डॉ.कर्ण सिंह चौहान
आलोचक-लेखक
आज जबकि काफी हद तक विभागों के प्रशासनिक ढांचे का जनतांत्रिकरण हो गया है, उन्हें मनसबदारी कहना थोड़ा विचित्र लग सकता है । अब यह विभाग न तो खैरात में मिलता है और न इन पर किसी एक व्यक्ति का एकछत्र अधिकार रहता है । ये विभाग किसी बाहरी सत्ता या शक्ति के नहीं विश्वविद्यालय प्रशासन का अंग हैं और जाहिर है कि वहीं से उनका नियमानुसार संचालन भी होता है ।
मसलन देश के अधिकांश विभागों में रोटेशन की प्रणाली कायम हो चुकी है जिसके अनुसार हर तीन साल में विभागाध्यक्ष वरिष्ठता के आधार पर बदल जाता है । सभी विभागों में नियमतः अध्यापकों की स्टाफ कौंसिलों की स्थापना हो चुकी है जिसमें विभाग के छोटे-बड़े तमाम अध्यापकों की हिस्सेदारी होती है और जो विभाग के मसलों पर बैठक में सामूहिक निर्णय लेते हैं ।
इसलिए उन्हें मनसबदारी के रूप में संबोधित करना और समझना सत्य से तिगुनी दूर लग सकता है ।
लेकिन बावजूद इसके लोगों की महती इच्छा रहती है कि काश उन्हें विभागाध्यक्ष की कुर्सी को सुशोभित करने का अवसर मिल जाय । सभी जानते हैं कि अगर वे जीवन की संध्या में विभाग में नहीं पहुंचे हैं तो जीवन में एक बार तो उनका नंबर आ ही जायगा । फिर भी मारा-मारी मची रहती है और उस समय तक का काल लगभग कलपते बीतता है । कई लोग बन कर देख आते हैं कि वहां कुछ नहीं है, कई लोग कलपते ही विदा हो जाते हैं ।
सवाल यह है कि जब इस विभाग की चौधराहट में कुछ है ही नहीं तो सब लोग उस पद के लिए इतना कलपते क्यों हैं । जो कालेजों में पढ़ाते हैं और वहां प्रतिष्ठित हो चुके हैं, वे भी विश्वविद्यालय विभागों में पहुंचने की जोड़तोड़ में लगे रहते हैं । दिल्ली से बाहर के विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे लोगों की भी दिली कामना रहती है कि किसी तरह वहां पहुंच जायं । जो यहां हैं वे तो अध्यक्ष की कुर्सी की लाइन में रहते ही हैं ।
वैसे तो इसके कितने ही किस्से आजकल सामाजिक माध्यमों पर घूमते रहते हैं लेकिन उनमें से एकाध का जिक्र कर देना इस प्यास को मूर्त करने के लिए काफी है ।
हिंदू कालेज में मेरे एक शिक्षक थे, पढ़ाने में बहुत ही अच्छे और विद्वान । उन्हें कालेज में रहने के लिए बंगलानुमा मकान मिला हुआ था लान वाला एकदम हरियल पहाड़ी के सामने । दिल्ली में रिज की पहाड़ी के दृश्य वाला ऐसा सुंदर घर रहने के लिए मिल जाय और आंगन से सटा हुआ कार्यस्थल, फूलोँवृक्षों से भरा महकता शांत सुंदर परिवेश तो भला कौन न इसके लिए तिहुं लोकों का मोह न त्याग देगा ! लेकिन फिर भी कलपन है कि मिटती ही नहीं थी ।
घर-गिरस्ती भी सुंदर । मतलब जीवन और अध्यापन का कोई ऐसा आनंद नहीं जो उन्हें वहां उपलब्ध नहीं । एक लिखने-पढ़ने वाले व्यक्ति को इससे बेहतर जीवन और सुकून कहां मिल सकता है । एक अध्यापक के रूप में आप नियमित कक्षाएं लें, सप्ताह के एक-दो दिन विश्वविद्यालय के विभाग में जाकर भी पढ़ा दें । कैंपस में रहने के कारण न समय की बर्बादी, न भागदौड़ । बाकी सारा समय पढ़ने, शोध करने और लिखने को ।
