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Lahak Digital > Blog > Literature > संजय कुमार सिंह की ग़ज़लें
Literature

संजय कुमार सिंह की ग़ज़लें

admin
Last updated: 2023/09/01 at 8:14 AM
admin
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12 Min Read
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कुछ आशियाँ उजड़ गए, कुछ उम्मीद बिखर गयी।
जिन्दगी तड़पती रही दर्द से,फिर साँस उखड़ गयी।।

मेरी आँखों में तो अब भी ख़ौफ़ है उसी मंज़र का।
सुबह मेरे गाँव में थी डाइन,फिर शाम को शहर गयी।।

सियासत के तेल में सोना भी जलके खाक हो जाए।
कित्ती खूबसूरत थी वो याद,उसके साये से डर गयी।।

उसने अजनबी आवाज में पहचान से इन्कार किया।
काठ हो गया मैं खुद-ब-खुद ,सौ मौत हया मर गयी।।

कुछ उम्मीदों को पालते हम यूँ ही साँसों में बसाकर।
उसने जब दगा किया,तब भी मेरी चाहत उधर गयी।।

मेरी आरजू में जब इबादत थी, तो फिर कहाँ जाता ।
दर-ब-दर करके हँस रहा संगदिल,मुहब्बत मर गयी।।

आँखों में आबरु न हो,तो आँसू का क्या मोल जाने ।
लगायी आग, उसी से पूछते हो ,रौशनी किधर गयी।।
****

सुख के सौ किस्से हैं लेकिन दुख की एक कथा है बाबा |
सुबह गये फिर शाम को लौटे,अपनी एक व्यथा है बाबा||

रेला देखा, मेला देखा, बहुत बड़ा कट खेला देखा।
किसे सुनायें, किससे बोलें, जी का हाल बुरा है बाबा||

फेंक रहा है शकुनी पासा, देख रहें सब लोग तमाशा|
इस बहुरुपिये के आगे ,किसका जोर चला है बाबा||

कौए की पंचायत लगी है , बगुला का है भाषण जारी।
बंदर भी बना कलंदर, फिर कुत्ता भौंक रहा है बाबा।।

पैसे का बाजार गरम है, लूट-पाट में किसे शरम है|
बेचे आँख का पानी तो किसका मोल बचा है बाबा।।

मुँह में राम, बगल में छुड़ी , उसके ऊपर भी बड़जोरी|
आजादी के सपने ने , हम सब को खूब ठगा है बाबा।।

इन्द्र-लोक से जो भी आए , माल-मलाई छक कर आए|
अपनी किस्मत की थाली में ,रोटी पर नून बथा है बाबा।।

गाँव का पीपल नीम से बोले, पैर बिना हम भागें कैसे।
हर चेहरे को गौर से देखो , डर के मारे सहमा है बाबा।।
***

हैराँ हूँ इस बात से कि किस गाँव में हूँ, किस का है ये शहर।
किसे अदब से कहूँ हुजूर, जो करे न मुझे कहीं दर-ब-दर।।

दर्द की इन्तहाँ यहाँ,जुबाँ छिल गयी, पाँव के छाले उतर गए।
चल तो मैं ही रहा हूँ, पर कहाँ मंजिल,किसका है ये सफर?।

हलस कर अब कहाँ मिलता है कोई किसी गाम पर संजय।
खिलने से पहले ही क्यूँ झुलस जाता है ये रिश्ते का शज़र?।

एक कशिश है आग में,कौन है जो जानता जलाने का हुनर।
पानी को कोई कहाँ तक बचाएगा ,जब नदी हो गयी बंजर।।

हर तरफ है वही धुआँ, सितम का वही खौफनाक सा मंजर।
मेरी आरजू में है मेरे प्यार का इजहार, तेरे हाथ में है खंजर।।

मुझे जब कत्ल ही करना था तो वीराने में ले जाते ऐ!दोस्त!
तुम्हारे इस फैसले से यकीन कर, खुद बहुत हैरान है खबर।।

***
आदत सी हो गयी है ,हर बात के आनी मानी कहना ।
बहुत मुश्किल है,दूध को दूध, पानी को पानी कहना ।।

जबां से जो भी कहिये, जी हां खूब तौलकर कहिए।
ये असल का उसूल है, छोड़िये तर्जुमानी कहना।।

