1–
रद्द मुलाकात–
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रद्द मुलाकात–
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दूर रहते आत्मीय लोगों से मिलना
इसलिए भी टालती हूँ मैं
कि अक़्सर ही हमारी पहली मुलाकात
आख़िरी साबित हो जाती है
कि मैं ख़ुद को ज़र्रा-ज़र्रा बँटते देखती हूँ
हर बार एक नया दुःख मेरा सहचर बन जाता है
मेरे नितान्त एकाकी मन की भीत
इतना दबाव कैसे सहे यह भय मुझे सताता है
मैं ख़ुद को अपने खोल में समेटे रद्द करती हूँ मिलना ।
याद की मछली इतनी चपल है
कि संयम के जाल से निकल,
बह चलती है शिराओं में रक्त के आगे-आगे।
एक प्रेमिल मुलाकात
अक़्सर ही बन जाती है शत्रु
न मिलने पर चुभती है किसी कांटे की तरह
मन बुरी तरह लहूलुहान हो जाता है।
2–
इस क्रूरतम समय में – –
इस क्रूरतम समय में – –
कितनी पीड़ा से भरा है हृदय
कि प्रेम की अनुभूति भी उसे मलहम नहीं लगा पाती
कि लिखते हुए प्रेम….
थरथराता जाती हैं ऊँगलियाँ
इस क्रूरतम समय से पराजित प्रेम
इतना यातनापूर्ण हो चला है
कि इसकी स्मृति की एक ही लहर
मस्तिष्क को झिंझोड़ जाती है
और मैं एक अपराधबोध से भर उठती हूँ यकायक
कि जिस प्रेम से मेरी आत्मा
अतिरिक्त कोमलता से सुशोभित हो जाती थी
उसी को सुमिरते हुए
लज्जा आती है स्वयं पर
मानो मेरा प्रेम करना और जीना
इन विषम परिस्थितियों में एक पाप की श्रेणी में आता हो
मधुरिम मुस्कान के स्थान पर
अश्रुओं से श्रृंगार होने लगता है
और धुंधला जाती है दृष्टि!
इतना विषाक्त हो चला है परिवेश
कि जिह्वा से अपने प्रेम का नाम लेते ही
होता है देशद्रोही सा अनुभव
हा भाग्य !
घृणा, लोभ, और रक्तपात से सने इस समय में
अपने प्यार को लिखते, सोचते और स्वीकारते लगता है
जैसे देह पर हज़ारों छिपकलियां रेंगती हों
और मैं सुख और गर्व की अनुभूति के स्थान पर
घिरा पाती हूँ स्वयं को लिजलिजेपन में हर ओर!
3–
तुम आना —
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तुम आना —
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तुम आना ऐसे….!!
कि जैसे, किसान की दिन-रात की मेहनत और समर्पण के बाद
उतरता है धान की बाली में दूध
तुम आना ऐसे….!!
जैसे, कि आती है नीम पर निंबौली अपने तय समय, तय मौसम में
जैसे कि,
आते हैं उत्तर याद अचानक किसी कठिन प्रश्न के
और लिख लिया जाता है समय पूरा होने के पहले उन्हें कॉपी पर
तुम आना ऐसे…..!!
जैसे कि , ख़ूब इंतज़ार के बाद आता है परीक्षा का परिणाम
तुम आना ऐसे ….!!
जैसे, ख़ुशी में बरबस आ जाते हैं आँसू आँखों में
तुम ठीक ऐसे ही आना
जैसे, माँ की गोद में जाते ही
आ जाती है निंदिया बालक की सपनीली आँखों में
तुम ऐसे आना….!!
जैसे, अचानक आ जाती है किसी प्रिय की चिट्ठी और हम मुस्कुरा उठते हैं
मेरी मृत्यु……!!
तुम आना ऐसे…..!!
जैसे, आता है पहला प्यार जीवन में
जिसके आने के बाद नहीं होती कुछ और पाने की कोई इच्छा शेष।
4–
बिखरा शिल्प –
बिखरा शिल्प –
एक व्यंजना के प्रहसन पर
छन्न से टूट गया है बिम्ब
छूट गया है अर्थ का मर्म व्यंग्य के संधान से
अँधियारे में जगमगाते प्रतीक
शनैः-शनैः पड़ते जा रहे हैं मद्धम
दरक गयी है लयात्मकता
बिखर गया है शिल्प
मौन हो चला है अतिशय मुखरित
ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग अतिश्योक्ति से अधिक कुछ नहीं प्रतीत होता
रूठ कर फेर चुकी है शैली मुख
कविता की पीठ पर उभर आए हैं
आलोचना के फफोले।
5–
मावठ में —
मावठ में —
जानते हो कितनी उदास बीती मावठ?
देह की ठिठुरन पर मन की दहक कितनी हावी रही हर क्षण?
कितने बेस्वाद रहे व्यंजन
हृदय कितने उलाहने सहता रहा जिह्वा के,
कि नहीं ले पायी मन भर स्वाद तुम्हें सुमिरते हुए प्रतिपल
कितना तो फीका रहा फाग का रंग
तुम्हारे साँवले रंग के बिना
कितनी बेसुरी रहीं धुनें तुम्हारी पुकार के बिना
इतनी चहल के बाद भी
धरती कितनी खाली रही तुम्हारे पगों की बाट जोहती हुई
कितनी झिझक से भरे रहे मेरे अधर
तुम्हें पुकारते हुए एकान्त में भी
मैं रूपगर्विता न हो पायी कभी
किन्तु प्रेम की आभा से कितनी गर्वित रही कि सौ सूर्य भी लज्जित हो उठें।
स्मृति की मंजूषा से निकालती हूँ चुपचाप तुम्हारे साथ बिताए पलों का नमक
दुनिया के तमाम व्यंजन लज्जित हो जाते हैं,
तब बह निकलता है नमक आँसुओं की कलाई थामे चुपके से।
जानते हो,
तुम्हारे प्रेम की अधिकता में डूबी मैं
कभी नहीं साध पायी जीवन में उपस्थित अन्य संवेदनाओं से प्रेम का संतुलन।
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उत्तराखंड