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Lahak Digital > Blog > Literature > डी एम मिश्र की ग़ज़लें
Literature

डी एम मिश्र की ग़ज़लें

admin
Last updated: 2025/04/01 at 2:43 PM
admin
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8 Min Read
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1.

बडे आराम से वो क़त्ल करके घूमता है
उसे मालूम है जज भी तो पैसा सूँघता है

बड़ा त्यागी, तपस्वी ख़ुद को सन्यासी बताता
बना है संत बँगला कार एसी ढूँढता है

तुझे मालूम है उसकी हक़ीक़त और फ़ितरत
पुजारी हो के वो भगवान को भी लूटता है

उसे हर हाल में अपनी तिजोरी सिर्फ़ भरनी
दिखाकर देशभक्ती देश को ही चूसता है़

अरे सोने की वो चिड़िया है क्या मालूम तुझको
तेरी औक़ात क्या जो रोज उसको घूरता है

2.

इंसाफ़ हो सही कि ग़लत पूछते नहीं
जज के ख़िलाफ़ लफ़्ज़ एक बोलते नहीं

क्यों आंख बंद कर लें कबूतर की तरह हम
क्या आंख बंद कर लें तो महसूसते नहीं

भगवान मान ही लिया गया वो अंततः
भगवान में फिर ऐब कोई ढूंढते नहीं

कश्ती उतार दी है समंदर दोस्तो
डूबेंगे या बचेंगे ये फिर सोचते नहीं

ईमान को जो आन बान शान मानते
अपने ज़मीर को वो कभी बेचते नहीं

माना कि याददाश्त है कमज़ोर हमारी
एहसान मगर हम किसी का भूलते नहीं

अपने पिता की भूल से ये सीख हमने ली
कल पर कोई हम काम कभी छोड़ते नही

3.

बेदाग़ है वो क़ातिल इंसाफ़ की नज़र में
गुंडे पनाह पायें , तहज़ीब के नगर में

सच बोल कर वो हारा, बेमौत जाय मारा
कैसे बचाए खुद को, ईमान की नज़र में

बुज़दिल हज़ार मौतें मरता है, पर बहादुर
इक बार में फ़ना हो लड़ते हुए समर में

राहें बचा के जिसकी चलते थे कल तलक हम
वह देवता बना है लोगों की अब नज़र में

कल तक जो बाज़ुओं की ताक़त दिखा रहा था
दहशत के मारे वह भी, दुबका है अपने घर में

कुछ फ़ायदे इधर तो कुछ फ़ायदे उधर भी
नुकसान बस उन्हीं का लटके हैं जो अधर में

माना नकाब में अब, रहता है छुप के लेकिन
वो भेड़िया बराबर, रहता मेरी नज़र में

4.

ऐसे क़ातिल से बचिए जो रक्षक भी होता है
गुड़ में ज़हर मिलाने वाला वंचक भी होता है

आंखें मूँद के यारो दुनिया पर विश्वास न करना
बकरे का मालिक, बकरे का भक्षक भी होता है

खिलती कलियों का बाज़ारों में सौदा कर आता
बेशक माली गुलशन का संरक्षक भी होता है

उसके दिल में भी यह बात कभी तो आती होगी
ज़्यादा प्यार जताने वाला शोषक भी होता है

दानी बनकर नाम कमाना कितना अच्छा लगता
चंदे वालों का भंडारा व्यापक भी होता है

अपनी मर्ज़ी का मालिक वो कैसे फिर हो सकता
रोजी-रोटी की ख़ातिर जो बंधक भी होता है

5.

इतनी-सी इल्तिजा है चुप न बैठिए हुज़ूर
अन्याय के खिलाफ़ हैं तो बोलिए ज़रूर

मुश्किल नहीं है दोस्तो बस ठान लीजिए
गर सामने पहाड़ है तो तोड़िए ग़ुरूर

देखा है का़तिलों को सरेआम घूमते
दोषी निजा़म ही नहीं मेरा भी है कुसूर

ऐसे ख़ुदा का क्या करूँ जो बुत बना रहे
बोले न कुछ सुने न कुछ रहे भी दूर-दूर

बदले की भावना नहीं अपने मिज़ाज में
दुश्मन के वास्ते भी नहीं पालते फ़ितूर

साक़ी यही है क्या तेरा इन्साफ़ बता भी
खाली किसी का जाम है कोई नशे में चूर

6.

