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Lahak Digital > Blog > Literature > सरला माहेश्वरी की कविताएँ
Literature

सरला माहेश्वरी की कविताएँ

admin
Last updated: 2024/07/17 at 1:28 PM
admin
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14 Min Read
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1.

लापता लेडीज !

एक नयी नवेली दुल्हन
नहीं जानती अपने ससुराल का पता भी ठीक से
घूँघट ओढ़े गठरी जैसी बैठी है रेल के डिब्बे में
उसके जैसी ही एक और दुल्हन भी उसी तरह बैठी है
जैसे उन्हें मना है अपनी आँखों से सब देखना
चलना अपनी मर्ज़ी से अपने बनाए रास्ते परऔर फिर होती है अनहोनी
बल्कि कहना चाहिये न होना ही अजीब था
सावधानी से न देखो तो एयरपोर्ट पर एक सी दिखने वाली
बक्साएँ भी ग़लत पते पर पहुँच जाती हैं
तो यहाँ भी ऐसा ही होता हैदुल्हन अपने पति की जगह दूसरे के घर पहुँच जाती है
घर में देखकर उसका चेहरा सब जाते हैं चौंक
ये कौनसी दुल्हन आ गयी
ये गलती कैसे हुई !
एक से कपड़े और घूँघट !
ओह ये घूँघट ! ये तो बन गया ज़हर का घूँट !

Contents
लापता लेडीज !ज़ोहरा सहगल !ईरान के तंदूरे नेशनल पार्क का ये पेड़ !महुआ मोइत्रा !आमों से भरा-भरा ये पेड़कितने प्यारे, मासूम से शब्दजीवन साइकिल !नन्ही आइजा के दो सवाल !9. क्या तुम भी …नहीं…हाँ…दीपावली पर दुआ

उधर असली भोली-भाली दुल्हन
स्टेशन पर अकेली भय से काँप रही है
एक किशोर मज़दूर और
एक अकेली मेहनतकश औरत देते हैं उसे हौसला
पर उसको तो याद नहीं अपने ससुराल का पता
और नहीं अपने घर का भी पूरा पता
कोई उस लापता को कैसे पहुँचाए अपने पते पर
वैसे भी तो आज भी औरतें कहाँ खोज पाती है अपना सही पता !

पर लापता होकर एक औरत जब
खोजना चाहती है अपना पता तो
कितने बंद दरवाज़े खोल देती है !
वो दूसरी दुल्हन ऐसी ही है
माँ ने धमकी देकर पहना दी थी शादी की ज़ंजीर उसके पाँवों में
पर शादी के वक्त ही पहचान गयी थी वो
उस दहेज के लालची पति का चरित्र

ट्रेन में मौक़ा मिलते ही हो गयी छूमंतर उस दूसरे व्यक्ति के साथ
देखकर नक़ली पति की परेशानी
चुपचाप जुट जाती है करने उसकी मदद
बनवाकर उसकी असली पत्नी का पोस्टर बाँट देती है
और इसी पोस्टर के सहारे एक दिन
असली दुल्हन पहुँच जाती है अपने असली पति के घर
साहस और स्वाभिमान से भरी !

और नक़ली दुल्हन उतार कर अपना झूठा मंगलसूत्र
चल पड़ती है ज़िंदगी में अपना असली पता खोजने !
ज़िंदगी की एक खूबसूरत कविता
अँधेरे में प्रकाश की एक किरण जैसी !
इसी तरह शायद मिलकर लिखी जाती है !

2.

ज़ोहरा सहगल !

हँसी का ये हुनर कहाँ से सीखा तुमने
ऐ हुनरमंद लड़की !जो सारे ज़माने को दीवाना बना दे
खिलखिलाना सिखा देसच बतलाना ज़ोहरा सहगल
भला क्या राज है तुम्हारी इस हँसी का !

कहाँ मिलती है ऐसी हँसी !
कैसे मिलती है
तुम्हारी जैसी उजली, चमकीली हँसी !
जो कभी बूढ़ी नहीं होती !

