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Reading: संस्मरण : अदम गोंडवी के साथ कवि सम्मेलन का मंच साझा करते हुए : डी एम मिश्र
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Lahak Digital > Blog > Literature > संस्मरण : अदम गोंडवी के साथ कवि सम्मेलन का मंच साझा करते हुए : डी एम मिश्र
Literature

संस्मरण : अदम गोंडवी के साथ कवि सम्मेलन का मंच साझा करते हुए : डी एम मिश्र

admin
Last updated: 2023/08/19 at 10:50 AM
admin
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17 Min Read
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( गुप्तारगंज का विराट कवि सम्मेलन व मुशायरा , वर्ष 2003 , बसंत पंचमी का दिन)
____________________

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की
जैसे ही माइक से किसान जैसी वेशभूषा और शक्ल वाले एक कवि की ये पंक्तियां लोगों के कानों तक पहुंची लोग खड़े होकर वाह वाह करने और तालियां बजाने को मजबूर हो गये। मंच पर उपस्थित सभी कवि एक स्वर में कह उठे – वाह दादा, वाह । मंचों पर जिसका ऐसा जलवा था वह कोई और नहीं रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी साहब थे। मैं उन पर आधारित अपने कुछ संस्मरण आप से साझा करूं , उसके पहले आपको यह बता दूं कि उनके व्यक्तित्व और उनकी शायरी के प्रति लोगों में इतना बड़ा आकर्षण क्यों और कैसे था ?
वास्तव में वह जनता के कवि थे। अवाम के शायर थे। दूसरे शब्दों में कहें तो वह मजदूरों, किसानों और मज़लूमों के सुख दुःख के साथी और उनके कवि थे। मंचों पर उनकी यह ग़ज़ल भी खूब सुनी जाती थी _
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

अदम ने हमेशा जन सरोकार की रचनाएं की और गांवों, कस्बों की ग़रीब जनता ने सिर्फ उन्हें ही अपना कवि माना किसी दूसरे को नहीं । वह गौरीगंज / अमेठी के एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन व मुशायरे में बुलाये गये थे। मैं भी गया था। कवि सम्मेलन रात में होना था। मैं थोड़ा पहले शाम 5 बजे ही पहुंच गया था। समय काफी बचा था। सोचा तब तक कहीं आसपास होटल हो तो चाय पी आऊं। कोई बड़ा होटल तो नहीं मिला । सामने थोड़ी दूर पर एक टीन शेड के भीतर चाय की एक छोटी सी दुकान थी। जहां करीब 15-20 लोग जमा थे। जो चाय पी रहे थे और आपस में गपशप कर रहे थे। वहां आज होने वाले कवि सम्मेलन की ही मुख्य रूप से चर्चा चल रही थी । आज के कवि सम्मेलन में अनेक नामी गिरामी कवियों का जमावड़ा होने वाला था। कोई किसी को अपनी पसंद बता रहा था तो कोई किसी को। लेकिन मैंने वहां देखा अदम निर्विवाद रूप से सबकी पहली पसंद थे। मेरे आश्चर्य की तब सीमा न रही जब किसी ने कहा मैं तो उनसे आज फ़रमाइश करूंगा – काजू भुने प्लेट में व्हीस्की गिलास में / उतरा है रामराज विधायक निवास में। दूसरे ने कहा लेकिन मैं तो फ़रमाइश करूंगा –
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ हो चुकी
अब उसे बेवा के माथे की सिकन तक ले चलो।
