*गीत*
*हम कनक हुए होते*
अवसादों के बीच हँसी की खनक हुए होते।
जगह-जगह है आग, काश! हम कनक हुए होते।
बारिश वाले मेघ काश! मरु में भी छा पाते।
मृग दिखते वन-वन, पर तरकश पास न आ पाते।
अपने जुगनू हर अँधियारा स्वयं सृजित करता,
लोग मुस्कराकर सच को होंठों पर ला पाते।
तुम घन होते, हम मिट्टी की महक हुए होते।
जगह-जगह है धूल, काश! हम मशक हुए होते।
दस्तक सुनते तो किवाड़ आह्लादित हो जाते।
मुँह पर तकिया रखे बिना ही हम झट सो जाते।
इन्द्रधनुष-सा आँखों में विश्वास खिंचा होता,
मन अरण्य हो जाता तो ये दुखड़े खो जाते।
पुहुप चकित हो जाते जो हम गमक हुए होते।
जगह-जगह है खेल, काश! हम पदक हुए होते।
कुम्हलाना केवल पंखुड़ियों तक सीमित रहता।
हाँ, अन्तस्तल में हर पल कोई निर्झर बहता।
अगर हमारी आस उछलती किसी गेंद जैसी,
बीच हवा में एक भरोसा उसे काश! गहता।
जल में प्रतिबिम्बित किरणों की चमक हुए होते।
जगह-जगह है क्लान्ति, काश! हम अथक् हुए होते।
कभी-कभी तितली जैसा होने को जी करता।
बादल घिरते तो तालों का सूनापन भरता।
झील फेंकती कंकड़ियाँ ख़ुद अपने पानी में,
हर बत्तख़ के पंखों से रुक-रुककर जल झरता।
बन जाते हम नाव, अगर दुख वरक़ हुए होते।
जगह-जगह है धुन्ध, काश! हम चटक हुए होते।
बन्द करे हर दुख दिखना अब गर्म दुपहरी-सा।
यह जीवन सीखेगा किस दिन उड़ना चुनरी-सा?
आपस में बतियायें दहलीज़ें चिड़ियों जैसी,
इस दुनिया का हर रिश्ता हो पेड़-गिलहरी सा।
किसी रम्य घाटी में उतरी सड़क हुए होते।
जगह-जगह हैं व्याघ्र, काश! हम शशक हुए होते।
गीत
किसके पाँव पड़े बस्ती में
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किसके पाँव पड़े बस्ती में,
सभी सरोवर पंक हुए हैं।
क्यों बबूल को छोड़ सभी ने
फूलों के जंगल छाँटे हैं!
कौन बताये, इर्द-गिर्द क्यों
इतने गहरे सन्नाटे हैं!
कहो साज़िशन नक्षत्रों ने
छिपा दिया है कहाँ स्वाति को,
आरी की मानिन्द उम्र ने
मन के हरे पेड़ काटे हैं!
कभी पूर्णिमा थे हम, अब क्यों
टूटा हुआ मयंक हुए हैं!
प्लेटफ़ॉर्म के धक्कों को ही
ज्यों कोई तक़दीर समझ ले,
अथवा उड़ती हुई गर्द को
उफ़! बेवजह अबीर समझ ले।
प्यास हुई है कितनी गहरी,
कैसे करें बयान किसी से,
जैसे कोई हिरन रेत को
मजबूरी में नीर समझ ले।
हँसे सजल होकर भी जब हम,
सारे नयन सशंक हुए हैं।
कितनी चुप्पी हुई इकट्ठी
इस अन्तर्मन में, मत पूछो।
तुम दरवाज़ों की आहट से
‘कहाँ गुम हुआ हर ख़त’, पूछो।
सबको है मालूम कि घर से
मेला ज़्यादा दूर नहीं है,
जाकर वहाँ किसी चिड़िया से
दोस्त! आज ही क़िस्मत पूछो।
जग ने लूटे स्वप्न, क्या हुआ,
हम न अभी तक रंक हुए हैं।
गीत
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*आये बहेलिये*
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आये झुण्डों में बहेलिये,
कहाँ परिन्दों का कुल जाये?
किस कोटर में छिपे कपोती,
जाकर कहाँ चकोर विलापे?
क्या विदेह हो जाये सुगना,
कहाँ सिमटकर चकवी काँपे?
बया सिहरकर किस प्रपात में
पलक झपकते ही घुल जाये?
तीतर की झिलमिल आँखों को
दिखे निशानेबाज़ हर कहीं।
सहमी-सहमी हर बटेर है,
कहाँ बत्तख़ें शोख़ अब रहीं!
ज्यों ही तने गुलेल, तुरत ही
मैना का डैना खुल जाये।
मासूमों की बेफ़िक्री के
दिन अब गिने-चुने लगते हैं।
रात हुई, सो गयीं मुँडेरें,
पर घर के तोते जगते हैं।
कुछ ऐसे हों बोल पिकी के,
सारी वीरानी धुल जाये।
सुनो टिटिहरी! दूर नहीं हैं
आसमान गिरने के दिन अब।
जग क्या समझेगा पंखों में
चोंच छिपाकर सोने का ढब?
किस कनेर पर श्यामा चहके,
किधर चुलबुली बुलबुल जाये ?
………..
*सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी*, लखनऊ, उत्तर प्रदेश।