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Lahak Digital > Blog > Literature > अजित कुमार राय की कविताएं
Literature

अजित कुमार राय की कविताएं

admin
Last updated: 2025/11/21 at 2:42 PM
admin
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20 Min Read
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लोक पर्व छठ

सूरज की किरणें भेद नहीं करतीं —-
पावन – अपावन में,
अभिजात और अपवर्ग में।
जल पर भी नहीं लिखा जा सकता
अपना नाम मोटे अक्षरों में।
जल के दर्पण में
सूरज संवारता है अपना चेहरा
और रेखांकित करता है,
सरिता के सौन्दर्य को।
बिना किसी पुरोहित के
समष्टि होती है सम्मुखीन सूर्य के।
डूबते सूरज को भी अर्घ्य देते हैं लोग।
यहाँ कोई सर्वहारा नहीं।
यहाँ स्त्रियाँ स्वाधीनता का स्वाद चखती हैं,
सरेआम वस्त्र बदलती हुई,
ईख – वन की छांव में,
फलों को सहेजती हुई।
बिहार के बाढ़ का सुनहला पानी
फैल गया है समूचे विश्व में।
जल की चादर पर तैरते दीयों की
स्वर्णिम पंक्ति से जगमगाता रवि का प्रभामंडल।
लोक चेतना सूर्य षष्ठी को
स्वीकार करती है डाला छठ के रूप में।
ओ सुरुजमल!
वैज्ञानिक युग में जैसे तुम विराट हो गए,
ठीक वैसे ही छठ पर्व भी
पा गया वृहत्तर व्याप्ति।
इस पर्यावरण – संकट के समय में
प्रकृति की उपासना कितनी वांछनीय है!
पर्व हमें ही नहीं बदलते,
हम भी पर्वों के स्वरूप को बदल देते हैं।
कविता भी तो एक अक्षर पर्व है!

Contents
लोक पर्व छठपुनरावर्तनअस्तित्व की प्रज्ञाअलविदा उस्ताद!ओढ़ि के मैली कीन्हिं चदरियानैशाभासबनन में, बागन में बगर् यो बसन्त हैनिरभ्र आकाश के वक्ष परआ रहा हूँलेखक –परिचय ——-

पुनरावर्तन

कई – कई बार मेरा नया जन्म हुआ है,
बदला हूँ हर बार एक नये प्रारूप में
एक मध्यान्तर के बाद।
किन्तु मैं वही अजित अनवद्य ,
कूटस्थ निर्विकार चेतना हूँ।
अब जब एक नया परिच्छेद जुड़े जीवन में,
‘मरा’ राम बन जाए और
उपसंहार किसी नई प्रस्तावना की भूमिका रचे।
मेरे नये संस्करण में
जीवन बन जाए एक महाकाव्य,
और विग्रह समास चिह्न बन जाए,
कि पीत परिधान प्रतीक बन जाए
उस चक्रपाणि पीताम्बर का,
और संस्कारों का गृहकूट
विश्रृंखलित हो जाए किसी बोधिवृक्ष की छाया में।
यह कागजी जन्म दिन
मुक्त करे कागज पर लिखे हुए
अनुभव के अभिलेखों से
और सारी इन्द्रियाँ आंख बन जाएं।
ध्यान की रोशनी में जल जाए
मनोविकारों की बस्ती।
योगनिद्रा में सपने से जागकर
देख सकूँ बड़ा सपना देश और समाज के लिए।
चल सकूँ लीक छोड़ कर हर लीग की।
बाथरूम सिंगिंग से ऊपर उठकर
गा सकूँ प्रेम का गीत,
जो बिना ध्वनि विस्तारक यंत्र के
पहुँच सके पुरी के अन्त:पुर में।
उस मेघालय के मेघहीन फुहार में
भींग सके लोक चेतना।
और देह की आत्मा
रससिक्त होकर विदेह हो उठे।
गिरा सनयन और नेत्र सवाक् हो उठें।
इस प्रकार कविता में मैं जप सकूँ
महामृत्युंजय मंत्र —
कि शब्द से जा सकूँ
अन्ततः नि:शब्द में।
अपने को खाली कर सकूँ
कि आ सकें राम मेरे पर्णकुटी में।

