शक्ति हो। वह उपभोग की वस्तु न होकर रचना का साधन हो। हमारे साहित्यकारों में से अनेक ने स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में बड़ा महान कार्य किया था और उनमें से अनेक ने उन दिनोंु ऐसी कृतियाँ दीं, जिनसे जन-जीवन में स्वतंत्रता के लिए मोहक उन्माद पैदा हो गया और लाखों व्यक्ति स्वतंत्रता-युद्ध में अपने जीवन का बलिदान करने को प्रस्तुत हो गये। आज हमें दूसरे प्रकार के सहित्य की आवश्यकता है – ऐसे साहित्य की जो हमको ऐसी प्रेरणा दे कि कृषि, उद्योग, व्यवसाय, शिक्षा के क्षेत्रों में वर्त्तमान विज्ञान का सहारा लेकर प्रत्येक व्यक्ति सामूहिक उद्योग में जुट जाए।’’9
यह उद्धरण 20 फरवरी 1951, सरस्वती मंदिर, प्रयाग के शिलान्यास के अवसर पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा दिये गये भाषण का अंष है। इस कथन में साहित्य और साहित्यकार के दायित्व के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण बातें कही गईं हैं। डॉ. प्रसाद समाज के नव निर्माण में राजनीतिज्ञों एवं यंत्रकारों की तुलना में साहित्यकारों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं, वे उन्हें राजनीति एवं यात्रिकी के पीछे-पीछे चलने का समर्थन नहीं करते। ध्यातव्य है, 1936 में प्रगतिशील लेखक संध के स्थापना-अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में कथा-सम्राट प्रेमचंद्र ने भी कहा था कि ‘‘साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का साधन जुटाना नहीं है – उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।’’ एक साहित्यकार का साहित्य के प्रति ऐसा स्वाभिमानपूर्ण एवं आत्म-सजग दृष्टिकोण होना स्वाभाविक है, लेकिन राजेन्द्र प्रसाद साहित्यकार नहीं, मुख्यतः राजनेता थे और एक राजनेता का साहित्य को राजनीति और यांत्रिकी के ऊपर दरजा देना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। साहित्य को पार्टी यानी राजनीतिक संगठन का पुर्जा माननेवाले भी विश्व प्रसिद्ध राजनेता हुए हैं, किन्तु राजेन्द्र प्रसाद सहित्य को दोयम दरजा देने वाले राजनेता नहीं थे, बल्कि उसे राजनीति एवं यांत्रिकी के पथ-प्रदर्शक की भूमिका में देखनेवाले थे। साथ ही, वे साहित्य की समय-सापेक्षा भूमिका भी स्वीकार करते हैं। इसलिए वे जहाँ स्वतंत्रता-आंदोलन के दौरान लिखे गये साहित्य का गौरव-गान करते हैं, वहीं स्वातंत्रयोत्तर भारत में वे ऐसे साहित्य-सृजन की मांग करते हैं जो जनता को देष के नव निर्माण हेतु उद्योग, कृषि, शिक्षा आदि के क्षेत्र में संलग्न होने को प्रेरित करे, न कि ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ जैसी भावोत्तेजक रचना करने में अपने रचना-कर्म की सार्थकता समझे।