लेकिन उन्हें जब भी देखा बहुत उदास और हताश देखा । हमेशा एक ही शिकवा कि देखो कैसे-कैसे लोग विभागों में प्रोफैसर बने हुए हैं और हम यहां पड़े हैं । हालांकि बाद में चलकर तो कालेजों में भी लोग रीडर और प्रोफैसर बनने लगे । लेकिन उन्हें भयंकर असंतोष कि हम विभाग में नहीं पहुंचे, कहीं के विभागाध्यक्ष नहीं बने । तो जब भी जहां कोई अवसर मिले वे इंटर्व्यू देने पहुंच जायं । कई बार बाहर बन भी गए पर वहां जाकर देखें तो असंतोष हो और लौट आएं । उन्हें लगता कि दिल्ली का विभाग ही सब दुखों का अंत है ।
आखिर उनकी नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के विभाग में हो ही गई । अब तो उन्हें विश्वास हो गया कि अब बस विभागाध्यक्ष बनेंगे ही । लेकिन जब नंबर आया तो पता चला कि उनकी नहीं उनके साथ जिस शिष्य की नियुक्ति हुई थी उस पैनल में शिष्य का नाम उनसे ऊपर था इसलिए वह बनेगा । इतना हाहाकार उनमें मचा कि जैसे जीवन नष्ट हो गया हो ।
ऐसा ही एक दूसरा उदाहरण एक और प्रोफैसर का था जो संयोग से रिजर्व श्रेणी में आते थे । विभागाध्यक्ष बनने के क्रम में जो औपचारिकताएं होती हैं उनमें विश्वविद्यालय प्रशासन को देरी करते देख उन्होंने इतना शोर मचाया कि देखो भेदभाव हो रहा है । आखिर उन्हें पत्र मिलना था तो मिल ही गया लेकिन इस बीच में उसे लेकर जो चिल्ल-पौं मची उससे लगा कि यह पद शायद दुनिया की सबसे काम्य वस्तु है ।
आखिर यह मानसिकता कैसे पनपी ! विभागाध्यक्ष की सत्ता का इतना विकेंद्रीकरण हो जाने के बाद भी वह कौन सी सत्ता और अधिकार हैं जिसके लिए इतनी कामना और ललक आज के जमाने में भी बनी हुई है ! इसे समझने के लिए उस काल में जाना होगा जब डॉ. नगेंद्र दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफैसर हैड थे और देश के तमाम हिंदी विभागों और हिंदी से जुड़ी अन्य तमाम संस्थाओं और संस्थानों में उनका डंका बजता था ।औन्होंने जिस सामंत की तरह विभाग को चलाया और पूरे हिंदी जगत में अपना रुतबा कायम किया, आज भी शायद लोगों के मन में विभागाध्यक्ष की वही छवि है कि विभाग एक मनसबदारी है और विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर बैठ वे भी मनसबदार बन जाएंगे ।
विभागों का आविर्भाव तो अलग-अलग समयों में ही हुआ होगा लेकिन हमारा उनसे परिचय छठे दशक में ही हो पाया जब हमने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लिया । इस तरह लगभग ५५ – ६० बरस पहले के हिंदी विभाग । स्वाधीनता और जनतंत्र के बावजूद सामंतवाद के गढ़ । रचनात्मकता से तो उनका रिश्ता आज भी तीन-छः का है लेकिन मदांध मूढ़ता और आतंक का जो माहौल उस जमाने में था उसकी सहज कल्पना मुश्किल है । उनके मुख्य सरोकार थे संस्कृत साहित्यशास्त्र के सिद्धांतों का अपने हिसाब से उल्था करना और उन्हीं में कुछ हास्यास्पद निजी व्याख्या जोड़ स्वयं को उस परंपरा के आचार्यों की पांत में प्रतिष्ठित कर लेना । यह और बात है कि उनमें से अधिकांश का न तो साहित्यशास्त्र की प्रणालियों और पद्धतियों का कोई अध्ययन होता था और न संस्कृत पर ही कोई अधिकार ।
अपनी इन साहित्यिक मान्यताओं के आधार पर कई बार वे समकालीन रचना में भी तलवार भांजने उतरते थे और प्रायः उन कसौटियों पर ही उसे खारिज कर आनंदित होते थे । रामचंद्र शुक्ल या हजारी प्रसाद द्विवेदी कुछेक अपवाद रहे हो सकते हैं ।