( मेरे टाइम लाइन पर सैनिकों शुभैषी मनीषियों ने जन्म दिन की भाव सिक्त आत्मीय बधाइयाँ दी हैं। उन्हें हृदय की तलस्पर्शी गहराइयों से धन्यवाद। सादर अभिवादन। )

अस्तित्व की प्रज्ञा

सूरज के संलयन-प्रसंग में
हजारों मील
ऊँची उठती लपटों को
कौन निर्दिष्ट
करता है ?
वह कौन सा अभिकेन्द्र बल है
जो ग्रहों की गतिशीलता में जीवन
को स्थिर करता है ?
हमारे भीतर के गुरुत्वाकर्षण
को धरती और चाँद पर
आरोपित करता हुआ ।
वह कौन है
जो ब्रह्माण्डों को बनाता-बिगाड़ता हुआ भी
दोनों हाथों से थामे हुए है ?
आकाश गंगाओं से फूटते
सृष्टि के नाभि-कमल का
उत्फुल्ल सौन्दर्य
अन्ततः किस ‘ब्लैकहोल’ में
समा जाता है ?
जीवन का उद्गम कहाँ है ?
क्या है मृत्यु और जीवन के बीच
का अन्तराल ?
वह कौन है जो समय को
दिन और रात में बाँटता है ?
उस घड़ी की सुई
कहाँ है ?
वह ‘सुपर कम्प्यूटर’ कहाँ है
जिसकी ‘स्मृति’ में दबे
पड़े हैं मन्वन्तरों के इतिहास
जीवाश्म बनकर ?
वह
कौन सा विश्वगुरु है
जो इलेक्ट्राॅन से लेकर धरती तक
को अपनी कक्षा में अनुशासित करता है ?
उसकी धुरी कहीं आकाश में है |
उस ऊर्जा का नाम क्या है
जो बल्ब में रोशनी बनकर चमकती है
और
अंधी आँखों में ‘अदर्शन’ की शक्ति ?
उस
पावर हाउस का नाम क्या है ?
परमाणु में विराट को ध्वस्त करने
की
वह कौन सी शक्ति है
जो भूगर्भ-
प्लेटों को खिसकाती रहती है ?
मनुष्य के
छोटे हाथों में मीलों लम्बी ट्रेनों
और विराट
जलपोतों को थामे हुए
वह कौन है जो
हमारी अदृश्य यात्राओं का साक्षी है
और
देखता रहता है
हमारे भीतर
देखने के अन्तर्विरोध को ?
उस रिमोट-कन्ट्रोल का नाम क्या है
जो क्वांटम थियरी से
लेकर ऊर्जा रूपान्तरण, आघूर्णन, गुरुत्वाकर्षण और प्लावन-बल के
अन्तर्निहित नियमों में विचलन बर्दाश्त नहीं करता ?
क्या उस अप्रदूषित,
नैतिक केन्द्र का नाम ही
सत्य
या ईश्वर है ?
जीवन और जगत को
अपनी आत्मा में भोगने की कला
यदि अध्यात्म
है
तो
आत्मा का बाह्य विस्फोट ही विज्ञान है ।
विज्ञान चामत्कारिक ज्ञान की
सार्वजनिक अभिव्यक्ति है ।
विज्ञान यदि ज्ञान की खोज है
तो अध्यात्म उस
‘ज्ञानी’ की तलाश ।
विज्ञान यदि मानवता का पैर है
तो अध्यात्म उसकी वह आँख है
जो सारे धर्मों की आत्मा है,
जो सारे धर्मों के अधर्म
की साक्षी है
और यथार्थ के
पीछे का यथार्थ ।
वह कौन सा पदार्थ है
जो डोपामाइन या आक्सीटोन के बिन्दुपथ को पारकर त्वचा के
स्पर्श में अहसास बनकर तैरता है ?
वह कौन सा रसायन है जो
पत्ती में हरीतिमा और किसलय में
लालिमा बनकर उतरता है ?
पदार्थ या शरीर
की भी एक आत्मा होती है ।
जब हम अमेरिका में बैठे किसी मित्र से फोन पर कोई
गोपनीय बात कर रहे होते हैं
तो उसके नेपथ्य में वे
कौन से कान हैं
जो हमारी ध्वनि-तरंगों को पकड़ते हैं ?
प्रकृति इतनी संवेदनशील है
और मनुष्य
जो उसकी श्रेष्ठतम कृति है,
जो देवताओं को विस्थापित
कर
और महाप्रलय को लांघकर
पहुँचा है यहाँ तक
इतना असंवेदनशील क्यों ?
उस महा-चैतन्य का नाम क्या है
जो ‘महाभारत’ से लेकर
विश्वयुद्धों तक का सूत्रधार है ?
किन्तु जो स्वामी के
पक्ष में लड़ते रक्तरंजित सैनिकों की तड़प से, कराह से
आन्दोलित नहीं होता,
अत्याचारों को सहता रहता है
देरतक ।
निरन्तर बड़े हो रहे
रावण के सामने आने में इतना विलम्ब
क्यों ?
रावण के विस्तार और विनाश के बीच का
व्यापक ‘काल’ ही तो विष्णु है !
ओ समाधिस्थ शिव !
मायावी दशानन अब सहस्रानन हो गया है,
छा गया है
पूरा आकाश
उसकी प्रतिच्छवियों से ।
ओ राघवेन्द्र !
कब आओगे मनुष्य के भीतर संवेदना बनकर ? जैसे
बुद्ध ने मारा अंगुलिमाल को …
किन्तु हे ‘करुणानिधि’ सावधान !
आज
तुम्हारा ‘नाम’ तुम्हारे ‘रूप’ के खिलाफ खड़ा है और
टूट चुके हैं सारे अनुबन्ध ।
सेतुबन्ध भी अंतिम साँस ले
रहा है ।
रिश्तों में दरारें बढ़ती जा रही हैं ।
‘योग’ अब जोड़ता नहीं, तोड़ता है ।
शब्द और ‘अर्थ’
के इस द्वन्द्व में राष्ट्र से बड़ा हो गया है ‘महाराष्ट्र’ ।
स्मृति और इतिहास की संधि-रेखा पर
पड़ी गांधी की लाश कौन उठाए ?
‘राजघाट’ पर बार-बार दफनाई जाती है
गांधी की लाश ।
कब होगा हमारे भीतर
उनका पुनर्जन्म !