निशाना अचूक है आपका, ये मैं जानता हूँ जी ।
डर तो ये है आसमां में परिन्दे ,भूल जायेंगे उड़ना।।

इस तरह रोड़ा अटकाते रहे,अगर आप हर मोड़ पर।
दरिया तो दरिया, रुक न जाये समन्दर का बहना ।।

मैं लौट कर घर, आ गया था खुद ही भाईजान।
आपने कहा चलो तमाशा देखो, वहीं खड़ा रहना।।

यह बोलियों का बाजार है, कोई चुप नहीं रहेगा।
झूठ हो या सच, चलन है मुलम्मा लगाके कहना ।।

रहिये किसी की आंख में ,या रहिये किसी के दिल में।
सीखिये किसी मछली से डूबकर अगम पानी में रहना।।
***

मेरे रहबर ऐसे न कभी दिल्ली जाया भी करो।
इस अँधेरे तक उजाला कभी लाया भी करो।।

तुम तो चले गए हमें उम्र की तप्त छाँव देकर।
हमारे गाँव का सौदा ,कभी लाया भी करो।।

उधर सितारों की महफिल में चाँदनी बिछती।
उधर का आईना कभी इधर घुमाया भी करो।।

सुना, तुम्हारे पैरों से लिपटकर चलती है नदी।
मेरे मालिक उसे कभी इधर बहाया भी करो।।

हमारी आह को कागज समझ के उड़ा दिया।
उतरके अर्श से फर्श पे कभी आया भी करो।।

हमारे इन्तज़ार की भी कोई हद तो होगी कहीं।
खुदा के लिए खुद से कभी लजाया भी करो।।

इन पाँच वर्षों में, यूँ पाँच युग बीत गए संजय।
किसी को आसारा दे ,ऐसे न भुलाया भी करो।।

***

अल्लाह मेघ दे,पानी दे,राम दे,रहमानी दे।
राजा दे,रानी दे,दुनिया को दाना -पानी दे,।।

ज्ञानी दे, कुछ आनी दे और कुछ मानी दे।
नानी दे,कहानी दे,पर थोड़ी सी नादानी दे।।

अल्लाह मोठ दे,मिट्ठी दे,खीर दे,खुबानी दे।
दे चाहे,ना भी दे,पर आँखों में कुछ पानी दे।

काँटा दे, वीरानी दे,दुख भरी जिन्दगानी दे।
जित्ती परेशानी दे,पर कोई शाम सुहानी दे।।

काट सकूँ गम की काई,सोना दे न चानी दे।
थोड़ी सी जवानी दे,साँसों में वही रवानी दे ।।

गाँव-गली में मिल कर रोएँ,मिल कर गाएँ।
अल्लाह-ईश्वर इतनी सी बस आसानी दे।।

लौटा दे हम सब के बचपन का भोलापन।
पहचान पुरानी दे ,अपनी वही निशानी दे।।

***
हम कुछ सूती हैं, कुछ खादी हैं।
खाने में माल-मलाई के आदी हैं।।

हाथ में मल्टा लोटा,मुँह में टोटा।
कुछ बकवादी , कुछ उन्मादी हैं।।

भीतर काला, बाहर से रंगशाला।
यूँ जन्म-जन्म से अवसरवादी हैं।।

झंडा का फंडा,स्वारथ का डंडा।
बदलें ना बदलें परिवर्त्तनवादी हैं।।

अल्लाह-ईश्वर भेद ना जाने बाबू।
हम कहने को केवल फौलादी हैं।।

****

क्या पता था मुकद्दर एक दिन यहाँ भी ले आएगा बाबा।
अपनी हस्ती पर से अपना ही यकीन उठ जाएगा बाबा।।

चुप रहना कभी मुनासिब नहीं था पर हिदायत थी यही।
झूठ के तख़्त पर किसे सच बोलने दिया जाएगा बाबा।।

इतना खौफ था कि उसकी बस्ती में जाना छोड़ दिया।
सुना है वह मुझे न जाने क्यों फिर बुलाने आएगा बाबा।।

इस वक्त बहुत उदास है, इस सदी का मसीहा यह सोच।
उसे शज़र की शक्ल में भी नहीं रहने दिया जाएगा बाबा।