इस कथन में एक अन्य महत्त्वपूर्ण उल्लेखनीय बात परिलक्षित होती है वह यह कि राजेन्द्र बाबू चंद अघाये, सुविधाभोगी लोगों तक साहित्य का सरोकार सीमित नहीं मानते, अपितु उसे जनता की समस्याओं से मुखामुखम होते हुए ‘जनता के हृदय में ऐसी स्फूर्ति, ऐसा उत्साह और ऐसी लगन पैदा’ करने की बात कहते हैं जिससे जनता अपनी समस्याओं को सुलझाने में अपनी पूरी शक्ति लगा सकें। प्रकारान्तर से वे साहित्य को ‘मानव-आत्मा के षिल्पी के रूप में देखते हैं। ध्यातव्य है मार्क्सवादी सोवियत राजनेता स्तालीन ने ‘साहित्य को मानव-आत्मा का षिल्पी’ कहा था और हमारे प्रगतिवादी आलोचक स्तालीन के इस कथन का खूब ‘तोता रंटत पाठ करते रहे हैं, किन्तु राजेन्द्र प्रसाद द्वारा कही गई लगभग ऐसी ही बात पर इन प्रगतिवादियों का कभी ध्यान नहीं गया कारण कि वे मार्क्सवादी चोला नहीं धारण किये रहे। किन्तु ‘जनता’ को साहित्य के केन्द्र में रख कर राजेन्द्र बाबू भी जनवादी दृष्टि का ही परिचय देते है, दीगर बात है कि जनवाद के वामपंथी झंडाबरदारों ने जनता की बात करनेवाले न गाँधी को जनवाद के खाते में दर्ज किया, न राजेन्द्र प्रसाद को।
दरअसल, मार्क्सवाद के तथाकथित वैज्ञानिक सिद्धान्त से मोहाविष्ट प्रगतिवादी आलोचकों ने जिस तरह साहित्य को मुख्य रूप से वर्ग-संघर्ष, वर्ग-चेतना का समर-स्थल बना दिया, वह वर्गीय सीमा से परे जनवाद में विश्वास करने वाले राजेन्द्र प्रसाद जैसे साहित्य-चिंतक को स्वीकार्य नहीं था। उसी भाषण में उन्होंने प्रगतिशील साहित्य की व्यापक मानोभूमि को रेखांकित करते हुए कहा – ‘‘आज हमें लगभग 35 करोड़ व्यक्तियों को सुशिक्षित करना है, अच्छे-अच्छे घर-बार देने हैं, पर्याप्त भोजन की व्यवस्था करनी है और उनके जीवन को आनंद और संगीत से भरना है। इस कार्य के लिए हमें अपनी आर्थिक उत्पादन शक्ति को हजारों गुना बढ़ा लेना है। और यह काम तभी हो सकता है जब हमारे देश में प्रत्येक व्यक्ति अपने को सरकार पर आश्रित न समझ कर अपनी शक्ति उत्पादक, सृजनात्मक रचनात्मक कार्यों में लगा दे। इस महान यज्ञ में साहित्यकार ही प्रधान आहुति डाल सकते है और आषा हैं, डालेंगे। मैं इसी प्रकार के साहित्य को प्रगतिशील साहित्य मानता हूँ। आजकल कुछ लोग प्रगतिशील साहित्य का दर्जा ऐसे साहित्य को देते हैं, जिसमें वर्तमान समाज के अंतर में होने वाले श्रेणी-संघर्षों का वर्णन होता है और जो तथा कथित शोषित वर्गों को अन्य वर्गों से संघर्ष के लिए प्रेरित करता हैं। … आज भारत में सामाजिक और राजनीतिक सत्ता उन लोगों के हाथ में है, जो इस बात में विश्वास रखते हैं कि समाज शोषणहीन, वर्गहीन होना चाहिए और उसमें प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी भेदभाव के बिना सब सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए जिनसे वह अपने जीवन का पूरा विकास कर सके। जब हमने संसार की एक महान शक्ति का अहिंसात्मक क्रियाशीलता द्वारा केवल मुकाबला ही नहीं किया, बल्कि स्वराज्य भी प्राप्त कर लिया तो अब इस रचनात्मक समय में आपस में श्रेणी-संघर्ष को हिंसात्मक रूप दिये बिना नव-समाज का सृजन, जिसका ध्येय सर्वोदय करना है, होना चाहिए। इसमें साहित्य यथेष्ट सहायता दे सकता है और इसलिए मैं मानता हूँ कि हमारे देश में जिस साहित्य की आवश्यकता है, वह केवल ऐसा ही साहित्य है जिसमें सृष्टि और रचना की पुकार भरी हो।’’10