इन विभागों में साम्राज्य और शक्ति के हिसाब से तय होता था कि कौन सामंत सम्राट का दर्जा पाएगा और कौन उसके मातहत सलाहकार, सिपहसालार, मनसबदार वगैरह होंगे । अब परंपरागत रूप से तो हिंदी के हृदयदेश में पड़ने वाले पटना, वाराणसी, प्रयाग, लखनऊ, भोपाल, जयपुर के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों और उनके अध्यक्षों को यह उच्च गौरव मिलना चाहिए था । विद्वता के हिसाब से आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे महारथी उसके अधिकारी होने चाहिए थे ।
लेकिन ये विश्वविद्यालय तो कब के अपना गौरव खो चुके थे । आजादी के बाद जिस तरह देश के तमाम साधन, शक्ति और सुअवसर खिसक कर राजधानी में सिमटते जा रहे थे उसी तरह की स्थिति अकादमिक क्षेत्र में भी थी । दिल्ली विश्वविद्यालय की शक्ति दिनोँ-दिन बढ़ती जा रही थी । जिस विश्वविद्यालय के अंतर्गत एक ही शहर में पचास से अधिक कालेज हों और छ:-सात हजार से ज्यादा अध्यापक, उसका रुतबा बड़ा होगा ही । अकेले हिंदी के अध्यक्ष के तहत सात सौ अध्यापक जहां काम करते हों और वह हर साल दर्जनों नए प्राध्यापकों, रीडरों, प्रोफैसरों की नियुक्ति का फैसला करता हो, उसकी शक्ति की अवहेलना कौन करेगा । वह न केवल भरोसे के और अनुकर्ताओं का जीवन बना सकता था , गर्दिश में पड़े महानुभावों की नैय्या पार लगा सकता था बल्कि कुपित होने पर योग्य लोगों का भविष्य बिगाड़ भी सकता था । हिंदी के प्रकाशक उसके आगे-पीछे घूमते, सरकार की तमाम संस्थाएं उसकी सलाह का सम्मान करतीं । कहां तक गिनाऊं उस सत्ता की शक्ति का विस्तार ।
सो ऐसा था साठ के दशक का दिल्ली विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग और उसका साम्राज्य और इतनी थी उसके पास शक्ति । देश के तमाम हिंदी विभाग इस शक्ति को नमन करते ।
जिस जमाने की यह बात है उस समय इस साम्राज्य के शीर्ष पर थे हिंदी के गण्यमान्य पूजनीय आलोचक प्रवर डॉ. नगेंद्र । वे विभागाध्यक्ष थे, काव्यशास्त्र के प्रकांड पंडित थे, साहित्य के मर्मज्ञ थे और कृपालु थे ।
वे कैसे इस शीर्ष पर पहुंचे इसके भी कई किस्से सत्ता के गलियारों में मशहूर थे ।
बड़े लोगों कि हर बात ही निराली होती है । वे हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी एम.ए. थे ॥ जब वे पहले-पहल दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए तो हिंदी के नहीं अंग्रेजी के और एक ऐसे कालेज में जो कामर्स पढ़ाने में विशेषज्ञ था और भाषाओं की पढाई वहां बस सहायक विषय के रूप में होती थी ।
फिर कुछ ऐसा हुआ कि राष्ट्रकवि की मार्फत, राष्ट्रपति की मार्फत दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सीधे प्रोफैसर और विभागाध्यक्ष । जो भी हो, तत्व की बात यह कि वे रातोँ-रात अंग्रेजी सहायक विषय के एक मामूली से अध्यापक से देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शीर्ष पर पहुंच गए । और जैसे अज्ञेय जी की प्रशंसा में यह कहना अच्छा लगता है कि वे विज्ञान के विद्यार्थी रहे, अंग्रेजी के एम.ए. और जीवन में क्रांतिकारी तथा सैनिक उसी तरह नगेंद्र जी के हिंदी प्रोफैसर और विभागाध्यक्ष होने पर यह बात कितनी गौरवशाली लगने लगती है वे प्रारंभ में अंग्रेजी के अध्यापक थे । इस तरह की पृष्ठभूमियों से यह अहसास होने लगता है कि इन महानुभावों ने हिंदी को अपनाकर जैसे उसे कृतार्थ कर दिया । इससे हिंदी में पसरा दास्य भाव कुछ और मजबूत होता है ।
