– गोवर्धन यादव
विष्णु खरे
( 09-02-1940 – 19-09-2018)
( 09-02-1940 – 19-09-2018)
एक भारतीय कवि, अनुवादक, साहित्यकार तथा फ़िल्म समीक्षक, पत्रकार व पटकथा लेखक विष्णु खरे को याद करते हुए.
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एक अनन्य कवि, मर्मज्ञ आलोचक, विख्यात अनुवादक, अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त सिनेपत्रकार, विलक्षण बुद्धि के स्वामी जैसे विशिष्ठ गुणॊं की खान थे श्री खरे. हिंदी कविता के लिए आपका योगदान काफ़ी महत्वपूर्ण था. उनकी कविता में निरी भावनात्मकता नहीं थी,बल्कि एक विशेष प्रकार का बौद्धिक कौतुहल था. वे अपनी कविताओं के माध्यम से जटिल – प्रश्नों के उत्तर खोजने का उपक्रम करते दिखाई देते हैं तो कभी अपने असाधारण अनुभवों को साझा करते दिखाई देते हैं. आपने राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति, मनोविज्ञान, पुरातत्व-विज्ञान, विश्व सिनेमा सहित अनेक गूढ़ विषयों पर अप्रतिम कविताएं लिखीं.
आपकी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत कहानियों से हुई थी. 1956 से. 1960 से सिर्फ़ कविताएं,. पहली पुस्तक मरु-प्रदेश और अन्य कविताएं. टी.एस.इलियट का अनुवाद 1960, गैर रुमानी समय में 1969. अशोक वाजपेयी द्वारा प्रवर्तित पहचान सीरीज का प्रारंभ आपकी बीस कविताओं से-1970, काव्य संग्रह “ खुद अपनी आंख से-1978, महान हंगरी कवि अतिला योजेफ़ की रचनाओं का अनुवाद, यह चाकू समय -1980, हंगरी नाटककार फ़ेरेन्त्स करिन्थी-के नाटक का अनुवाद “पियानो बिकाऊ है”-1982 .काफ़ी कम उम्र में ही आपने टी.एस. एलियट के काव्य संग्रह का अनुवाद किया था. आपने विदेशी कविता से हिंदी तथा हिंदी से अंग्रेजी में सर्वाधिक अनुवाद का कार्य किया है. श्रीकांत वर्मा तथा भारतभूषण अग्रवाल के पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया. सम-सामयिक हिंदी कविता के अंग्रेजी अनुवाद का संग्रह “दि पीपुल एंड दि सैल्फ़”. लोठार लुत्से के साथ हिन्दी कविता के जर्मन अनुवाद ’डेअर ओक्सेनकरेन” का संपादन किया. “यह चाकू समय (अत्तिला योझेफ़) हम सपने देखते हैं (मिक्लोश राद्नोती), “कालेवाला” (फ़िनी राष्ट्रकाव्य), डच उपन्यास “अगली कहानी”(सेस नोटेबोम), “हमला (हरी मूलिश),, दो नोबेल पुरस्कार विजेता कवि (चेस्वाव मिवोश, विस्वावा शिम्बोसर्का) आदि उल्लेखनीय अनुवादों में आते हैं. गोएटे के “फ़ाउस्ट” का अनुवाद भी आपने किया है.
यह हम सबके के लिए गौरव का विषय है कि इंग्लैंड के राष्ट्रीय महाकाव्य “कालेवाला“ जो 24,000 पंक्तियों का है आपने हिन्दी में अनुवाद किया है, जिसके लिए इंग्लैंड के राष्ट्रपति ने “ नाईट आफ़ द व्हाइट रोज” सर्वोच्च सम्मान से आपको सम्मानित किया था.
अनुवाद के क्षेत्र में भी आपने महत्वपूर्ण कार्य किये है. जर्मन, चेक, पोलिश आदि भाषाओं मे लिखी गई कविताओं को आपने हिंदी में अनुवाद कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है. उन्नीस साल की (1960) उम्र में ही उन्होंने प्रख्यात कवि टी.एस.एलियट के ” द वेस्ट लैंड एण्ड अदर पोयम” का हिन्दी अनुवाद’ मरु-प्रदेश और अन्य कविताएँ, लिख कर एक धूमकेतु की तरह साहित्याकाश में छा गए. इतना ही नहीं उन्होंने स्वयं अपनी कविताओं का अनुवाद उर्दू, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, डच, अंग्रेजी, जर्मन, रुसी आदि में किया.