छोटी सी चाय की दुकान पर अदम के इतने फैन । वाह वाह ! यह स्थान तो उनके गोंडा जिले से काफी दूर है। वो यहाँ भी इतने लोकप्रिय। उनकी ग़ज़लें लोगों को जबानी याद।यह नज़ारा देखकर तों मैं दंग रह गया। अदम के शेर आम लोगों की जुबान पर । चाय की दुकान पर वह चर्चा के केंद्र में। यह मुकाम तो सूर , तुलसी, कबीर को छोड़कर शायद ही किसी कवि को हासिल रहा हो। वर्तमान समय में निराला, मुक्तिबोध, शमशेर निश्चित रूप से बहुत बड़े कवि हुए । कोर्स में पढ़ाये भी जाते हैं उसके बावजूद उनकी पंक्तियां कितनों को याद हैं। जो उनको पढ़कर बी ए , एम ए किए उन्हें भी कुछ नहीं याद। आज के दिग्गज कवि जैसे राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अरुण कमल आदि या मंच पर स्थापित दूसरे कवि कितने हैं जिनकी पंक्तियां किसानों और मजदूरों की ज़बान पर हों। फिलहाल रात को कवि सम्मेलन शुरू हुआ । लोगों ने बड़ी देर तक अदम साहब को सुना । उस दिन के भी वही कवि सम्मेलन के मैन आफ दि मैच रहे। संभवतः यह बात 1999 की है ।
दूसरे दिन सुबह कवि सम्मेलन से वापस लौटते समय एक दो और बड़े ग़ज़लकारों का नाम मेरी ज़ेहन में घूम गया। उस समय ग़ज़ल का मतलब बलबीर सिंह * रंग* हुआ करता था। मंच से लेकर पत्र -पत्रिकाओं , पुस्तकों तक * रंग* साहब का ही रंग हावी था।उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ब की रवानी हुआ करती थी। हर कोई यही कोशिश करता था कि वह बलबीर सिंह * रंग * जैसी ग़ज़लें कहे। एक और बड़ा नाम उस समय ग़ज़ल की दुनिया में बड़े आदर से लिया जा रहा था । उसकी ग़ज़लें हिंदी से लेकर उर्दू तक की अदब की दुनिया में उदधृत की जा रही थीं। उसकी शायरी में एक अलग प्रकार की तल्खी और अलख जगाने का मिज़ाज देखा जा रहा था। उसकी फिक्री शायरी तो लोगों की ज़बान पर थी –
कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए
कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
न होते हुए भी यानी जिस कवि /शायर का देहांत 1975 में ही हो चुका था, वह ग़ज़ल के क्षितिज पर अब भी सूर्य के समान चमक रहा था। मंज़र यह था कोई उसका सानी नहीं था। ग़ज़ल की एक पतली सी किताब और कुल जमा 60-70 ग़ज़लों के दम पर उसे हिंदी ग़ज़ल का युग प्रवर्तक और बेताज का बादशाह कहा जाने लगा था । जी हां आपने ठीक समझा । मैं दुष्यंत कुमार की ही बात कर रहा हूं । इन दोनों दिग्गज शायरों की तुलना में अदम जी कहां बैठते हैं, मैं बार -बार बस यही सोचे जा रहा था।
बलबीर सिंह ” रंग” और अदम की तुलना का कोई मायने ही नहीं जहां दोनों की शायरी में ज़मीन आसमान का अंतर है। दोनों का कंटेंट, भाषा, लहज़ा सब कुछ अलग -अलग हैं। बलबीर सिंह रंग जहां मध्यम वर्ग की शायरी करते हैं वहीं अदम गोंडवी निम्न वर्ग की जनता के पक्ष में शायरी करते हैं। हां दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी को एक साथ सामने रखकर बात की जा सकती है। अनेक विद्वान आलोचकों ने दोनों का बहुत बार तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। मैं उस गहराई में तो नहीं गया लेकिन अपने ढंग से कुछ सोचने ज़रूर लगा । मोटे तौर पर दोनों की शायरी प्रतिपक्ष और प्रतिरोध की शायरी है। एक पंक्ति में कहें तो दुष्यंत कुमार जहां आमजन के करीब हैं ‌वहीं अदम गोंडवी आमजन के बीच के हैं। दुष्यंत कुमार का लहजा जहां काफी पालिश्ड है , वहीं अदम गोंडवी का काफी खुरदरा –सा । इतना खुरदरा कि कुछ लोग उसे ग़ज़ल मानने के बजाय कविता मान लेते हैं। यह भी एक बात समझने की है कि दुष्यंत कुमार ने जो इतनी शोहरत बटोरी उसके पीछे बड़े – बड़े लोगों का हाथ भी था और वह खुद आकाशवाणी जैसे मोहकमे में कार्यरत थे । जहां उनका जीवन भोपाल और दिल्ली जैसे शहरों में गुजरा था