हम सभी को यह ज्ञात है कि महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1920 से स्वराज्य-प्राप्ति के लिए अहिंसात्मक ढंग से चलाये गये स्वतंत्रता संग्राम के राजेन्द्र बाबू एक अहम सिपहसालार रहे थे, इसलिए उनकी जीवन-दृष्टि अहिंसात्मक रणनीति से निर्मित हुई थी। इस कारण वे साहित्य को भी सामाजिक परिवर्तन तथा नव-निर्माण के लिए श्रेणी-संघर्ष के बजाय अहिंसा का अस्त्र बनाये जाने के प्रबल पक्षधर थे और इसका लक्ष्य भी वर्गहीन, शोषण-मुक्त समाज बनाना था। किन्तु ध्यान रहे, उनका यह जनता-प्रेम प्रगतिवाद की देन नहीं था, बल्कि दीर्धकाल तक नाना जन-आंदोलनों से जुड़े रहने का परिणाम था। प्रसिद्ध समालोचक डॉ. नगेन्द्र ने सही कहा है – ‘‘रचनात्मक कार्यों को प्रेरित करने वाले साहित्य की महत्त्व प्रतिष्ठा करने पर भी इन मान्यताओं को प्रगतिवादी विचारधारा की अनुगूँज नहीं मानना चाहिए। प्रगतिवाद की एक उल्लेखनीय दुर्बलता यह थी कि उसमें वर्ग-संघर्ष के आधार पर धनिकों के प्रति घृणा व्यक्त की गई थी जबकि राजेन्द्र बाबू ने जन मानस को रचनात्मक कार्याें की ओर प्रेरित करने वाले साहित्य को ही सत्साहित्य माना है। शोषितों का समर्थन करने और वर्ग संघर्ष को उभारने वाले साहित्य की अपेक्षा राष्ट्र-निर्माण का आह्वान करने वाला साहित्य ही उनकी दृष्टि में प्रगतिषील साहित्य है।’’11
राजेन्द्र बाबू मानव-चेतना को समाज-कल्याण, लोकमंगल, पारस्परिक सौमनस्य की और उन्मुख करने में साहित्य की सर्वोपरि भूमिका स्वीकार करते हैं, यही कारण है कि वे घटिया स्तर के, केवल जैसे-तैसे मनोरंजन करने वाले, यथार्थ के नाम पर समाज का जस-का-तस वर्णन करनेवाली रचनाओं को शोभनीय नहीं मानते। ध्यातव्य है। 1930 के दषक में बहुत बड़े हिन्दी सेवी तथा कोलकाता से प्रकाषित पत्रिका ‘ विशालभारत’ के संपादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने फूहड़ अष्लील साहित्य रचनेवालों के खिलाफ ‘घासलेटी साहित्य’ नाम से एक साहित्यिक मुहिम छेड़ रखा था जिसमें मुख्य निषाने पर थी पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की कृति ‘चॉकलेट’। इसी कृति को उन्होंने गाँधी जी के पास भी भेजा था। हालांकि गाँधी जी ने ‘अमानुषी व्यवहार पर घृणा ही पैदा की है’’ कहकर इस कृति का समर्थन ही किया था, किन्तु राजेन्द्र बाबू ने किसी कृति विशेष को लेकर नहीं, बल्कि ‘घासलेटी साहित्य’ की बढ़ोतरी को अशोभनीय मानते हुए उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा था – ‘‘सबसे बड़ा डर मुझे इसी बात का है कि हिन्दी पाठकों की संख्या बढ़ जाने से हर प्रकार की पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का प्रचार अधिक हो रहा है और आगे और भी अधिक होने वाला है। कुछ दिन पहले इस विषय पर श्री बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने कुछ चर्चा छेड़ी थी और उन्होंने इस प्रकार के तुच्छ और हानिकारक साहित्य को ‘घासलेटी साहित्य’ का नाम दिया था। मुझे डर है कि घासलेटी साहित्य की, अब जब हिन्दी पाठकों की संख्या बढ़ेगी, वुद्धि होगी। हिन्दी साहित्यकारों और प्रकाशकों का यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि इस प्रकार के साहित्य के प्रचार को रोकें कम से कम उसमें सहायक न हों। यह काम आसान नहीं है, क्योंकि इसका संबंध पैसों से जुड़ा हुआ है और पैसों का लोभ संवरण करना आसान नहीं होता है। पर मैं मानता हूँ कि यदि उच्च कोटि के साहित्यकारों और आलोचकों ने इस पर ध्यान दिया तो इस प्रचार को रोकने में वे सफल हो सकते हैं। हमको यह समझना चाहिए कि हिन्दी में घासलेटी साहित्य केवल हिन्दी भाषियों के हाथों में नहीं जाएगा। वह अन्य भाषा-भाषियों के हाथों में पहुँचेगा और इससे सारे हिन्दी साहित्य की बदनामी होगी। इसलिए हिन्दी की प्रतिष्ठा की यह अपेक्षा है कि इस प्रकार का अस्वस्थ साहित्य हिन्दी में स्थान न पाए। और जिस तरह से कोई चोर या व्यभिचारी किसी अच्छे समाज में स्थान नहीं पाता, उसी तरह से हमारा साहित्यिक समाज ऐसा बन जाए कि उसमें इस प्रकार के व्यभिचारी साहित्य को स्थान न मिल सके।’’12
स्पष्टतः राजेन्द्र बाबू जैसा-तैसा, सस्ते एवं चलताऊ किस्म के साहित्य लिख कर पैसा कमाना साहित्यकार का जीवन-लक्ष्य नहीं मानते हैं, न ही यथार्थ के नाम पर कुत्सित, अश्लील बातों को साहित्य में स्थान देना उचित मानते हैं क्योंकि ऐसे साहित्य से समाज कल्याण संभव नहीं है। वे साहित्य को नैतिकता का वाहक मानते हैं जो सर्वथा उचित है क्योंकि नैतिकता की बात मनुष्य समाज में ही हो सकती है, पशु-पक्षी समाज में तो नैतिकता, फूहड़पन की बात हो नहीं सकती। किन्तु उन्हें साहित्य के मूल धर्म की चिंता तो है ही, साथ ही हिन्दी साहित्य की बदनामी न हो , इसकी भी चिंता है जो उनके हिन्दी प्रेम का ही उत्कृष्ट प्रमाण है। किन्तु पिछले कुछेक दशकों में हिन्दी साहित्य में जिस तरह यथार्थ के नाम पर विषेषकर यौन-मुक्ति के नाम पर जो लेखन हुआ है – कुछ ने तो साहित्य को पोर्नाेग्राफी का रूप दे दिया है – वह राजेन्द्र बाबू की आशंकाओं को सही सिद्ध करता है। आजकल ऐसा लेखन विदेशी साहित्य से प्रेरित होकर भी किया जा रहा है यह कहकर कि विदेषों में भी इस तरह का खुला, नग्न चित्रण हो रहा है। किन्तु राजेन्द्र बाबू को अपने देश के साहित्यकारों से अपेक्षा थी कि वे देश के परिवेष , संस्कृति से घनिष्ट रिश्ता बनाकर उसका चित्र अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करें। द्रष्टव्य है इस संबंध में उनका कथन – ‘‘दुर्भाग्यवश विदेशी राज्य में हमारे नगरों और ग्रामों में संस्कृति की दृष्टि से पर्याप्त विभेद हो गया। जहाँ ग्राम इस भूमि और इसी आकाश की वस्तु रहें, वहाँ नगरों का-प्रचलित शिक्षा पद्धति के कारण-रिष्ता सुदूर यूरोप और इंग्लैंड से भारत भूमि की अपेक्षा कहीं अधिक घनिष्ट हो गया। अतः बहुतेरे नगरवासियों अर्थात् नवशिक्षित वर्ग के लोगों को भारत की ऐतिहासिक विरासत की अपेक्षा यूरोप की