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(1)
बर्टोल्ट ब्रेस्ट से प्रेरित’—- In May मई में ( कुछ अंश.)
They go in May वे जाते हैं मई में
the land is light जमीन हल्की है
and blinded by blossoms और कलियों से अंधी
the wind fall from the lofty blue गिरती हैं हवाएं ऊँचे नीले से
into the green on which we lean उस हरे में जिस पर हम झुकते हैं
we are a ray हम हैं एक किरण
from one begining एक आरंभ से
to another end एक दूसरे अंत की ओर
that we do not reach जिस तक हम पहुँच नहीं पाते
our eyes break before we see. देखने से पहले हमारी आँखें टूट जाती हैं
(2)
A Calling
There are those ऐसे लोग हैं
who take to dogs जो शुरु में ही
early in life कुत्तों से जुट जाते हैं
or to decorative plants or machines या सजावटी पौधों में या ऐसी मशीनों में
that need may cans of oil जिन्हे, अपनी जिंदगी के दौरान
during the course of their life तेल की कई कुप्पियों की दरकार होती है
you, brother, unhealthy तुम, भाई, बीमार
clouds, hearts, the water बादलों, दिलों, जल
distance in greatest proximity सबसे बड़ी नजदीकी की दूरियों
a career among the windearders वायुमापकों के बीच आजीविका
shots between the eyes आँखों के बीच गोली में
from near or from here पास से या यहाँ से.
(3)
Andern orts किसी और ठिकाने. ( एक अंश.)
Wo du bist तुम जहाँ हो
bist du nicht तुम हो नहीं
wo du erscheinst जहाँ तुम पहुँचते हो
tritt ein anderer auf वहाँ कोई और मौजूद होता है
wo man dich vermutet जहाँ समझा जाता था कि तुम होंगे
ist einer gesessen hat वहाँ कोई बैठा था
die steine gwzahlt पत्थर गिनता हुआ.
(4) Fear डर.
Flam लपट
that will जिसके कोई
have no body शरीर नहीं होगा
face, that in days to come चेहरा, जो आने वाले दिनों में
will haunt dreams सपनों पर प्रेम-सा मंडराएगा
and is the embodiment of all fears और सारे डरों का मूर्त रुप होगा
Hands, that hold nothing हाथ, जो कुछ पकड़े नहीं हैं
Eyes, that see nothing आँखें, जो कुछ देखती नहीं हैं
but their won, advanatage सिवा अपने के, अवसर
allure and what the world प्रलोभन और जो दुनिया
wants and pleases the boss चाहती है और जो बास को खुश करता है
and how uniformly uniform और कितने समान रूप से समान
love feels अनुभव करता है प्रेम
in these years. इन वर्षों में
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नोट:- चारों कविताएं ” किसी ओर ठिकाने” (Somewhere else. poet- Jochen Kelter.) कवि योखेन केल्टर- अनुवाद विष्णु खरे… अंग्रेजी अनुवाद में अन्या मल्होत्रा का सहयोग.) पुस्तक से ली गई हैं
कुछ यादगार पल
बात है तो पुरानी लेकिन लगता है कि जैसे अभी-अभी की बात है. मेरी आपसे पहली मुलाकात सन 1990 में हुई थी, जब वे एक कार्यक्रम के सिलसिले में छिन्दवाड़ा आए हुए थे. यह वह समय था जब मुझे नयी दिल्ली के एम्स में, अपनी पत्नि के हार्ट के इलाज के लिए जाना था, और मैं चाहता था कि कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए जो दिल्ली का निवासी हो और जरुरत पड़ने पर मेरी मदद कर सके. यह मेरा सौभाग्य था कि आपसे मेरी भेंट हुई. आप उस समय दिल्ली में नवभारत टाईम्स में प्रभारी संपादक थे.