और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम ए किया था ,वहीं अदम गोंडवी का जीवन गोंडा जैसे एक पिछड़े जिले के गांव में बीता है , उनकी शिक्षा नाममात्र की हुई है और जीवन भर गांव के ही होकर रह गये, और कोई पैरवी और मदद करने वाला नहीं था। इस ऊंचाई तक पहुंचना किसी आश्चर्य से कम नहीं। बात साफ़ है जिस जनता के लिए उन्होंने ग़ज़लें कहीं उसी ने उन्हें हाथों हाथ लिया और इस मुकाम तक पहुचाया । तभी तो लोग कहते हैं लोकहित में काव्य रचने वाला ही लोक सिद्ध कवि हो पाता है।
अब आइए बात करते हैं गुप्तार गंज में वर्ष 2003 में हुए विराट कवि सम्मेलन व मुशायरे की।‌ यह आयोजन फरवरी के महीने में वसन्तोत्सव के उपलक्ष्य में स्थानीय गायत्री मंदिर परिसर में आयोजित किया गया था। इसमें दूर -दूर से एक से बढ़कर एक नामचीन कवि और शायर बुलाए गये थे। गायत्री परिवार द्वारा आयोजित यह कवि सम्मेलन वास्तव में इस मायने में भी खास था कि गंगा -जमुनी संस्कृति का एक बेहतरीन उदाहरण था । जिसमें कवि और शायर लगभग बराबर – बराबर थे। हुआ यूं कि एक दिन गायत्री मंदिर परिवार , गुप्तारगंज के लोग जो इस आयोजन मंडल के सदस्य भी थे , जिनमे नरेन्द्र तिवारी ,बीरबल सिंह ,डॉ राम नारायन यादव ,सियाराम जायसवाल आदि प्रमुख थे , मेरे आवास पर आये मुझे आमंत्रित करने के लिए । साथ ही विचार विमर्श करने के लिए और कुछ कवियों शायरों के फ़ोन नं और पते लेने के लिए । उस प्रतिनिधिमंडल ने मुझ से कहा कि हमारे यहां के स्थानीय लोगों की इच्छा है कि फैजाबाद से हास्य व्यंग्य के सरताज कवि रफीक सादानी और गोंडा की सरजमीं के महान कवि -ग़ज़लकार अदम गोंडवी साहब को ज़रूर बुलाया जाय । मैंने अपनी सहमति देकर अपनी डायरी निकाली और उन्हें दोनों लोगों का टेलीफोन नं दे दिया । उस समय मोबाइल फ़ोन सबके पास नहीं हुआ करता था । दो दिन बाद उस प्रतिनिधिमंडल ने मुझे बताया कि रफीक सादानी उस तारीख में कहीं और जा रहे हैं। वह हमारे कवि सम्मेलन में नहीं पहुंच सकते। लेकिन अदम साहब से बात हो गई है । वह आने के लिए सहमत हैं। मैंने पूछा क्या अदम साहब ने पैसे की भी कोई मांग की है । आयोजक ने बताया – नहीं। आयोजक ने यह भी बताया कि जब अदम साहब से पूछा गया कि आप फीस क्या लेंगे ? और यहां तक आने के लिए वाहन आदि की क्या सुविधा हमारे स्तर से चाहेंगे ? तो अदम साहब का जवाब था । हम मांगते नहीं। स्वेच्छा से जो आप दें देंगे, मैं वही ले लूंगा ।साथ ही अदम साहब ने बड़ी सरलता से यह भी कहा कि कहां गांव में आप साधन भेजेंगे। 125 किलोमीटर ही तो है । मैं अपने हिसाब से व्यवस्था कर लूंगा। जब मुझे मालूम हो गया कि उनकी स्वीकृति मिल चुकी है तो मैंने भी अपने स्तर से अदम साहब से टेलीफ़ोन पर बात की और उन से आने के लिए विशेष आग्रह किया कि दादा आपको ज़रूर से जरूर आना है तो उनका जवाब था – आप लोग निश्चिंत रहे । मैं ज़रूर आऊंगा। कवि सम्मेलन के बहाने आप लोगों से मिलना भी हो जायगा।
उस दिन गायत्री मंदिर में सुबह 8 बजे से 10 बजे तक पूजा पाठ हवन आदि का कार्यक्रम रखा गया था और 11 बजे से कवि सम्मेलन होना तय हुआ था। लगभग साढ़े दस बजे जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि अदम साहब वहां पहले से ही मौजूद थे और प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। साथ में कवि जमुना प्रसाद उपाध्याय और शोभनाथ अनाड़ी भी मौजूद थे। थोड़ी देर में अजमल सुल्तानपुरी, कमल नयन पांडेय, जाहिल सुल्तानपुरी, हबीब, गंवार, गंगा प्रसाद यादव,मुनव्वर सुल्तानपुरी, डॉ मन्नान, रामकेवल मिश्र अशांत आदि का भी पदार्पण हो गया। अब इंतजार था कवि गिरीश पांडेय जी का जो इस कवि सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे और तत्कालीन आयकर आयुक्त फ़ैजाबाद रीज़न ।