अलविदा उस्ताद!

इतना सन्नाटा क्यों है!
क्यों है इतनी नीरवता?
तबले की थाप थम गई!
थम गई वह सदियों की अनुगूँज।
तबला उनके साथ सांस लेता था।
उनके सांस की लय टूट गई।
जिनके जन्म के समय पिता ने
कानों में अजान के स्वर नहीं,
सांगीतिक लय प्रवाहित किया था।
जो बहती रही उनकी उंगलियों में जीवन भर।
मैं सेन फ्रांसिस्को से याद करता हूँ,
संकट मोचन को।
जिनकी लाल – पीली, नीली,
सपनीली रोशनी में बैठ कर
देश – विदेश के हाईटेक मंचों पर
तीन तबलों पर थिरकती थीं
जग जाहिर जाकिर हुसैन की उंगलियाँ।
जैसे लावा – फरही फूटती हो तबले पर।
जैसे कोई जगमग जादुई यथार्थ।
जो तबले पर नाचते नहीं,
नचाते थे तबले को।
कभी कसते हुए स्वर – बंध,
कभी गिरते माइक को उठाते हुए भी
नहीं गिरने दिया स्वर – संगति को।
कभी एकल वादन तो कभी
किसी राकेश चौरसिया के साथ,
या किशन महाराज या बिरजू महाराज के साथ।
या फिर हरिप्रसाद चौरसिया के साथ
बांसुरी – वादन की संगत में।
ध्वनि – तरंगों के संघात और संश्लेष से
तबले से कभी डमरू की आवाज निकालते
तो कभी शंखनाद,
कभी घोड़े की टाप की टप् – टप्!
संगीत के वे सिद्धपीठ थे।
उस विश्व के महानतम कलाकार के भीतर का
बच्चा कभी नहीं मरा।
दूर के ढोल तो सुहावने होते हैं,
किन्तु तबला नजदीक का भी।
नये मुहावरे गढ़े जाकिर ने संगीत के।
तबले को सरोद और संतूर की भांति कोमल बना दिया।
पंजाब घराने की बंदिश से बाहर निकल गए।
कहाँ चले गए उस्ताद दूर देश?
शायद भीमसेन जोशी, बिस्मिल्ला ख़ाँ,
हरिप्रसाद चौरसिया और कुमार गन्धर्व की पंक्ति में।
हे अमर स्वर!
मेरे कंठ में उतर जाओ।
ताकि मैं दीपक राग गा लूं,
इस निविड़ तमिस्रा को चीरने के लिए।