संस्कृति ने अधिक प्रभावित किया। मेरे इस कथन का आशय यह कदापि नहीं है कि विदेश की किसी बात को अच्छा समझना या अपनाना कोई बुरी बात है। वैसा तो होना चाहिए, किन्तु हम में से हरेक को यह भी समझना चाहिए कि हमारा जीवन यहाँ की वायु, यहाँ के आकाश, यहाँ के इतिहास, से इतना जकड़ा हुआ है कि उनसे अलग होना अपने अस्तित्व को उसकी तरह खतरे में डाल देना है जैसे कि शरीर पर से खाल को छील देने से उसका बना रहना असंभव हो जाता है। अतः अब समय आ गया है कि स्वतंत्र भारत का प्रत्येक व्यक्ति अपनी जनता से गठबंधन और भी दृढ़ कर ले और जन-जीवन से किसी प्रकार भी कटा-कटा न रहे। इसका आशय यह है कि हमारी साहित्य-साधना यही के लोगों के जीवन और प्रकृति के स्वरूप से प्रेरित होनी चाहिए। यदि ऐसा हमने किया तो हमारा साहित्य गमले का पुष्प न रहकर जन-जीवन के प्राकृतिक बंसत में प्रफुल्लित सर्वव्यापी सौरभमय झाड़ी और वन बन जाएगा। यदि कबीर, सूरदास और तुलसीदास आज भी जन-जीवन के प्राण बने हुए हैं, यदि उनके पद आज भी खेती में काम करने वाले नर-नारियों के मुख से सुनाई पड़ते रहते हैं तो उसका कारण यही है कि उन्होंने जनता के हृदय की धड़कन को ही कविता का रूप दिया।’’13 स्पष्ट है कि विदेशी साहित्य को पढ़ कर उससे अच्छा ग्रहण करने और अपनाने से राजेन्द्र बाबू का विरोध नहीं है, किन्तु उनका मुख्य बल अपने देष के परिवेश, जनता के हृदय की धड़कन से जुड़ने पर है और यह सर्वथा उचित भी है क्योंकि इनके अभाव में साहित्य न देश को समझने-जानने में सहायक हो सकता है, न जन-जीवन की आकाक्षाओं को समझने में। यही है साहित्य के प्रति सच्चा जनवादी दृष्टिकोण।
राजेन्द्र बाबू के साहित्य-विमर्श में एक अन्य उल्लेखनीय बात जो सामने आती है वह यह कि वे केवल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि के लेखन तक ही साहित्य को सीमित करके नहीं देखते, बल्कि उसका ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न विद्याओं से भी सम्बन्ध मानते हैं। वे हिन्दी साहित्य के भंडार को भरपूर और राष्ट्रभाषा के योग्य बनाने के लिए इस बात पर जोर देते हैं कि ‘‘हिन्दी में उच्च कोटि के मौलिक साहित्य का निर्माण किया जाए। साहित्य से मेरा अर्थ केवल गद्य और पद्य की उन कृतियों से ही नहीं है, जो साधारणतया हम समझते हैैं। ‘साहित्य’ शब्द का व्यवहार हमने एक विस्तृत और व्यापक अर्थ में किया है। इसमें मैं सभी विषयों से संबंध रखनेवाले ग्रंथों और कृतियों को भी समाविष्ट करता हूँ। मेरा अर्थ है मौलिक खोज और अनुसंधान के फल से, चाहे वह खोज और अनुसंधान किसी वैज्ञानिक विषय के साथ संबंध रखता हो, चाहे वह भूगोल और खगोल के साथ संबंध रखता हो अथवा रेखा-गणित बीज-गणित या अन्य प्रकार के गणित के साथ संबंध रखता हो, चाहे वह दर्शन के साथ संबंध रखता हो अथवा इस प्रकार की गद्य-पद्य रचना के साथ, जिसे हम साधारणतः साहित्य का नाम देते हैं, संबंध रखता हो। हम इन सभी प्रकार की कृतियों को साहित्य का नाम देते हैं और जब उसके भंडार को भरपूर करने की बात करते हैं तो इन सब की पूर्ति हम चाहते हैैं। इसलिए यह आवष्यक है कि हिन्दी भाषी इन सभी विषयों के स्वतंत्र और मौलिक ग्रंथों के लिखने की योग्यता प्राप्त करें और ऐसे मौलिक ग्रंथ लिखें। इसमें एक-दो नहीं, हजार-हजार विद्धानों और अनुसंधानकर्ताओं को लगना होगा, जो सभी बातों को भूल कर एकचित्त सच्चे योगी बन कर जिस विषय को वे लें, उसमें मौलिक कृति देष को और संसार को दें।’’14
