निर्भय देवयांश
विज्ञान के बढ़ते दखल और प्रभाव ने संवेदना का एक तरह से कचूमर निकाल कर रख दिया है। अब पता नहीं चलता है कि आदमी में संवेदना है कि संवेदना के लिए आदमी है ही नहीं। दोनों के मिलन का कोई केंद्र नहीं है। सभ्यताओं के शुरू दिनों में विज्ञान के अभाव में शायद संवेदना की जरूरत महसूस होती होगी मगर जैसे जैसे समय आगे बढ़ता गया संवेदना सिकुड़ती गयी।
आने वाले समय मे सबसे बेकार यदि संवेदना हो जाए तो कागज के टुकड़ों पर चलने वाली दुनिया में कोई हैरत नहीं होगी। संवेदना है ही नहीं तो हैरत की पड़ताल कैसे होगी? है न यह आश्चर्य! ऐसे और कितने आश्चर्य हम मानवों को विज्ञान देगा। अभी तो गर्मी से त्रस्त हैं, बाढ़-सुखाड़ से। भविष्य में न जाने किस किस अभावों-मुश्किलों से त्रस्त होंगे। यह भी सोचने के लिए मनुष्य के पास रत्ती भर संवेदना नहीं बची होगी। हम कागज के टुकड़े की तरह निर्जीव हो जाएंगे। अस्तित्व के सामने महज एक वस्तु मानव।