ए चिर युवा हँसी ! सलाम तुम्हें !
अभी तो बस सामने तुम्हारी खिलखिलाती तस्वीर है !

और इस हँसी की गंगा में डुबकी लगाना चाहती हूँ !

3.

ईरान के तंदूरे नेशनल पार्क का ये पेड़ !

 

दुनिया का सबसे पुराना पेड़ !

नहीं ये सिर्फ पेड़ नहीं है !

गौर से देखो ! कैसे देख रहा है ये अपने सर पे

उग आई उलझी जटाओं को

ये पेड़ नहीं जैसे कोई टाइम कैप्सूल है !

जो बिठाकर आपको पौने पाँच हज़ार साल पीछे ले जा सकता है !

एक ही जगह ठहरा हुआ, फिर भी हवा की तरह गतिशील

दुनिया जहान की हवा जिस पर आकर

जैसे कुछ क्षण ठहर जाती है

कितनी कहानियाँ न जाने इसने सुनी है

और देखा है कितनी सभ्यताओं को बनते-बिगड़ते !

आज कैसे थका-थका सा लग रहा है

पर इसकी खुली आँखें कुछ कहना चाहती हैं

इससे पहले कि ये अपनी आँखें बंद कर ले

आओ इसके पास बैठें, इसकी दास्तान सुनें !

शायद इसके पास सुनाने को ज़िंदगी का कोई महाकाव्य हो !

दुनिया को बचाने का कोई अचूक नुस्ख़ा !

4.

महुआ मोइत्रा !

महुआ

एक जंगली गुलाब
जिसमें भरी होती है
आदिम शराब

सुगंधित
लहकती लता
युयुत्सु स्त्री की
अस्मिता

पत्तों की सनसनी
और पक्षियों की गूंज
मधुवन में
लिपटी मंजरियों सी
बेखौफ
बेलौस तुम

न मुरझने वाला
जंगली फूल
तुम हमारी हूल

तुम खरा सोना
कभी न रोना !

तुम्हारी पुकार तो
लड़ाई की ललकार

तुम्हें सलाम !

5.

आमों से भरा-भरा ये पेड़

प्यार से लदा-लदा, झुका-झुका सा ये पेड़
सुबह -सुबह मन को हरा-भरा कर देता ये पेड़
माँ के आँचल जैसा ये पेड़
पिता की छाँव जैसा ये पेड़!

जाने क्यों ये याद दिलाता मुझे
माँ के उस जादुई थैले की
जब भी बाहर से आती वो
झोले में भरकर लाती ढेर सारा प्यार
खट्टी-मीठी लेमनचूस, तरह-तरह के बिस्कुट
मूँगफली, मीठे चने
देखकर उन्हें नाच उठतीं हम बहनें
थोड़े से पैसों में जाने कैसे माँ ख़रीद लाती पूरा संसार !

आम की रूत में
माँ थैले में भरकर लाती आम !
माँ के हाथ का वो आमरस !
आज भी जीभ नहीं भूलती उसका स्वाद
माँ कहती जाओ दौड़कर लाओ बर्फ
ठंडा-ठंडा वो आमरस और
वो पतले, नरम रुई जैसे माँ के हाथ के फुलके
ख़ूब मज़ा ले-लेकर खाते और ग्लासों में भरकर
आमरस पीते-पीते घर के तलघर में होती पढ़ाई !

जाने क्यों लगता है जैसे ये पेड़ नहीं
माँ का प्यार भरा वही थैला है !
जब भी देखती हूँ उसे
ख़ुशी से झूम उठता है ये !

तो कभी देखकर इसको याद आते हैं पिता
ठंडा-ठंडा बेल का वो शरबत
बिलकुल पारदर्शी
बिना हाथ से छुए बस छानते जाते
न जाने कितनी बार
बेल की वो ख़ुशबू पिता की ख़ुशबू जैसी ही
चारों ओर फैल जाती !
वैसा शरबत भी तो कोई नहीं बना पाता !