एक बार उनका अचानक आगमन होता है. मेरे फ़ोन की घंटी बजती है. मैं फ़ोन उठाता हूँ. फ़ोन पर विष्णु खरे होते है. फ़िर एक शांत और गंभीर आवाज गूंजती है-“ गोवर्धन भाई…क्या चल रहा है.?..शहर के क्या हाल है.?..साहित्यिक गतिविधियां कैसी चल रही है.?..आदि-आदि. जब भी उनका यहां आगमन होता है, या तो आने से पहले बतला देते हैं कि मैं अमुक तारीख को पहुँच रहा हूँ, या फ़िर किसी लाज में डेरा जमाने के बाद फ़ोन पर अपने आगमन की सूचना देते हैं. आवाज से साफ़ पता चल जाता है कि वे नजदीक पास से ही बोल रहे हैं. सूर्या लाज उनकी पसंदीदा लाज है. उन्हें कमरा नम्बर 201-202 ही ज्यादा पसंद आता है, क्योंकि उसकी एक खिड़की और दरवाजा बाहर बालकनी में खुलता है, जिसमें बैठकर आने-जाने वालों को और बाहर की शुष्मा को देखा जा सके.
मैं लाज पहुँचता हूं. मुलाकात होती है और फ़िर घर-परिवार और मित्रों के बारे में चर्चाएँ चल निकलतीं. इस बीच चाय आ जाती है. हम उसका आनन्द उठाते हैं. इस बीच हल्की-हल्की बारिश होने लगती है. रिमझिम बरसते पानी में उन्हें अचानक घूमने की बात सूझती है. हम नीचे आते हैं. रिक्शा तय करते हैं. अब हमारा रिक्षा नागपुर रोड पर आगे बढ़ने लगता है. रास्ते में एक तिराहा है. वे बताते है कि यहाँ पर कभी मौलसरी के बड़े-बड़े दरख्त हुआ करते थे. उनके फ़ूलों की भीनी-भीनी सुगंध चारों तरफ़ फ़ैला करती थी. मुझसे पूछते हैं कि क्या तुमने उन वृक्षों को देखा था?. मैंने कहा …हाँ. मैंने इस पेड़ों की एक लंबी श्रृंखला देखी है…. कई बार तो झरे हुए फ़ूलों को उठाकर सूंघा भी है.. बातों का सिलसिला थमता नहीं है. कुछ ही समय में बोदरी का पुल आ जाता है. वे रिक्शे वाले को रुकने को कहकर उतर जाते है और बतलाते हैं कि बोदरी नदी के किनारे एक प्लाट लेने का मन हो रहा है. बड़ी शांत जगह है. यहां लिखने-पढ़ने का अच्छा मूड बनेगा.
बातचीत के दौरान उन्होंने अपने मन की बात मुझसे साझा करते हुए कहा- “भाई…गोवर्धन…मन होता है कि छिन्दवाड़ा में एक प्लाट लेकर.या फ़िर कोई अच्छा-सा बना बनाया मकान खरीद कर रहने की इच्छा हो रही है. बातों की गंभीरता को मैं समझ रहा था और मन ही मन सोच भी रहा था कि अच्छी खासी नौकरी छॊड़कर छिन्दवाड़ा आकर बसने की बात अचानक इनके मन में कैसे आयी होगी? जबकि इन्हें तो छिन्दवाड़ा की बजाय मुंबई में सेटल होना चाहिए. बेटा अप्रतिम मुंबई में फ़िल्म डायरेक्शन में है और बेटी अनन्या फ़िल्मों में काम कर रही है.
मुझे आश्चर्य होता है कि दिल्ली की पाश कालोनी नवभारत टाईम्स अपार्टमेंट में एक शानदार फ़्लैट होने के बाद यहां प्लाट खरीदने का आखिर क्या मकसद हो सकता है? उनके दिल्ली वाले फ़्लैट में मैं दो बार जा भी चुका हूँ और साथ में भोजन करने का आनन्द भी उठा चुका हूँ.