इस कथन से ‘शुद्ध कविता’ या ‘पूर्णतः स्वायत साहित्य’ के प्रेमियों को आपत्ति हो सकती है कि राजेन्द्र बाबू विभिन्न विद्या-अनुशासनों से साहित्य को सम्बद्ध करके साहित्य की स्वायत्तता, शुद्धता के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। किन्तु, ध्यान रहे वे जिस सदी में साहित्य को इस रूप में परिभाषित कर रहे थे, उस समय तक साहित्य ‘रसात्मकं वाक्यम्’ ललित गद्य-विन्यास, कोमल कांत पदावली से बहुत आगे निकल चुका था। यहाँ हमें हिन्दी के बहुत बड़े साहित्यचार्य पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी का यह कथन स्मरण कर लेना चाहिए – ‘‘ज्ञान-राशि के संचित कोश का ही नाम साहित्य है।’’ साहित्य के संबंध में ऐसी अवधारणा रखने के कारण ही द्विवेदी जी ने 1903 से युगान्तरकारी पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादक के रूप में उसे कविता, कहानी, समालोचना के साथ-साथ पुरातत्व, इतिहास, अर्थषास्त्र, विज्ञान आदि से सम्बद्ध विषयों का प्रभावषाली मंच बनाया था ताकि जिन विषयों को साहित्येतर समझा जाता था, उन्हें भी साहित्य के दायरे में लाकर हिन्दी साहित्य में ज्ञान-राषि के कोश को समृद्ध किया जा सके। द्विवेदी जी ने स्वयं कविता, समालोचना लिखने के साथ-साथ ‘सम्पतिशास्त्र’ जैसी अर्थ-मीमांसा वाली पुस्तक लिख कर साहित्य के दायरे को विस्तृत करने का काम किया था। द्विवेदी जी की तरह ही राजेन्द्र बाबू भी हिन्दी साहित्य के भंडार को ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों को समाविष्ट कर उसे समृद्ध होते देखना चाहते थे। इसलिए उनके इस कथन को साहित्येतर या असाहित्यिक मानने की भूल नहीं करनी चाहिए।
अब तक के प्रस्तुत वक्तव्यों के आलोक में दिन के उजाले की तरह साफ है कि साहित्य किस प्रकार अपने में विविध विद्याओं को समाविष्ट करते हुए समाज-कल्याण एवं मानव-आत्मा के उत्कर्ष में सहायक हो सके, इस संबंध में राजेन्द्र बाबू निरंतर अपने विचारों से साहित्य-सृजन का पथ आलोकित करते रहे। किन्तु एक अन्य उल्लेखनीय बात यही भी है कि वे अपने साहित्य-चिंतन में साहित्य की उस भारतीय परम्परा को महत्त्व देना नहीं भूलते जिसमें साहित्य को न केवल मनुष्य, बल्कि मनुष्य के साथ-साथ मनुष्येतर प्राणियों के भी सहअस्तित्व एवं मैत्रीपूर्ण संबंधों को महत्त्व दिया गया है। संस्कृत वांगमय के संबंध में उनका यह वक्तव्य ध्यान में रखने लायक है – ‘‘संस्कृत वांग्मय की एक और विषेषता यह है कि उसमें सारे व्यक्त जगह की एकता का चित्रण है। उसकी यह मान्यता है कि