मैं यूँ ही परेशान नहीं हूँ यहाँ जान-ए-मकान में तब से।
डर है मुझे यहाँ से भी बेदखल कर दिया जाएगा बाबा।।
***

तुमसे मिलने की जब दिल में कोई सूरत नहीं रही।
हमने समझा काबा-ए-दिल में कोई मूरत नहीं रही।।

कल भी जुदा कर गया वो कुछ शाखों को शजर से।
कह दिया कि इन परिन्दों को घर की जरूरत नहीं रही।।

डरा कर फूलों को जब उसने कहा मेरे हुक्म से खिलो।
हमने कहा मुहब्बत किसी के दिल की दौलत नहीं रही।।

जुदा किया दरिया को पानी से कि दिल को मुहब्बत से।
हमको लगा दुनिया पर अब खुदा की बसीरत नहीं रही।।

बडा नादाँ है वो दिलवरों का खेल कैसे समझेगा संजय।
मुहब्बत तब भी होती है जब कहते हैं मुहब्बत नहीं रही।।

यहाँ हारने पर भी कोई हारता कहाँ है हसरत की बाजी।
करके शोलों पे बसर कहते जलने की हसरत नहीं रही।।
***

कभी तुम फूल चुनते हो, कभी तुम ख़ार चुनते हो।
कभी आँसू,कभी हुज्जत,कभी तुम प्यार चुनते हो।।

जिन्दगी के हैं रंग इतने कि हजारों ख्वाब आँखों में।
दुखी होकर कहो क्यों, किसी का इनकार चुनते हो।।

माना धुएँ से घिर गए जहनो – सहन तो क्या हुआ।
खिजाँ में जब लोग पूछें ,तो कहो इन्तज़ार चुनते हो।।

स्वप्न के फूल खिलकर झड़ गए,तब भी कहो साथी।
दिल में करार लेकर तुम मौसम का इसरार चुनते हो।।

जल कर दिन की धूप से धरती, उनींदी रात में रोए ।
शबनम से कहो हँसके कहे,दुख का संसार चुनते हो।।

गए तुम जीत भी तो क्या, भले तुम हार भी जाओ।
कहो सिजदे में झुके हो, बेखुदी का दयार चुनते हो।।

***
तुम कहो ,तो मेरी जाँ मैं अपने अर्ज में प्यार लिक्खूँ।
मैंने जो बसर की जिन्दगी उसे खुद पे उधार लिक्खूँ।।

तुम तक पहुँचती कहाँ है वादी-ए-सबा गुंचा-ए-दिल।
अपनी आरजू लिक्खूँ, चाहे अपना इन्तजार लिक्खूँ।।

लौट के फिर आ गयी है भटकती हुई सी वही प्यास।
सोचता हूँ लब-ए-जाँ पानी का क्या किरदार लिक्खूँ।।

तुम्हारे शहर में तो किसी की कोई पहचान नहीं रही।
मौसम-ए-गुल लिक्खूँ कि बारिश का इजहार लिक्खूँ।।

ये बात दीगर है कि कहे से हर मतला शेर नहीं होता।
रेत के दिल पे फिर कैसे अपना वही इसरार लिक्खूँ।।

ये सुबह से शाम तक क्या तो है,जो जलाता है मुझको।
दिल मोम का एक घर,क्यों वही दुख बार बार लिक्खूँ।।
…..

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प्रकाशित कृतियाँ-
1 टी.वी.में चम्पा (कहानी संग्रह) सस्ता साहित्य मंडल दिल्ली
2 रंडी बाबू ( कहानी- संग्रह)जे.बी.प्रकाशन नई दिल्ली
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4 धन्यवाद-( कविता संग्रह) नोवेल्टी प्रकाशन पटना।
5 वहाँ तक कोई रास्ता नहीं जाता-(कविता-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
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8 सपने में भी नहीं खा सका खीर वह!(उपन्यास) वही
9 समकालीन कहानियों का पाठ-भेद( आलोचना की पुस्तक) यश प्रकाशन दिल्ली।
10- कास के फूल ( संस्मरण)वही
सम्प्रति- प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला काॅलेज पूर्णिया-854301
9431867283

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