हल्की-हल्की फ़ुंवारे अब भी चल रही हैं. अब हम वापिस लौटते हैं. पोस्ट आफ़िस के पास आते ही वे उसे बुधवारी की ओर चलने को कहते है. रिक्शा अब बनारसी होटेल के ठीक पीछे वाली गली में कुम्हारी मोहल्ले में रेंगने लगता है. मोड़ पर एक मन्दिर है. वहीं वह उसे रोकने को कहकर उतर जाते हैं. फ़िर गर्व के साथ बतलाते हैं कि ये (एक घर की ओर इशारा करते हुए.) कभी हमारा मकान हुआ करता था. फ़िर पास-पड़ौस के लोगों से बतियाते हुए पूछते हैं. क्या तुम मुझे पहचानते हो. मैं विष्णु खरे हूँ. मेरे पिता का नाम सुंदरलाल खरे है. मेरे दादा मुरलीधर खरे ने इसे बनाया था. काफ़ी समय पहले इसे बेच दिया गया था. वे जिससे बातें कर रहे थे, वह कोई महिला थी. जब उसने पहचानने से इंकार कर दिया तो उन्होंने पूछा-“ तुम कहीं उनकी (अब नाम याद नहीं) बेटी तो नहीं हो?” वह हामी भरती है. “कहाँ है तुम्हारे पिता?” वह कहती है कि उन्हें गुजरे तो काफ़ी समय हो गया. उसकी बातें सुनकर वे थोड़े गंभीर हो जाते है .”अरे वे तो मुझसे उम्र में काफ़ी छोटॆ थे…क्या बिमार थे…? खैर….तुम्हारे पिता होते तो मुझे पहचान जाते-“…वे कहते हैं.
मैं हैरत में हूं और सोचने लग जाता हूं कि जमाना बदल गया है. पीढ़ियां बदल गई हैं. नयी पीढ़ी के लोग आखिर आपको एक लंबे अंतराल के बाद कैसे जान पाएंगे कि आप हो कौन?. लेकिन नहीं, वे बराबर अपने उम्र दराज लोगों के बारे में पूछते हैं. एक-दो लोग मिले भी. मिलते ही उन्हें गले लगा लेते हैं और पूछते हैं-“ कैसे हो विष्णु भाई….”
जिस समाज का उपहार व अनुदान लेकर मनुष्य सुख-सुविधाएं प्राप्त करता है, उसका वह ऋणी है. इस ऋण को चुकाना उसका कर्तव्य बनता है. कोई उन्हें पहचाने अथवा नहीं पहचाने, इससे क्या फ़र्क पड़ता है लेकिन वे उस हर घर की तरफ़ जाते हैं, जहां उन्हें कभी आत्मीयता-/अपनापन मिला था.
दिल्ली जाने से पूर्व उन्होंने जिक्र किया था कि यहां से लौटने के ठीक बाद एक विशेष कार्यक्रम में शामिल होने के लिए जर्मनी जाना है. बात आई गई हो गई. एक दिन टेलीफ़ोन पर विष्णु खरे थे. आवाज स्पष्ट थी, लगा लोकल काल पर बात कर रहे हैं. चर्चा के दौरान उन्होंने बतलाया कि वे इस समय एमस्टरडम से बोल रहे हैं.
एक बार वे श्रीमती सुधा खरे जी के साथ छिन्दवाड़ा आए थे. लगभग एक सप्ताह वे यहाँ रुके. इस बीच हमने कन्हरगाँव जलाशय पिकनिक का प्रोग्राम बनाया था. इसमें मेरे परिवार के सदस्यों सहित विष्णु खरेजी और सुधा खरे जी साथ थे. काफ़ी आनन्द आया. यह एक यादगार ट्रिप थी.
एक समय वह भी आया जब दोनों बेटियों की शादियां हो चुकी थी. भाभीजी चुंकि बेटे के साथ मुंबई में ही रहा करती थीं. सो उन्होंने दिल्ली वाला फ़्लैट बेच दिया और मुंबई में एक फ़्लैट खरीद लिया और रहने लगे. लेकिन मुझे लगता है कि दिल्ली छोड़ना वे नहीं चाहते थे और मुंबई उन्हें रास नहीं आ रही थी. उसका एक बड़ा कारण, जैसा कि मैं महसूस कर पा रहा हूं, वह यह कि नई जगह में वे अपने को सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं और दूसरा यह कि उस इलाके में काफ़ी शोर-गुल भी होता रहता है, जो लेखन-कर्म के लिए उपयुक्त नहीं है. अतः उन्होंने छिन्दवाड़ा आना उचित समझा. बड़बन इलाके में श्री दिनकर पोफ़ली जी के मकान पर उन्होंने कमरा किराए पर लिया. कमरा दूसरी मंजिल पर था, जहाँ एक्दम नीरव-शांति पसरी रहती थी. यहाँ रहते हुए उन्होंने दो-तीन पुस्तकें लिख डाली. अपने मित्रों से उनका एक ही निवेदन था कि उन्हें किसी भी हाल में डिस्टर्ब न किया जाए. जब भी कोई आवश्यकता होगी, वे खुद फ़ोन लगाकर बुला लिया करेंगे. करीब साल-देढ़ साल छिन्दवाड़ा में रहने के बाद फ़िर वे अचानक मुंबई के लिए शिफ़्ट कर गए.