खैर, इन पेचीदा और गुप्त प्रक्रियाओं में जाना हमारा मकसद नहीं । उद्देश्य यह बताना है कि जिस समय का किस्सा बयान किया जा रहा है उस समय हिंदी जगत में डॉ. नगेंद्र का सितारा बुलंदी पर था । उनकी कृपा से पंगु गिरि लांघ जाते थे, भृकुटी टेढ़ी होने पर अच्छे-अच्छों के आसन डोल जाते थे ।
नाटे कद और मामूली व्यक्तित्व के बावजूद सिल्क के कुर्ते और धोती में गरिमा का हाल यह था कि उसकी आंच से आसपास के लोग चौंधिया जाते । पदचाप में कुछ ऐसा जोर कि धरती का कंपन दूर से सुनाई पड़ता । वे चलते भी हर कदम पर जोर देते हुए थे आगे को झुककर । उस जमाने में नियुक्तियों के लिए बनाई चयन-समितियों में उनका निर्णय ही अंतिम होता और नियुक्तियों के लिए वे भारत भर के विश्वविद्यालयों और संस्थानों में बुलाए जाते । उनको कुपित करने का अर्थ था हिंदी में अपने भविष्य का सत्यानाश करना । जिन्होंने वह जमाना देखा है वे गवाही देंगे ।
इसका एक उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा । वाराणसी जैसे ख्यात हिंदी विभाग से आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे प्रकांड पंडित से शिक्षा पाए उनके परमप्रिय शिष्य नामवर सिंह को हिंदी की इस दूसरी परंपरा पर कुछ ज्यादा ही घमंड हो गया कि दिल्ली दरबार में सजदा नहीं किया । कुछ प्रगतिशील विचार और आंदोलन का नशा, कुछ राजपूती आन-बान-शान ।
आ. द्विवेदी परिवार के कितने ही सदस्य और शिष्य अपनी योग्यता और नगेंद्र की कृपा के आधार पर दिल्ली विश्वविद्यालय में बेरोकटोक भर्ती होते आए थे । बनारस से निकाले जाने पर स्वयं आ. द्विवेदी को नगेंद्र जी ने चंडीगढ़ में ठिकाना दिलाया था । लेकिन अपने साहित्य ज्ञान के अभिमान और राजपूती आन के चलते नामवर सिंह उनकी नजरों में किरक गए । वैसे भी कहते हैं एक म्यान में दो तलवारें या एक जंगल में दो शेर भला कैसे रह सकते हैं ।
फिर कितने ही बरसों नामवर जी बेरोजगार और आर्थिक मुसीबत झेलते दिल्ली में रहे, यहां के साहित्यिक हलकों में छाए रहे लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं पा सके । यह तो बाद में वाया भटिंडा फिर दिल्ली पहुंचे जब नगेंद्र का सूर्य अस्त हो चुका था ।
यह थी नगेंद्र की शान ।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कालेज में बी.ए. आनर्स के छात्र के रूप में हमने इस सबके बारे में सुना था और स्वयं देखा भी था । उस समय हिंदू कालेज के हिंदी विभाग में दो बड़ी विभूतियां थीं – एक पालि भाषा और बौद्ध दर्शन और साहित्य, नाथ साहित्य के जाने-माने विद्वान डॉ. भरत सिंह उपाध्याय और दूसरे आ. रामचंद्र शुक्ल के प्रिय शिष्य और आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास समेत कई उच्च कोटि की पुस्तकों के लेखक पं. कृष्ण शंकर शुक्ल । उनके जैसे अध्यापक हिंदी के केंद्रीय विभाग में नहीं थे । लेकिन ये दोनों कालेज से ही सेवामुक्त हुए जबकि विश्वविद्यालय विभाग में संबंधों, शिष्यत्व, सेवा-परायणता तथा अन्य गोपनीय आधारों पर धड़ाधड़ रीडरों, प्रोफैसरों की नियुक्तियां होती रहीं । सब देखते थे पर बोलते नहीं थे ।
एम.ए. कक्षाओं में जब हम कला-संकाय पहुंचे तो वहां बहुत कुछ अपनी आंखों देखा । वैसा आतंक, अत्याचार, अनाचार, अनियमितता अकल्पनीय थे लेकिन किस में हिम्मत थी कि जबान खोल सके । जिसने थोड़ी हिम्मत दिखाई समझो वह मारा गया । ऐसे कितने ही मारे गए शहीदों और असफल विद्रोहियों के किस्से कानाफूसियों में प्रचलित थे, जिनमें आज कई तो जाने-माने हिंदी के लेखक हैं ।