माँ-पिता शायद इसी तरह फूलों-फलों से लदे पेड़ों की तरह ही
बरसाते रहते हैं अपना प्यार !

6.

कितने प्यारे, मासूम से शब्द

कितने प्यारे, मासूम से शब्द
लुप्त प्रजातियों की तरह जाने कहाँ चले गये
क्या वे ग़ज़ा के उस शरणार्थी शिविर की
गोलियों से घायल उस दीवार पर छटपटा रहे हैं
जिन्हें छोटे बच्चे फटी आँखों देख रहे हैं
या उस अन्नदाता की पीठ पर
अनगिनत निशान में बदल दिये गये हैं !

क्या मौसम की मार से ! सत्ता की मार से !
शब्द भी हो जाते हैं लुप्त
एक जापानी कवि बहुत उदास है
गर्मी की मार ने ऋतुओं की तरह
सारे मौसमी शब्दों को भी मार दिया है !
उसकी कविता को मिल नहीं रहे शब्द
शब्दों को नहीं मिल रहा अर्थ !

इधर कुछ लोग चुन-चुन कर शब्दों को
देश-निकाला दे रहें हैं !
उन्हें उन शब्दों से विदेशीपन की,
घुसपैठियों की बू आती है।
वे नागरिकों की तरह शब्दों का भी
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार कर रहे हैं !

7.

जीवन साइकिल !

साइकिल जो कल भी थी
आज भी है और हमेशा रहेगी
साइकिल के ये दो पहिये
लिखते रहें हैं , लिखते रहेंगे
ज़िंदगी की कहानियाँ !

हर किसी के पास है साइकिल की कहानी !
अग्निकन्या कल्पना दत्त से लेकर अनेक क्रांतिकारियों
ने इसी साइकिल के सहारे लड़ी थी आज़ादी की लड़ाई
ये साइकिल ही थी जिसने लड़कियों को दिये पँख
इन्हीं पँखों के सहारे देखी उन्होंने बाहर की दुनिया !
इन्हीं साइकिल के दो पहियों पर लोगों ने की है दुनिया की सैर !

ये साइकिल ही है जिसने दुखियारों का
कभी नहीं छोड़ा साथ !
हारी-बीमारी हो या महामारी !
स्पैनिश फ़्लू से लेकर आज कोरोना महामारी तक
साइकिल दौड़ रही है !

लॉकडाउन के समय भी मीलों दौड़ती रही साइकिल
बीमार बाप को इसी साइकिल के पीछे बिठा
1200 किलोमीटर चल अपने गाँव ले गयी थी उसकी बेटी ज्योति !
आज साइकिल गर्ल ज्योति के नाम से जानी जाती है !
और तो और मृतकों की लाशों को भी
घर और श्मशान पहुँचाया है इसी साइकिल ने !

सच कहा था तुमने आंइस्टीन !
जीवन साइकिल की सवारी है !
संतुलन बनाए रखना है तो चलते रहना है !

8.

नन्ही आइजा के दो सवाल !

आज सोने से पहले कहानी सुनते हुए अचानक
आइजा ने सवाल पूछा कि -लोग पुअर क्यों होते हैं ?
मुझे एक धक्का सा लगा …
इससे पहले कि मैं कुछ जवाब दे पाती उसने दूसरा सवाल पूछा—
दादी आप किसी पुलिस को जानती हैं ?
आपके पास उसके नम्बर हैं ?
मुझे उसका नम्बर दो
मैंने एक सामान्य नम्बर बता दिया
उसने कहा सुबह उठते ही वो उसे फ़ोन करेगी और
ज़ोर से डाँटेंगी और मारेगी भी !
रोते हुए उसने कहा कि पता है …
आज उसने देखा कि रोड पर जो पुअर पीपल सुंदर सॉफ्ट स्टफ़ टॉयज बेचते हैं
उन्हें पुलिस मार रही थी और उनके सारे खिलौने छीन रही थी !
मैं सुबह उठते ही उस गंदे पुलिस को फ़ोन करूँगी !
उससे कहूँगी कि क्यों उसने उनके खिलौने छीने ?