वहाँ चार-छः माह रहने के बाद फ़िर वे छिन्दवाड़ा आ गए. शायद मुंबई उन्हें उतना सुकून नहीं दे पा रही थी. चार-पांच महिने बाद अचानक उनकी तबियत ज्यादा खराब हो गई. आधी रात बीत चुकी थी. वे समझ नहीं पा रहे थे, इतनी रात गए किसे फ़ोन लगाएं. आनन-फ़ानन में उन्होंने श्री लीलाधर मंडलोई जी को दिल्ली फ़ोन लगाया. मंडलोई जी ने कथाकार मनगटे जी को फ़ोन लगाकर तबीयत खराब होने की सूचना दी. चुंकि मनगटे जी का आवास काफ़ी निकट था. उन्होंने आकर देखा और डाक्टर के पास ले गए. जांच में पता चला कि हल्का सा स्ट्रोक आया है और तत्काल ही उन्हें युरोकाइनेस इंजेक्शन लेने की सलाह दी गई. इंजेक्शन की कीमत करीब तीस हजार बतलाई गई थी. आपस में परामर्श हुआ और यह तय हुआ कि उन्हें अब मुंबई लौटकर किसी बड़े अस्पताल में किसी कुशल डाक्टर को दिखलाना चाहिए.
मुंबई लौटकर उन्होंने डाक्टर को दिखाया. तब तक तो माईल्ड अटैक अपना असर दिखा चुका था. बायां हाथ काम नहीं कर पा रहा था और बायां चेहरा भी थोड़ा चपेट में आ गया था. लंबे उपचार के बाद हाथ काम करने लगा. लेखक के लिए हाथ कितना महत्वपूर्ण होता है, उससे बढ़कर और भला कौन जान सकता है?. अब वे अपने आपको पहले जैसा ही महसूस करने लगे थे. एक दिन अचानक वे किसी मित्र से मिलने के नागपुर आए और दो-तीन दिन साथ रहने के बाद छिन्दवाड़ा आ गए. 22 मई 2018 को वे छिन्दवाड़ा पहुंच चुके थे, जिसकी सूचना उन्होंने मुझे 26 मई 2018 को यह कहते हुए दी कि मैं यहाँ आया हुआ हूँ, लेकिन मेरे आने की बात किसी अन्य मित्रों पर उजागर नहीं होनी चाहिए.
खबर पाकर खुशी हुई और मैं उनसे मिलने जा पहुँचा. मेरी नजरें बराबर मुआयना कर रही थीं. पहले से वे काफ़ी दुबले और अशक्त लग रहे थे. चाल भी वैसी नहीं रह गई थी, जिसे हम लोग देखते आ रहे थे. चेहरे पर हल्का-सा खिंचाव अलग ही दीख रहा था. कुशलक्षेम पूछने के बाद मुझसे रहा नहीं गया. मैंने निःसंकोच पूछ ही लिया कि आप पहले से काफ़ी दुबले और अशक्त दिखाई दे रहे है.
मैंने उनसे यह भी कहा कि ऐसे हालत में आपको नहीं आना चाहिए था. जैसा की उनकी आदत में शुमार है कि कुछ बोलने के पहले वे अपने को संयत करते हुए कुछ सोचते हैं फ़िर मुँह खोलते हैं. थोड़ी सी चुप्पी साधने के बाद उन्होंने कहा-” गोवर्धन भाई, ये माइनर अटैक एक संदेशा लेकर आया था कि बेटा भविष्य के लिए संभल जाओ. संभल तो गया हूँ लेकिन अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है. दिमाक में इतना कुछ भरा हुआ कि चार-छः किताबें ही क्या, कई किताबें लगातार लिखी जा सकती हैं. लेकिन ये सब मुंबई में रहकर संभव नहीं लगता. वहां इतना शोर मचता रहता है कि लिखने का मूड रफ़ुचक्कर हो जाता है. छिन्दवाड़ा से बेहतर और कोई जगह हो नहीं सकती मेरे लिए. मैं यहां रहते हुए ही लिख पाऊँगा. फ़िर मैंने तुमसे कई बार बताया भी है कि छिन्दवाड़ा में मेरा नरा गड़ा है, मुझे यहीं सुकुन मिलता है. मन की शांति मिलती है”.