जड़ प्रकृति, चेतन पशु-पक्षी और ज्ञानवान मानव इन सबके अंतस्तल में एक सर्वव्यापी शक्ति विराज रही है। इसलिए नायक के सुख-दुख में सारे जड़ और चेतन जगत का हृदय भी सम्मिलित रहता है। इसी कारण संस्कृत वांगमय में प्रकृति, पशुओं, पक्षियों का जितना सुंदर और सहानुभूतिपूर्ण वर्णन है वैसा संसार के किसी अन्य साहित्य में नहीं पाया जाता, युनानी साहित्य में भी नहीं। संस्कृत के लेखको को शेक्सपीयर के जन्म से शताब्दियों पूर्व पाषाणों में पावन गीत और सरिताओं में शास्त्र-पाठ सुनाई देता रहा है। यहाँ के कवियों ने मेघों को, शुकों को दूत बना कर नायक का संदेश लेकर नायिका के पास अनेक बार भेजा है। संस्कृत वांगमय में नायक या नायिका की जीवन धारा के दिशा-निर्माण में परमेष्वर और देवगण, प्रकृति और उसकी प्रेरक शक्तियाँ, सभी भाग लेती हैं। व्यक्ति के झरोखे से श्रोता, दर्षक या पाठक को संस्कृत वांगमय सारे विष्व का दिग्दर्शन करा देता है। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, विष्वात्मा से मानव-जीवन के इस तादात्मय को इतनी स्पष्टता से केवल संस्कृत वांगमय में ही निरूपित किया गया है। अपनी इन विशिष्टताओं के कारण वह साहित्य अनेक ऐतिहासिक परिवर्तन होने पर आज भी अपना मस्तक ऊँचा किये हुए खड़ा है और संसार के महान साहित्यों में सर्वप्रथम स्थान रखता है।’’15 जाहिर है वे मनुष्य के साथ-साथ मनुष्येतर की भी साहित्य में उपस्थिति देखने के अभिलाषी हैं। उनका यह कथन आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस कथन के ही मेल में हैं ‘‘काव्य शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंधों की रक्षा और निर्वाह का साधन है।’’
राजेन्द्र बाबू के साहित्य-विमर्श को देखने से ज्ञात होता है कि वे जहाँ देष-काल की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य-सृजन को आवश्यक मानते हैं, समाज सापेक्ष होना उसका धर्म मानते हैं, वहीं वे देष-काल की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उसकी सर्वकालिक, सर्वदेशीय जीवन्तता, प्रांसगिकता में भी विश्वास रखते हैं। साहित्य कैसे कालातीत प्रांसगिकता को प्राप्त कर सकता है, यह उनके संस्कृत वांग्मय के संबंध में कहे वक्तव्य से जाहिर है। साहित्य की समय एवं समाज सापेक्ष स्वायत्तता को स्वीकार करने के साथ ही राजेन्द्र बाबू समस्त चर-अचर, जड़-चेतन के प्रति मनुष्य को संवेदनशील बनाने में भी साहित्य का वांछनीय दायित्व स्वीकार करते हैं और यही मनोभूमि रही है हमारी भारतीय काव्यशास्त्रीय चिंतन-परम्परा की। आज भले ही वर्ग-चेतना, दलित-चेतना, स्त्री-चेतना, आदिवासी एवं किन्नर चेतना जैसे अस्मितामूलक विमर्षों में आकंठ डूबे साहित्य-विमर्शकारों को उनका यह दृष्टिकोण पंसंद न आये, किन्तु सत्य यह है साहित्य को सम्पूर्ण जीवन-जगत का चितेरा मानने वाली जिस भारतीय काव्य-परम्परा की जमीन पर खड़े हेाकर राजेन्द्र बाबू साहित्य की समय-सापेक्ष और काल-निरपेक्ष भूमिका पर बल दे गये हैं, वही तमाम अस्मितामूलक है।