ओढ़ि के मैली कीन्हिं चदरिया

चपला चमकी
और पथ आलोकित हुआ कुछ दूर तक।
मैं चल पड़ा जीवन में अर्थ भरने,
युद्धों की रोशनी में
शान्ति के आशय की तलाश की तलाश —–
तलवारों की नोंक से आलिखित
इतिहास का साम्यवाद!
साधारण परिवार में जन्मा गाँव में,
उसमें असाधारण लालित्य था।
परा वैज्ञानिक दृष्टि
जीवन के पिछले परिच्छेद से जुड़ती थी।
आध्यात्मिक अनुभव के कस्तूरी – गंध पर
कोटि कोटि काव्य – संग्रह न्यौछावर होते हैं।
अब जब गिलास आधी खाली हो गई है,
पीछे मुड़कर देखता हूँ।
कांटों में खिला गुलाब
कांटों का ताज पहन कर मलिन हो गया।
पड़ गई उस पर बाजार की धूल।
प्रिंसिपुल आहत हुआ
प्रिंसिपल बनने के बाद।
बचपन में चूसते थे —
देसी रसीले मिश्रियवा आम ।
अब सिंदूरी आम का स्वाद चला गया।
अब तो साहित्य में फास्ट फूड का जमाना है।
कई बार मृत्यु के अंधेरे से गुजरा हूँ,
महामृत्युंजय मंत्र का जाप करता हुआ।
कई बार तांत्रिकों के अद्भुत चमत्कार देखे हैं,
अपनी वैज्ञानिक आंखों से।
शालीनता के संघर्ष का सूत्र मेरा बीज मंत्र था।
ईमानदारी मुझ गरीब की पूंजी थी।
सांस्कृतिक शील के विखंडन का प्रतिरोध
मेरा ध्येय वाक्य बन गया।
अच्छी कविता के पक्ष में मतदान किया।
साहित्य की राजनीति और
साहित्यिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनशन किया
और आत्म – निर्वासन झेला।
लेखन की दौड़ में खरगोश की तरह
दशकों का अल्प विराम लेता रहा।
जन्म भूमि की रंगबाजी को
रंगोत्सव में बदलने की लगन!
सृजन मेरी साधना है, शौक नहीं।
मुझमें सत् भी है और असत् भी,
किन्तु कंचन को क्रीट नहीं बनाया,
मणि को खड़ाऊं में जड़ दिया।
अर्द्ध सत्य के एजेंडे को
फुटबॉल की तरह उछाल दिया
और छिन्नमूल वैचारिकी के बजाय
देशी प्रज्ञा के आनुवंशिक उत्तराधिकार को
स्वीकार किया।
पिया है मातृभाषा का दूध।
मैंने क्रोध के सात्विक और तामसी
दोनों रूपों को भोगा है।
इश्क मजाजी से इश्क हकीकी तक की अंतर्यात्रा में
अपने अहंकार को अंतर्यामी का रूप देने की उद्यमिता!
अब जब छप्पनवें वसंत में प्रवेश कर रहा हूँ,
चाहता हूँ कि मेरे भीतर
एक नये मनुष्य का जन्म हो,
जिसमें बाल रवि की लालिमा हो,
जो आकाश के वृक्ष का एक रक्त किसलय
बनकर मुस्कराए भौंहों में।