एम.ए. के इन दो वर्षों में हमने हिंदी विभाग की वास्तविक स्थितियों का जायजा लिया, विश्वविद्यालय के सींखचों से बाहर खुले में हो रही रचनात्मक गतिविधियों, बहसों में हिस्सा लिया, नए रचनाकारों से परिचय किया, कुछ घायल सेनानियों या असफल विद्रोहियों से संपर्क किया तथा विश्वविद्यालय में मौजूद जनतांत्रिक, प्रगतिशील, वामपंथी शक्तियों से संबंध स्थापित किया । इस बीच में विभागाध्यक्ष की तानाशाही और मनमानियों की इतनी लंबी फेहरिस्त बनती गई कि चुप बैठना असंभव हो गया ।
और आज से ठीक ५४ बरस पहले इस शक्ति केंद्र के गढ़ पर पहली तोप दागी गई । इस विद्रोह का सेनापति होने के साथ-साथ संयोजक होने के कारण हमें यह अच्छी तरह मालूम था कि हम सबका भविष्य दांव पर लगा है । लेकिन यह संघर्ष व्यक्तिगत कैरियर की चिंताओं को छोड़ चलाया गया था और धीरे-धीरे बड़े जनतांत्रिक मूल्यों के संघर्ष से जुड़ गया था । विश्वविद्यालय की तमाम बिखरी प्रगतिशील शक्तियों को इस विद्रोह ने एक मंच पर ला दिया और आंदोलन की जबरदस्त लहर चल पड़ी ।
तोप दग गई तो दोनों ओर की सेनाएं भी आगे बढ़ीं । एक नए शोध की शुरूआत हुई । तानाशाह के तमाम काले कारनामों के तथ्य खोले गए और ऐसी कितनी ही बातें सामने आईं जो अकथनीय थीं । उन्हें आरोप-पत्र के रूप में प्रकाशित कराया गया और विश्वविद्यालय अधिकारियों समेत देश के तमाम विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों, लेखकों, पत्रकारों को भेजा गया जिसमें डॉ. नगेंद्र के खिलाफ उच्च स्तरीय जांच की मांग की गई । और फिर डॉ. नगेंद्र से कहा गया कि वे विश्वविद्यालय अधिकारियों और छात्रों की उपस्थिति में इन सब आरोपों का जवाब दें ।
जैसा कि अपेक्षित था, उन्होंने न केवल छात्रों से मिलने से इंकार कर दिया बल्कि अपने समर्थकों की सभा बुलवाई जिसमें विभाग को बचाने के लिए संघर्ष का आह्वान किया गया । फिर जो होना था वही हुआ । नारेबाजी हुई, खींचातानी हुई, मारपीट हुई, नगेंद्र को पकड़कर कुर्सी पर बिठाया गया, आरोप सबके सामने पढ़े गए, जवाब न देने पर घेराव किया गया और हिंदी विभाग में हड़ताल कराई गई ।
यह सिलसिला काफी दिनों तक चला और अंततः एक दिन डॉ. नगेंद्र अध्यक्ष पद से उतारे गए । वे तो उतरे ही, विश्वविद्यालय में भी जनतांत्रिक प्रक्रियाएं शुरू हुईं, रोटेशन, स्टाफ काउंसिलों का सिलसिला शुरू हुआ । इस तरह एक तानाशाह और उसकी सत्ता का अंत हुआ ।
यहीं से हिंदी विभागों में नए दौर की शुरूआत हुई । विभागों में उन लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ी जिनके लिए अभी तक वहां प्रवेश निषिद्ध था । जनतंत्रीकरण के कारण पारी बदल की प्रक्रिया में उन लोगों को रीडर, प्रोफैसर, विभागाध्यक्ष तक बनने का अवसर मिला जो अभी तक हाशिए पर पड़े थे । मसलन विश्वंभर नाथ उपाध्याय, नामवर सिंह, रमेश कुंतल मेघ, शिवकुमार मिश्र, केदारनाथ सिंह, लल्लन राय, कुंवरपाल सिंह, काशीनाथ सिंह, आदि कितने ही नए सोच के लोग प्रोफैसर, विभागाध्यक्ष के पद पर काबिज हुए ।
इसलिए यह अपेक्षा स्वाभाविक थी कि ये लोग न केवल उन विकारों के विरुद्ध सतर्क रहेंगे जो पुरानी सत्ता का धर्म थे बल्कि उन प्रतिज्ञाओं को भी पूरा करेंगे जो इस संघर्ष के मूल में थीं । वे प्रतीज्ञाएं क्या थीं ?