पूरे विवेचन को ध्यान में रखने से यह मानना पड़ता है कि राजेन्द्र बाबू के साहित्य के प्रति लगाव एवं अनुराग को लेकर जॉन एफ. कनेडी और डॉ. राधाकृष्णन ने जो कहा था, वह निराधार नहीं था। विस्मय होता है यह देख कर कि एक सुदूर देश अमेरिका के राष्ट्रपति, तो दूसरे अहिन्दीभाषी भारतीय राष्ट्रपति को राजेन्द्र बाबू के साहित्यिक लगाव का ज्ञान था, लेकिन अपने ही देश और हिंदी जगत को इसकी जानकारी नहीं रही। राजेन्द्र बाबू के साहित्य-चिंतन को लेकर हिन्दी में लिखे गये अबतक मुझे दो लेख देखने को मिले हैं जिनमें एक डॉ. नगेन्द्र का है, तो दूसरा डॉ. सदानंद प्रसाद गुप्त का है जिनका जिक्र इस आलेख में भी किया गया है। दरअसल वेस्टर्न साहित्यिक विमर्शों में उलझी-फँसी रही हिन्दी आलोचना को देषज भावभूमि वाले राजेन्द्र प्रसाद का चिंतन महत्त्व का नहीं लगा। ऐसे साहित्य मर्मी चिंतक देशरत्न डॉ. राजेन्द्र के प्रति हिन्दी जगत की उपेक्षा के सिवा क्या कहा जा सकता है।
संदर्भ –
1. जॉन एफ. कैनेडी के अँग्रेजी में मूल वक्तव्य –
“Outside of India, Dr. Prasad,quite naturally, best known for his long service as the President of the Republic of India, to which position he brought great honour and distinction until his retirement in 1962. It is not always known else where as it is in India, that Dr. Prasad’s talents found expression not only in the field of public service, but in law, in literature and in education as well.In each of these fields his has been a record of unusual achievement.’’
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद: एक युग-स्मरण, सं. वाल्मीकि चौधरी, पृ. 2, प्र. उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान , लखनऊ, संस्करण, 1987।
2. डॉ. राधाकृष्णन का अँग्रेजी में मूलकथन – “While he was the President, I happened to be the Vice-President for a period of 10 years. I used to meet him a least once a week. We generally talked politics for a few minutes and then turned to religion, philosopy and literature. We enjoyed these talks which lifted us for a time from the hurlyburly of Politics.’’उप. पृ. 29
3. उप. पृ. 136
4. साहित्य भारती, पृ. 22, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका, अंक अप्रैल-जून 2022
5. साहित्य, शिक्षा और संस्कृति, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद , पृ. 12, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
6. वहीं
7. उप. पृ. 14
8. उप. पृ. 16
9. उप. पृ. 108
10. उप. पृ. 108-9
11. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद: एक युग-स्मरण, पृ. 138
12. साहित्य, शिक्षा और संस्कृति, पृ. 103
13. उप. पृ. 115
14. उप. पृ. 102
15. उप. पृ. 126
श्रीभगवान सिंह
102, अम्बुज टॉवर, हनुमान पथ, तिलकामाँझी, भागलपुर, बिहार, 812001, मो. 9801055395