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Lahak Digital > Blog > Literature > जसबीर चावला की ग़ज़लें
Literature

जसबीर चावला की ग़ज़लें

admin
Last updated: 2023/07/15 at 5:26 AM
admin
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5 Min Read
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1.

शहर फिर शहर है, अपना बना लेता है
कीमती रख लेता, कूड़ा बहा देता है।

नदी की नदी सोख लेता अपनी नज़रों में
हर फ़िक्र धुंए -ठहाकों में उड़ा देता है।

लोगो! सैलाब को दोस्त समझ कर निपटो
लगाता चूना, जूझने का चाव जगा देता है।

अब वो कीलें-बैरीकेड-नोकें -तारें न बचीं
पीछे से हलधरों पर फाॅर्चूनर चढ़ा देता है।

आठ सौ मर गये थे बाॅडरों पे, खुदा
रो-रो फलक से , गम उनके भुला देता है।

2.

मंथरा ने चाणक्य से कुछ कह दिया है
राम का वनवास जाना रुक गया है।

भरत ही कब लौटेगा ननिहाल से
डबल इंजिन हादसे में फूंक गया है।

लग गये हलधर के फिर से काले दिन
सूरजमुखी फसल को घुन लग गया है।

पाप के हमाम में राजा घुसे, योगी घुसे
दूध का कोई धुला क्यों घुस गया है?

अब उसे पहचान कर बाहर करो
चुनाव के दंगल का बिगुल फूंक गया है

3.

हलधर जगह ढूंढ़ते हैं, वजह हर जगह होती है
मां दूध भी तभी देती जब संतान रोती है।

एमेसपी गर जो तय है, उतनी चुकाते क्यों नहीं?
किसान की फसल लूटने की चाहत क्यों होती है?

अगर लागत से थोड़ा ज्यादा भी दिए जाए तो क्या ?
किसान खरचता है तभी मंडी में रौनक होती है !

सब कुछ तो हलधर उगाई फसल से ही जन्मता है
वरना बढ़ती पूंजी हर मौसम बच्चे दे रही होती है?

तुम यह देखो कि हलधर सिर धरने सड़क पर न‌ आये
चुनाव से बदलती पर लूटने की सरकारी आदत होती है।

4.

सिर्फ़ ज़ुल्फें ही नहीं बेचैनी का सबब
शोख अदाओं ने भी कहर ढाया है।

कहां मालूम था इतनी शातिर है वफा
हुस्न औ’ इश्क का हर पेचो-खम माया है।

जाहिर है , मक़तल ही मेरा अरमां है
क़ातिल क़ातिल , शोर क्यूं मचाया है।

जगह-जगह फिर धरने पर बैठें हलधर
हकों के वास्ते लड़ना ही अब सरमाया है।

मुल्क लूट रहा है पूंजी के दरिंदी हाथों
जसबीर उनसे बचाने की सोच लाया है।

5.

धूप निकली तो लोग बाहर निकल आए हैं
राह निकली तो लोग मंजिल की बतिआये हैं।

आ रही सर्द हवाओं को मिलके झेलेंगे
काली सत्ता से टकराने को कसमाये हैं।

लोकतंत्र जिंदा है, हलधर की लाशों पे गिरा
संविधान मरने न देंगे किसान शहीदाये हैं।

सर्व सांझी गुरूवाणी मांगती सरबत्त दा भला
इसका व्यापार क्यों?क्यूं चैनेल हथियाये हैं?

अकाल का तख्त है, हुक्म अकाल पुरुख का
दलगत राजनीति का क्यूं नगाड़ा बजवाये हैं?

मानुष की जात सभै खालसो हित एक है
रंग- वर्ण -प्रांत छांड़, जुल्म से टकराये हैं।

6.

उसने इंसानियत के दांव सीखें हैं
अब शराफत के वार करता है।

कुछ भी कहता नहीं है चारागर
मीठी दवाओं से घाव करता है।

तीर तलवार का तो जिक्र नहीं
हर घड़ी मन की बात करता है।

उसकी हमदर्दी को तरस जाओ
इस तरह खंजर पर धार करता है।

उसकी तारीफ में सजदे फर्शी
मुगलिया सलीके दीदार करता है।

7.

खूब यह मालूम था फट जायेगा
दूध बासी आंच न सह पायेगा।

पाप करता चले शत-शत वाल्मीकि
रामशरणं हाफ दे तर जायेगा।

गर सियासत ही बनी हो अजामिल
मरा रटता भी ग़र्क बह जायेगा।

नाम से बनता नहीं है कोई चोर
काम देखे जसबीर भी कह पायेगा।

हलधर तुम्हारी बात पर हमको यकीं
वक्ते -रुख्सत सब यहीं रह जायेगा।

8.

बला की खूबसूरत थी जिसे काट डाला था
ग़ज़ब के नखरे-अदायें, जिन्हें उबाला था।

नफरत इतनी कि बला भी खौफ खाती हो
मुहब्बत ऐसी घपला थी कि गड़बड़ झाला था।

शर्मिंदा हैं सभी धरती पर रहने वाले राधाकृष्ण
प्रेम में उत्सर्ग सदैव प्रभु का उजाला था।

हलधर देखो, मिट भी माटी से निभाता है
अन्न देता , कब किसी पर तेजाब डाला था।

जसबीर ऐसी प्रेम-कहानियां तू रहने दे
सुनते ही मन खराब, कैसा प्रेम पाला था


डॉ. जसबीर चावला, चंडीगढ़

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