आपकी अनेकानेक कविताएं कई विदेशी भाषाओं में अनुवादित हुई हैं. आपने नवभारत टाइम्स” में सैंकड़ों संपादकीय लेख-आलेख तथा फ़िल्मी समीक्षाएं भी लिखीं. अंग्रेजी में “ दि पायनियर”, दि हिन्दुस्तान टाइम्स, फ़्रंट्लाइन आदि में फ़िल्म तथा साहित्य पर लेखन किया है.
1971-73 के दौरान आप प्राहा, तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया में 25 महीने प्रवास पर रहे. उसके बाद भी यूरोप, अमेरिका तथा मध्य-पूर्व देशों की यात्रां आपने की है. विदेशी धरती पर आपके काव्य-पाठ, भाषण, अध्यापन, रेडियो वार्ता, टी.वी साक्षात्कार हुए तथा लघु फ़िल्मों में भी आपने कार्य किया है. भारत पर केंदित फ़्रांकफ़ुर्ट पुस्तक मेले में भी आपने शिरकत की थी.
आप कालेवाला सोसायटी, फ़िनलैंड, यूनेस्को-हेतु भारतीय सांस्कृतिक उपयोग तथा केंद्रीय साहित्य अकादमी आदि में आपकी स्थायी सदस्यता है. आपको फ़िनलैण्ड का राष्ट्रीय “नाइट आफ़ दि आर्डर आफ़ दि व्हाइट रोज” सम्मान प्राप्त हुआ है. इसके अलावा आपको रघुवीरसहाय सम्मान, शिखर सम्मान, हिंदी अकादमी, दिल्ली का साहित्य सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया गया है.
दुर्जेय मेधा के कवि-आलोचक विष्णु खरे के कुछ रोचक बिंदुओं पर चर्चा नही की गई, तो वह उचित नहीं होगा. कभी आलोचना में दखल रखने वाली विष्णु खरे की पहली पुस्तक “आलोचन की पहली पुस्तक” प्रकाशित हुई तो साहित्य जगत में भारी शोरगुल हुआ, बल्कि “आलोचना” के संपादक नामवर सिंह ने उनमें एक बड़े आलोचक की संभावना को देखते हुए इस किताब पर एक साथ तीन समीक्षाएं लिखीं थी.
विष्णु खरे हमारे समय के एक बहुत बड़े और अच्छे कवि थे. हिन्दी कविता की दुनिया में विष्णु खरे की पहली पहचान बनी अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित “पहचान” सीरीज की पहली पुस्तिका से. “खुद अपनी आँख से” उनका अगला संग्रह जब छपा तो “समीक्षा” में नंदकिशोर नवल ने समीक्षा करते हुए उन्हें कवि के रूप में कोई महत्व नहीं दिया. लेकिन “सबकी आवाज के पर्दे में” (1994) जब छपा तो उन्हें दुनिया का महत्त्वपूर्ण कवि मान लिया गया. इस संग्रह में प्रकाशित कविताओं की विशेषता यह नहीं है कि विष्णु खरे ने गद्य को कविता की ऊँचाई तक पहुँचा दिया है, बल्कि इसकी विलक्षणता यह है कि कविता को मानवीय संवेदनशीलता के एवरेस्ट पर पहुँचा दिया है.
महानगर में बने नए घर के कमरों का बंटवारा पहले कवि अपनी स्मृतियों के आधार पर करता है. हर कमरे में कौन रहेगा, कैसे रहेगा, इसका अहसास तो कवि को बाद में होता है. लेकिन संवेदनशीलता की जिस ऊँचाई पर कवि है, उसमें छिन्दवाड़ा का पीछे छूटा वही घर है और महानगर में फ़्लैट बनवाने के बाद उस घर को पूरा-पूरा रख देने की योजना है. घर के कमरे को लेकर भी द्वंद्व है. कहाँ रहेगी अविवाहित बुआ, कहाँ रहेंगे पिता, कहाँ रहेगी मां.? कविता का पूरा स्थापत्य संवेदना के जिस ईंट-गारे से उठाया गया है. यह नया घर बना तो है, लेकिन आवंटित कमरों में रहने के लिए न बुआ है, न पिता है और न ही मां. बस केवल स्मृतियों का चीत्कार और हाहाकार है.