१. विभाग में तमाम नियुक्तियां केवल गुणवत्ता के आधार पर होंगी जिसमें साहित्यिक समझ, रचनात्मक लेखन और जनतांत्रिक आचरण मुख्य शर्त होंगे । ये नियुक्तियां चुने हुए सदस्यों द्वारा गुप्त कमरों में नहीं खुले मंच पर लोगों की उपस्थिति में होंगी जहां किसी को भी प्रश्न पूछने का अधिकार होगा ।
२. विभाग के तमाम निर्णयों और प्रक्रियाओं में जनतांत्रिक व्यवहारों पर चला जायगा जिसमें मनमानापन, भाई-भतीजावाद, शिष्यत्व आधारित निर्णय नहीं होंगे ।
३. विभाग में महत्वपूर्ण रचनाकारों को जोड़ने के लिए कुछ चेयरों का प्रावधान किया जायगा जहां वे छात्रों से सीधे संपर्क स्थापित कर संवाद करते रह सकें और रचनात्मक कार्यक्रम चला सकें ।
और भी ऐसी तमाम बातें थीं ।
जाहिर है कि इनमें ठोस मांगें तो थी हीं कुछ आचरण की शुचिता और आदर्शवादिता भी थी जिन्हें पूरा करने के लिए इनपर विश्वास और नैतिक साहस की जरूरत थी ।
आज इन नए लोगों में से अधिकांश या तो सेवामुक्त हो चुके हैं या अब इस दुनिया में नहीं हैं । इसलिए उनके काल पर कुछ बातें की जा सकती हैं । शुरू में ही दुख के साथ यह कहना पड़ता है कि इन्होंने भी विभागों में कोई आमूल बदलाव न करके पुरानी रीतियोँ-नीतियों का ही पालन किया । वही योग्य लोगों से दुराव और भक्त लोगों को बढ़ावा, प्रतिभाओं का असम्मान, रचनात्मक माहौल बनाने में अरुचि, शिष्य-परंपरा से अपना जय-जयकार ।
इन सब चीजों को नगेंद्र जैसे धड़ल्ले से वे नहीं कर पाए तो इसलिए नहीं कि इच्छा का अभाव था बल्कि इसलिए कि उतनी शक्ति और आत्म-विश्वास नहीं रहा । उन्होंने भी मनमानेपन, उपकृतियों, भेदभाव के नए प्रतिमान बनाए । उन्होंने नगेंद्र के साम्राज्य को छोटी-छोटी मनसबदारियों में बदलने की कोशिश की ।
इन्होंने जिन विकृतियों को पनपाया आज उनका असर इन विभागों पर ही नहीं है बल्कि बाहर साहित्यिक माहौल पर भी है । मसलन गुणवत्ता की जगह शिष्यत्व और पसंद को नियुक्तियों का धार बनाने के कारण ये विभाग प्रतिभावों से शून्य होते गए । विभागों में इन शिष्यों ने जो माहौल बनाया उससे प्रतिभाशाली लोगों ने इनसे किनारा कर लिया । अपावद कुछ हो सकते हैं । बाहर के साहित्यिक माहौल को भी इस शिष्य परंपरा ने दूषित करने का हर संभव प्रयत्न किया । मतलब अपने गुरुओं (जीवित और मृत) को श्रेष्ठ घोषित कर उनकी कीर्ति को अमर करने के कार्य में जुटे रहना, उनकी पुस्तकों को पाठ्यक्रमों में लगवाना और उनके नाम पर सभा-गोष्ठियां कराना, जन्म-मरण दिनों का सिलसिला ।
इसलिए हिंदी के ये विभाग प्रतिभाहीन छोटी-छोटी मनसबदारियों में पुनः बदल गए जहां जीवित लोगों से अधिक छाया और प्रेतों का साम्राज्य रहने लगा ।