सच्चाई की सिर्फ़ वकालत करता हूँ
ख़ुद से भी बेख़ौफ़ बग़ावत करता हूँ

यारों से भी लड़ना मुझको आता है
दुश्मन पर भी मगर इनायत करता हूँ

जो मासूमों की हत्यायें करती हो
तन्हा, उस लश्कर की ख़िलाफत करता हूँ

जिसके शासन में जनता भूखी सोती
उस शासक की खूब मलामत करता हूँ

दुनियादारी यूँ मुझको भी आती है
पर न कभी अपनों से शिकायत करता हूँ

ईश्वर की पूजा से बेशक दूर रहूँ
मानवता की मगर इबादत करता हूँ

नफ़रत से रखता हूँ ख़ुद को अलग मगर
कुदरत की हर शै से मुहब्बत करता हूँ

7.

एक ज़ालिम ने मेरी नींद उड़ा रक्खी है
कब से इस दिल में मेरे आग लगा रक्खी है

इतना आसान नहीं उसकी हक़ीक़त जानूं
हर तरफ़ कुहरे की दीवार उठा रक्खी है

अब कहां, किस की वो फ़रियाद सुनेगा यारो
सबको मालूम है दूरी क्यों बना रक्खी है

यार कमज़ोर है, डरपोक हमारा राजा
हम ग़रीबों के लिए फ़ौज लगा रक्खी है

ऐसे इंसान पे कैसे मैं भरोसा कर लूं
जिसने बाजू में ही शमशीर छुपा रक्खी है

शुक्र मानो कि सलामत वो शख़्स है अब तक
मैंने आंखों में ज़रा शर्म बचा रक्खी है

8.

मारा गया इंसाफ़ मांगने के जुर्म में
इंसानियत के हक़ में बोलने के जुर्म में

मेरा गुनाह ये है कि मैं बेगुनाह हूं
पकड़ा गया चोरों को पकड़ने के जुर्म में

पहले तो पर कतर के कर दिया लहूलुहान
फिर सिल दिया ज़बान चीखने के जुर्म में

पंडित ने अपशकुन बता दिया था, इसलिए
हैं लोग ख़फ़ा मुझसे छींकने के जुर्म में

औरों की खुशी देख क्यों पाती नहीं दुनिया
तोड़े गये हैं फूल महकने के जुर्म में

उठे नहीं क्यों हाथ गिरेबान की तरफ़
खायी है लात पांव पकड़ने के जुर्म में

कब तक रहूं मैं चुप कोई मुझको तो बताए
बढ़ती गयी सज़ा मेरी सहने के जुर्म में

9.

ज़ुल्म के इस दौर में बोलेगा कौन
बढ़ रहा आतंक है रोकेगा कोन

इस तरह ख़ामोश कैसे लोग हैं
हम रहे गर चुप तो फिर बोलेगा कौन

रोशनी करनी है तो ख़ुद भी जलो
इस धधकती आग में कूदेगा कौन

क्या कोई ऊपर से टपकेगा हुज़ूर
बदमिज़ाजे वक़्त को बदलेगा कौन

दिल बड़ा है गर तो आगे आइये
बेसहारों को सहारा देगा कौन

डर गये हम भी हुकूमत से अगर
इन्क़लाबी शायरी लिक्खेगा कौन

10.

हसीं हो यार इतना ही नहीं वो बावफ़ा भी हो
समझदारी भी हो उसमें, वो थोड़ा बावला भी हो

तभी हम मान सकते हैं कि वो इंसान सच्चा है
ग़लत को जब ग़लत कहने की उसमें माद्दा भी हो

वही दीया सुबह तक डेहरी पर टिमटिमाता है
कि जिसमें तेल बाती ही नहीं हो, हौसला भी हो

किसी के सामने क्यों दीन बनकर हाथ फैलाते
खुदा से सिर्फ़ मांगो गर तुम्हें कुछ मांगना भी हो

महज़ पांवों के होने से सफ़र पूरा नहीं होता
सफ़र के वास्ते इक साफ़ -सुथरा रास्ता भी हो

बंधे रिश्तों की डोरी में बहुत से लोग हैं लेकिन
उसी को मानिए अपना जो सुख- दुख बांटता भी हो

उसी फ़नकार को दुनिया अदब से याद रखती है
अलग अंदाज़ हो जिसका, अलग सा दीखता भी हो

करें इंसाफ़ जज साहब मगर इतनी गुज़ारिश है
जो जनहित में भी हो लेकिन वो ऐसा फ़ैसला भी हो

——-

सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश।

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