विष्णु खरे ने न केवल विश्व के तमाम महान लेखकों को पढ़ा है, बल्कि टी.एस.इलियट के कविता संग्रह “वेस्ट लैंड” का भी अनुवाद किया है और फ़िनी राष्ट्रकाव्य का “कालेवाला” का भी. इस तरह हम कह सकते हैं कि पत्रकार विष्णु खरे में यदि एक तरफ़ विश्व राजनीति की बौद्धिक हलचल है तो दूसरी तरफ़ अपने निविड़ एकान्त में बचा कविता की संवेदनशीलता का एक विलक्षण कोना भी है.
विष्णु खरे की कविताओं की अंतर्वस्तु ठोस और मूर्त है. जीवन और समाज के मुठभेड से अर्जित की हुई अंतर्वस्तु, जिसे सस्ती भावुकता से बचाने की उनकी पुरजोर कोशिश है. कविता में उनकी पहचान समर्थ गद्य के प्रयोग से है और हम जानते हैं कि अच्छा गद्य विचारहीन लोग नहीं लिख सकते, जब पद्य मे अच्छी कथा, अच्छा नाटक लिखा जा सकता है तो फ़िर गद्य में अच्छी कविता क्यों नहीं?.,
विष्णु खरे की कविताएं इसकी जीती-जागती मिसाल है. छिन्दवाड़ा की माटी से यात्रा प्रारंभ करने वाले खरे, साहित्याकाश में एक विराट रूप बनाते चलते हैं और उसी विनम्रता के साथ वे अपनी जमीन से भी जुड़े रहते हैं. वे बार-बार अपनी धरती पर, अपनी मातृभूमि की ओर लौटते हैं,. बार-बार लौटते है और यहां आकर वे ऊर्जा ग्रहण करते हैं. इस तरह वे देश की सीमाओं को पार करते हुए विदेशों तक में जा पहुंचे है. छिन्दवाड़ा केवल उनकी स्मृतियों में ही कैद होकर नहीं रह जाता बल्कि कलम की नोंक से स्याही बनकर, कोरे कागजों पर उतरता चला जाता है. उनकी कविताओं में छिन्दवाड़ा होता है, यहां की गलियों होती हैं, इतवारी-बुधवारी बाजार होता है, हाई स्कूल का वह प्रांगण होता है, जहां कभी बचपन में खेलते-कूदते बड़े हुए थे, साथ में सहपाठी भी होते हैं, तो कभी मोहल्ले में रहने वाला छुट्टू कुम्हार होता है, कभी दम तोड़ती…..दर्द में कराहती मां होती है, गुमसुम पिता होते हैं तो कभी बिन-बिहाई बुआओं का दर्द कागज पर तैरते-उतराने लगता है.
इसकी कुछ बानगी देखिए.
पिता के बारे में- मैंने जब पहली बार पिता को अपने आप से बातें करते सुना / तो मैं इतना छॊटा था कि मैंने समझा / वे मुझसे कुछ कह रहे हैं / मेरे डरे हुए सवाल का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया / और पांच मिनट बाद / वे फ़िर खुद से बोलने में मशगूल हो गए.
1981 के एक दिन
कल मैं अपने पिता के बराबर हुआ आज मैं उनसे एक दिन बड़ा हूँ. 1968 के जिस दिन वे गुजरे थे जिस उम्र में 1991 के इस दिन मैं उसी उम्र का हूँ यानी इक्यावन बरस और कुछ दिन.
छिन्दवाड़ा को याद करते हुए एक कविता- चमगादड़ें
उस दिन छिन्दवाड़ा में सुरेन्द्र के घर के आँगन में शाम के आस्मान में दर्जन भर चमगादड़ों की कतार को देखकर ही याद आया कि दिल्ली के आकाश में छब्बीस बरस में इन्हें कभी नहीं देखा और यह भी कि कितनी मार्मिक लग सकती है इनकी उड़ान बल्कि हमेशा ही वैसी रही है मेरे पहले पन्द्रह बरस की शामों में
चौथे भाई के बारे में-(पुस्तक- सबकी आवाज के पर्दे में.) यह शायद 1946 की बात है जब हम तीन भाई / घर में पड़े रामलीला के मुकुट पहनकर खेल रहे थे/ तब अचानक विह्वल होकर हमें बताया गया/ कि मेरे और मुझसे छॊटे के बीच तुम भी थे./और यदि आज तुम होते तो हम चार होते/ राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन की तरह.