नैशाभास

सुन चरण – चाप की
मंद मंद झंकार मधुर,
ज्योत्स्ना सी गोरी, गात स्निग्ध
शशिमुखी शुभ्रवसना के,
वायस – समूह ने
श्रवण खड़े कर लिए चौंक,
चंचलीभूत —–
उत्तुंग वेणु – वन बीच
लगे कोलाहल करने —
कांव – कांव।

राजनीति का रेखाचित्र ——-
राजकन्या के चमकते चेहरे पर
डुमसा के खास चिह्न उभर आए हैं।
शायद यह उसके
यौवनागम की सूचना है।
अब उसे अवगुंठन जरूरी है,
ताकि उस वांछित विलास – वनिता के मधुपायी प्रार्थी
उसके भ्रष्ट मुख ‘मण्डल’ को न निहार सकें।
उनकी दृष्टि तो
बाला के नीलांचल में निहित
कनक – जाल पर टिकी है।

( प्रथम काव्य – संग्रह —– “आस्था अभी शेष है” से)
जो नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी से प्रकाशित है
लगभग तीन दशक पहले।

बनन में, बागन में बगर् यो बसन्त है

संध्या उतर रही है उपवन के ,
सुनहली धूप रंगती है  आंखों को ,
पीली रोशनी मे नहाए पंछी
रेखांकित करते हैं नील निलय के रक्ताभ विस्तार को
नीडो को लौटते विहग – कूजन के सिरहाने
शाख पर बैठकर मैं
कोयल की तरह गीत गाता हूं
पतझड़ इतना मादक वसंत मे ही हो सकता है
फाल्गुनी हवाए फुसफुसाती है कान में ,
बाबा देवर क्यों लगते हैं ?
फागुन बीत जाने पर भी
आम बौराए क्यों  हैं ?
पेड़ रंगों से नहाए क्यों है ?
रसाल की हेम मंजरियो का मुकुट धारे
पर्ण – कालीन पर पग धरता आता ऋतुराज
संलक्ष्य है कुन्जो के पत्र – संजाल के उजले रंध्रो से
आम्र वन मे झौर – झौर लथरे बौर ललछौहे
गाँव की गोरी के गदराए यौवन
का पता बता देते हैं
इस छायातप नीरवता मे
मंजरियों का मादक रंग
छूटकर लग जाता है ऑखो मे |
शाखों मे लटका हुआ हू अब तक
रम्यता की ऋचाए बांचता |

निरभ्र आकाश के वक्ष पर

उद्भासित हो उठे नील नीरद ,
सरकते रुई के पहाड़ जैसे ।
मन को थोड़ा मसृण बनाते
नील फलक पर तैरती बग माला
झील के नील नयन में
धवलिमा रचती है , उस पार की ।
केकी वन में नीलकंठी निनाद से
सरकते हैं भीतर के भुजंग ,
और हवाएँ लाती हैं पानी का संदेश ।
मन के मरकत दर्पण में
परावर्तित खेतों का उजलापन ,
शब्दों की नमीं
और बूँदों का बिन्दुपथ ।
झरती झींसी के बीच
मेज से चाय के खाली कप हटाते हाथ
अदृष्ट का उल्लसित वरदान ही तो हैं ।
बहुत दिनों बाद आया दुर्दिन ,
या कि अच्छे दिन रम्य वीक्षण के ।
देखते – देखते रात घिर आई ।
दादुरों के वेदपाठ
और झींगुरों की झन – झन से
नीरवता मुखरित होती ।
और मैं लिखता हूँ —-
सन्नाटे के शिलालेख को तोड़ती कविताएँ ।
हंस और पांचजन्य के बीचोंबीच
गुजर जाने वाली
सच की सुनहली रेखा की तरह ।
बरसात में ईंधन और राशन की
कमी को केन्द्र में रखकर
पावस को कोसते
साहित्य के प्रधान सचिव से मैंने पूछा —-
सुबह – सुबह
तरु शिखरों पर आरेखित
सिन्दूर रेख क्यों मिटा रहे हैं ?
वे बोले —–
नहीं – नहीं ,
मैं सौन्दर्य के परमाणु अप्रसार संधि पर
हस्ताक्षर कर रहा हूँ ।

