*किसी को न दिखे मेरा दुःख*
बटुवे से गिरे फोटो की तरह
किसी को न दिखे मेरा दुःख
वह त्वचा के रंग की तरह
मेरी हथेली में रहे
मैं उससे जूझूँ
तब भी दुनिया को
मेरी मुस्कान ही नज़र आये
मैं चुपके-चुपके उसके मुँह को
तीरों से भर दूँ
वह मेरी रात ख़राब करे
तब भी मेरी सुबह उचाट न हो
वह मेरे ज़ेहन को
सुन्न करते-करते थक जाये
जब वह जाने की सोचे
मैं उसे दरवाज़े तक जाकर विदा करूँ।
*मौजूद रही दुनिया*
आगे जाने के लिए ही सही
लोग हमारे साथ चले
हवा के लिए ही सही
लोगों ने खोलीं अपनी खिड़कियाँ
हमारे घर की तरफ़
अपने गमलों के लिए ही सही
लोगों ने तारीफ़ की
हमारे फूलों की
हल्की आँधी की तरह ही सही
हर वक़्त मौजूद रही दुनिया
हमारे साथ।
*यह दुनिया*
क्या बतायें
सिर टिकाने की
कितनी जगहें थीं
हमारे पास
कुरसी की पुश्त थी
दीवार थी
पेड़ थे
और इन सबसे बढ़कर
दोस्तों के कन्धे थे
लेकिन
सिर टिकाने की
फ़ुरसत कहाँ थी
हमारे पास
हाँ
आँख मूँदकर सुस्ताने का
वक़्त कहाँ था
हमारे जीवन में
यह दुनिया
हमारे लिए
बिना पुश्त की कुरसी थी।
*कमीज़*
सबसे पहले
गर्दन के पास मैली हुई कमीज़
फिर आस्तीनों के इर्द-गिर्द
फिर कन्धों पर
जहाँ धूल और धूप
सीधे हमला करती हैं
पैंट के अन्दर रही
जितनी कमीज़
वह उजली रही
दुबके लोगों के
चेहरे की तरह
*सरलतम*
हमारे अन्दर मेज़ से अधिक दराज़ें हैं
हमारे भीतर क़िलों से अधिक तहख़ाने हैं
हम अनगिनत बावड़ियाँ लिये डोलते हैं
हम झाड़ियों से पटा मैदान हैं
हम गर्तों पर्तों शर्तों का सच हैं
हमारे अन्दर गुफाओं की भरमार है
हमारे भीतर ढूहों की पाँतें हैं
फिर भी हम सरलतम हैं
गोकि कोई हमसे टूटकर प्यार करता है
*बड़े दुःख*
यह भूख की दुनिया है
इसे दानों की दुनिया कहने से पहले
चिड़ियों की इजाज़त लो
केवल उन्हें पता है
कि ये दाने ही हैं
जो भूख से बड़े दुःख रचते हैं।
*और तो और*
जब वे मंच पर आये
उनकी भाषा कसी हुई थी
मुझे कसी हुई कड़ियों वाला वाद्य याद आया
कसी निवाड़ वाले पलंग याद आये
एक नायक की कसी हुई देह आयी
मैं भूल गया
पंखे की रस्सी से कसी गर्दनें
बस्ती के बच्चों के कसे हुए कपड़े
नफ़रत में कसकर जकड़ी एक सदी
और तो और
मैं पीछे बैठे श्रोताओं के
कसे हुए चेहरे तक देखना भूल गया।
*चुपके से*
उन्होंने हमारे पास
सिर्फ़ डर छोड़ा
एक झुरझुरी छोड़ी
फुसफुसा वर्तमान छोड़ा
हकलाहट छोड़ी
हामी छोड़ी
भाषा की नालियाँ छोड़ीं
कैक्टस के दृश्य छोड़े
हमारा सोचना
हमारा पूछना
हमारा हीरामन-सा बात करना
वे चुपके से छीन ले गये।
*हमारे विचार*
क्या हमारे विचार
सूटकेस में ठुँसे कपड़ों जैसे हैं
तौलिया ढूँढो तो बनियान हाथ में आती है
रूमाल जैसी छोटी चीज़ें
सिकुड़ी-सी मिलती हैं एक कोने में
जिन चप्पलों को
अख़बार में लपेटकर रखा जाता है एहतियात से
वे साथ-साथ नहीं दिखतीं
गोया उनका मज़हब अलग-अलग हो
सूटकेस खुलता है
तो उल्टा-पुल्टा मिलता है सामान
बड़ी चीज़ें छोटी चीज़ों को
ढकेल चुकी होती हैं एक तरफ़
जिस कमीज़ को पहनना था रुआब से
बर्बाद हो चुकी होती है उसकी इस्तरी
क्या ऐसा नहीं लगता है विचारको
हैंगर ही हमारे काम आयेंगे आख़िर में?
*क्या चींटी होना पड़ेगा मुझे*?
मुझे शामिल होना है
पृथ्वी के विनम्र प्राणियों में
इसके लिए क्या
चींटी होना पड़ेगा मुझे
एक निश्चिन्त और प्रफुल्ल आत्मा भी
होना चाहता हूँ मैं
इसके लिए क्या ईश्वर से
मयूर-देह माँगना आवश्यक है
एक उत्सुक और सुन्दर दृष्टि से भी
दुनिया को देखने की इच्छा है मेरी
इसके लिए क्या किसी हिरन-वन की
नागरिकता लेनी पड़ेगी
क्या मैं अपनी मौजूदा देह में रहकर
विनम्र नहीं हो सकता
निश्चिन्त और प्रफुल्ल नहीं हो सकता
दृष्टि-सम्पन्न नहीं हो सकता।
*मैं असमाप्त*
मैं प्रस्तरों में बँटी कहानी हूँ
सुखान्त और दुःखान्त के खाँचों से मुझे मुक्त रखो
मुझे पंक्ति-दर-पंक्ति पढ़ो
मेरे विभक्त दिखते कथानक को समझो
मेरे खंडों का रिसाव देखो
मैं एक हरहराता घटनाक्रम हूँ
मुझमें वर्तनी की त्रुटियाँ ढूँढकर ख़ुश मत हो
मैं अपनी भाषा ख़ुद हूँ
मेरी शब्दावलियाँ कोशों से बाहर की हैं
मेरी उद्विग्नता मेरा बल है
मेरा अन्त निर्धारित मत करो
मैं असमाप्त था
मैं असमाप्त रहूँगा।
——
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी, लखनऊ, उत्तरप्रदेश