1991 के एक दिन- दूसरी तरफ़ से मैं जिससे भी लज्जित हूं / कि सत्ताईसवें बरस में जब मैंने विवाह किया / तो मुझे 1946 में गुजरी अपनी सत्ताईस वर्षीया मां का स्मरण तो रहा /लेकिन उससे बड़ा होने का एहसास क्यों नहीं हुआ /क्या इसलिए कि मैं उसकी मृत्य पर छह बरस का ही था / मां की मौत मुझे इतनी दूर क्यों लगती है कि समय से परे हो /पिता की मृत्यु अभी कल हुई घटना की तरह दिखती है.
आपकी कविताऒं से गुजरना मानो एक कालखण्ड से गुजरना होता है. कविताएं घर-परिवार, रिश्ते-नाते, दुनियादारी की जरुरतें, साहस, विकलताएं, हताशाएं, छिपे हुए संकल्प, दैनिक जीवन के दवाबों की प्रत्यक्षता, उसकी छायाएं, गीला और सांवला सुख-दुख, जटिल रूपक आदि खूबसूरती से रचती हैं. कविताएं गद्य और पद्य की सीमाएं तोड़कर, रचनात्मकता यहां बिर्बाध गति से बहती हैं. विष्णु खरे कविता से निबंध का काम लेते हैं. उनके यहां निबंध और पत्रकारिता कविता बन जाते हैं. तथ्यों का भरपूर प्रयोग वे पत्रकारिता की तरह करते हैं. “प्रथक छत्तीसगढ़ राज्य” में तथ्य और सूचना के साथ संवेदना का नया प्रयोग देखने को मिलता है. जर्मनी के एक भारतीय कंप्यूटर विशेष की हत्या पर’ लगता है कि हम कोई संपादकीय पढ़ रहे हैं. खरे जी की कविता अखबार का काम भी करती है. यदि कविता में अखबार निकालें तो उसका आदर्श भी यहां मौजूद है. वे भाषा के मामले में भी कमाल करते हैं. “न हन्यते” में वे पुरानी दिल्ली की बोली का प्रयोग करते हैं. “गुंग महल” में सलीम उर्दू जुबान का रंग पढ़ते ही बनता है. भाषा विष्णु खरे की बाधा नहीं है. उससे वह मनमाना काम लेते हैं. भाषा का अद्भुत सौंदर्य और रचाव यहां मौजूद है. विशुद्ध राजनैतिक चेतना का यह कवि नये तरह के काव्यशास्त्र, नए मानदंडॊं की जरुरत उजागर करता है. ब्रेश्ट की तरह विषय और शिल्प दोनों में यह क्रांतिकारी कविता है. ’लायब्रेरी” में हुए परिवर्तनों पर कविता इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ का दस्तावेजीकरण है. विष्णु खरे ने हिजड़ों, चमगादड़ों, फ़ोटोकापी पर कविताएं लिखकर बिल्कुल नये और अछूते विषय भी दिये हैं. मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन और रघुवीर सहाय के बाद यह उतना ही बड़ा नया कविकर्म है.
(26-05-2018 को अन्तिम बार लिया गया चित्र.)
विष्णु खरे न केवल समकालीन हिन्दी कविता के एक प्रतिष्ठित कवि रहे हैं बल्कि. वे देश के ही नहीं अपितु विश्व के श्रेष्ठ कवियों में गिने जाते रहे हैं. अतः आज की युवा होती पीढ़ी को, खासकर छिन्दवाड़ा की पीढ़ी को, तथा स्थानीय साहित्यकारों को भी उनके बारे में जानना- समझना और पढ़ना चाहिए.
एक दुर्जेय मेधा के धनी व्यक्तित्व को, हम सबकी ओर से, उनकी दिव्य स्मृतियों को नमन.
………………………………………………………..
गोवर्धन यादव, (उपन्यासकार-लेखक)
103 कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001
मो: 09424356400.
दिनांक- 29-06-2023.