लोग पुअर क्यों होते हैं ?
पुलिस क्यों छीन लेती है उनकी जीविका का छोटा सा साधन ?

बच्ची के मासूम छोटे से सवाल
इतने बड़े और भारी हो गये थे कि उठाये नहीं उठ रहे थे !
कौन उठाएगा इन सवालों का बोझ ?
नन्हीं सी बच्ची शायद बड़ी होगी, तब क्या ये सवाल छोटे हो जाएँगे?
और तब क्या इसे सहज बात समझ कर छोड़ देगी !
क्या ऐसे ही धीरे-धीरे हमारी सहज संवेदनाएँ मार दी जाती हैं ?

9.
क्या तुम भी …नहीं…हाँ…

कीचड़ से सने कालीन पर पड़ा है
किसी मासूम बच्चे का भोलू
शायद अभी भी चल रही है इसकी साँसें
खुली हुई आँखें कर रही इंतज़ार
आँखों में है उसके अनगिनत सवाल

कहाँ चले गये छोड़ कर मुझे तुम मेरे यार
मुझे नहीं सुनना किसी बाबा का प्रवचन
नहीं चाहिये किसी बाबा के पैरों की रज
कैसे बताऊँ तुम्हें कि इन आँखों ने जो देखा
नहीं बता सकता तुम्हें मेरे यार
मेरी ही तरह तुम भी डर जाओगे

कहाँ हो मेरे दोस्त !
कब से पुकार रहा !
क्या तुम भी …नहीं …हाँ…

10.

दीपावली पर दुआ

छोटी सी आइजा कहती है
फ़लस्तीन के बारे में मुझे और बताओ !
अच्छा बताओ
अस्पताल को अगर गिरा दिया तो
फिर इलाज कैसे होगा ?
पता है मेरी क्लास में एक लड़के को डेंगी हो गया और वो
कितने दिन से अस्पताल में भर्ती है !
वो डेंगी की पूरी कहानी सुनती है और फिर इसी तरह
फ़लस्तीन की कहानी सुनना चाहती है !
कहती है मुझे वहाँ की पिक्चर दिखाओ !

छोटी सी आइजा को कैसे सुनाऊँ फ़लस्तीन की कहानी
कैसे दिखाऊँ मासूम बच्चों की लहूलुहान लाशें ?
कैसे बताऊँ कि ये सत्ताएँ इतनी क्रूर क्यों हो जाती हैं
मच्छर तो नहीं जानते कि वे कितने ख़तरनाक हैं
कि वे इंसान के लिये जानलेवा हो सकते हैं

लेकिन इंसान सब कुछ जानते हुए भी
इंसान के लिये इतना ख़तरनाक हो जाता है कि
सुरक्षा के नाम पर लाखों बेगुनाह लोगों को मार देता है
एक पूरे शहर को, देश को तबाह कर देता है !
इस तबाही की कहानी कैसे एक बच्ची को समझाऊँ !
कैसे एक बच्ची की ज़िंदगी को ऐसे भयावह आतंक से भर दूँ कि
ज़िंदगी भर उससे उबर ही न पाए !

लेकिन खुद को सभ्य और जनतांत्रिक कहने वाले लोग
मौत का ये खेल खेल रहें हैं और अपनी पीठ भी थपथपा रहे हैं
दुनिया चुपचाप ये सब देख रही है !

फ़लस्तीन के बच्चो ! कैसे देखूँ तुम्हारी आँखों में ?
काश तुम्हारी आँखों में कोई जादुई शक्ति होती कि इन
राक्षसों को देखते ही भस्म कर देती !
इस दीपावली की रात
तुम्हारे लिये बस ये ही दुआ कि
मेरे बच्चों
तुम्हारी ज़िंदगी में चैन आए
वह ख़ुशियों से जगमगाए !

———–

कोलकाता (पश्चिम बंगाल)।

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