थोड़ी देर में सभी कविगण मंचासीन हो गये। आयोजक ने सभी कवियों का माल्यार्पण कराया और संचालन के लिए मुझे आवाज़ दी। मैंने माइक संभाला और कवि सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए श्री अदम गोंडवी जी का नाम प्रस्तावित किया ‌। लेकिन वह फ़ौरन उठे और माइक पर आये और बोले – डी एम मिश्र जी का प्रस्ताव उचित नहीं। अजमल सुल्तानपुरी जैसे शायर के होते हुए जो मुझ से उम्र में भी बड़े हैं, मैं अध्यक्षता करना कैसे स्वीकार कर सकता हूं। मैं प्रस्तावित करता हूं कि आज के इस कवि सम्मेलन और मुशायरे की अध्यक्षता अदीम शायर हम सबके बड़े भाई अजमल सुल्तानपुरी जी करेंगे। कवि सम्मेलन अपने शबाब पर था उसी बीच श्रोताओं के बीच से एक विद्यार्थी नुमा युवा खड़ा हुआ और कविता पढ़ने का आग्रह करने लगा । मैंने उससे कहा समय कम है, कवि ज्यादा हैं और फिर अदम साहब को ज्यादा सुनना भी है। मौक़ा मिलेगा तो तुम्हें बुलाया जायेगा और तुम्हें जरूर सुना जायेगा। वह बैठ गया । लेकिन अदम साहब खड़े हो गये और उसे कविता पढ़ने के लिए माइक पर बुला लिये। इतना ही नहीं कविता पढ़ने के बाद अपने हाथ से माला पिन्हा कर उसे आशीर्वाद भी दिया और उसका उत्साहवर्धन भी किया। नये कवियों को वह हमेशा प्रोत्साहित करते थे। ऐसा मैंने कई बार देखा था।
इस प्रकार एक- एक करके सभी कवि अपना काव्य पाठ कर चुके। अब केवल दो ही कवि काव्य पाठ के लिए बचे थे। विशिष्ट अतिथि के रूप अदम गोंडवी साहब और अध्यक्षता कर रहे जनाब अजमल सुल्तानपुरी साहब। मैंने उनके ही एक शेर से जैसे ही अदम साहब का नाम लिया सारा पंडाल तालियों से गूंज उठा।
माइक पर आते ही सबसे पहले उन्होंने गायत्री मंत्र का पाठ कियाऔर उसके बाद यह संदेश दिया –
मानवता का दर्द लिखेंगे
माटी की बू बास लिखेंगे
हम अपने इस कालखंड का
एक नया इतिहास लिखेंगे ।
जब तक वह दूसरी ग़ज़लें सुनाते फ़रमाइशों का अंबार लग गया।
उन्होंने कहा पहले हम कुछ अपने मन का सुना लें फिर आप लोग जो कहेंगे वह सुनाऊंगा । अगली ग़ज़ल उन्होंने सुनाई –
-मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
ये समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
इस व्यवस्था ने नयी पीढ़ी को आख़िर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की
आधे घंटे से अधिक देर तक वह लोगों की फ़रमाइश पूरी करते रहे और अंत में यह ग़ज़ल सुनाकर श्रोताओं से विदा ली ।
भूख के एहसास को शेरो सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसो की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ हो चुकी
उसको अब बेवा के माथे की सिकन तक ले चलो
कवि सम्मेलन के अंत में सभी कवियों -शायरों का अंग वस्त्रम से स्वागत किया गया। सभी कवि गण जलपान के बाद विदा होकर जाने लगे तभी उनके सामने एक बूढ़ा आदमी ठंड से ठिठुरता हुआ आ गया। उसे देखकर वह द्रवित हो गये और जो शाल उन्हें मिली थी, वह उसके कंधे पर रख दिए।


डॉ. डी एम मिश्र, सुलतानपुर, उत्तरप्रदेश

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