आ रहा हूँ

उस मिथक को तोड़ने मैं आ रहा हूँ ।
समर में अदृश्य रहकर युद्धरत यह चीन है ,
मत्स्य कुल का रक्तपायी सागरिक यह मीन है ।
चीन – चिंता की लकीरें घाटियों में दिख रही हैं ,
नियति नक्शे में कहीं विप्लव सरीखा लिख रही है ।
शब्दभेदी बाण से इस दृश्य का रुख
मोड़ने मैं आ रहा हूँ ।

यह नहीं गलवान घाटी , कह इसे ढलवान घाटी ,
जहाँ फिसले हिन्द सैनिक , बहुत रपटीली है माटी ।
पवन पुत्र छलांग ले लो , असुर से कुछ देर खेलो ,
घुस अघासुर के उदर में कृष्ण कुछ विस्तार ले लो ।
अग्निक्षेपी कालिया के सहस फन को
फोड़ने मैं आ रहा हूँ ।

साम्यवादी शिल्प का चेहरा यहाँ चपटा दिखा ,
हिंस्र पूँजी की कलम से नाम लेनिन का लिखा ।
यहाँ नित प्रतिरोध की हत्या सड़क पर हो रही ,
बुद्ध बंदी हैं , मनुजता अर्थ अपना खो रही ।
बुद्ध के टूटे हृदय को जोड़ने मैं आ रहा हूँ ।

कुंभकर्णी नींद में हैं असुर की परछाइयाँ
नित्य चौड़ी हो रही हैं मित्रता की खाइयाँ ।
विश्व को रोना सिखाया रावणी खल हास ने
कस दिया दसशीश ग्रीवा स्वयं निर्मित पाश ने ।
पाप के अंतःकरण में निहित उस पीयूष घट को
हे विभीषण ! तोड़ने मैं आ रहा हूँ ।
जीतकर द्युति स्वर्ण लंका छोड़ने मैं आ रहा हूँ ।

लेखक –परिचय ——-

अजित कुमार राय,
पुत्र — श्री दीनानाथ राय
जन्म तिथि — 17/10/1967
काव्य – कृतियाँ —- आस्था अभी शेष है, रथ के धूल भरे पांव
(संपादित) — सर्जना की गंध लिपि
आलोचना कृति —- नई सदी की हिन्दी कविता का दृष्टि बोध ।

आलोचना, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, हंस, अक्षरा, साक्षात्कार, साहित्य अमृत, वीणा, पाखी, परिकथा, कथाक्रम, दोआबा, आधुनिक साहित्य, साहित्य भारती, शब्दिता, सम्मेलन पत्रिका (प्रयागराज), समीक्षा, दस्तावेज, नूतन कहानियाँ, निकट, मधुमती, इन्द्रप्रस्थ भारती, कथा समवेत, सरस्वती, संचेतना , लहक,समय सुरभि अनन्त,समकालीन सोच, अक्षर पर्व, अभिनव इमरोज आदि पत्रिकाओं
तथा जनसंदेश टाइम्स, आज, सहारा समय, दैनिक जागरण आदि समाचार – पत्रों में रचनाएँ प्रकाशित.
अनेक संकलनों में निबन्ध, कविताएँ और आलोचनाएँ प्रकाशित.
पूर्व प्रधानाचार्य — सुभाष इण्टर कालेज, नेरा, कन्नौज

पता —- विमर्श, विष्णु पुरम् कालोनी, नयी कचहरी रोड,
सरायमीरा, कन्नौज (उत्तर प्रदेश)
पिन —- 209727
मो. — 9839611435

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