1.विरोधाभासी समय
पहले यह कहने का रिवाज़ था
रोष व्यक्त करने का तरीका भी
सख़्त से सख़्त लहजे में --
''जाकर डूब मरिए चुल्लू भर पानी में !''
लोग मर भी जाते थे
उतने कम पानी में ही
तब पानी का मोल था
आदर था
पानीदार होना ही
पहचान थी
किसी के ज़िंदा होने की !
अब तो घड़ों पानी पड़ने के बाद भी
एक क़ातिल कार से निकलता है
अपनी मूँछों पर हाथ फेरते हुए
सहज मुस्कान के साथ
पाप की गठरी ही दिलाती है
अब पदोन्नति किसी को
सत्य का संगी बना दिया जाता है
पल भर में किसी बलात्कारी के
बालों की कंघी
कितने छलछंद और दंदफंद कितने
कितनी मक्कारियाँ और धूर्तताएँ कितनी
भाषा में भी तो निर्वस्त्र होते जा रहे हैं शब्द लगातार
अमृतकाल है और अन्नदाताओं से लेकर बेटियाँ तक
वंचित हैं न्याय के अधिकार से
एक ओर नौबतपुर में चमत्कारी बाबा को सुनने पहुँचती है लाखों पब्लिक भूख-प्यास की परवाह न करते हुए
आकुल-व्याकुल......पंडाल छोटा पड़ जाता है
अडानी के ख़िलाफ़ सेबी जुटा नहीं पाती कोई साक्ष्य
और दूसरी ओर विपक्षी नेता दबोच लिए जाते हैं
सरेराह ......बीच बाज़ार
सीबीआई और ईडी ने नींद हराम कर रखी है उनकी
और तो और सरकार से असहमत कवि
जिसे गुमान रहा ज़िंदगी भर सत्य की पहरेदारी का
वह किसी न किसी साज़िश का हिस्सा बनाकर
डाल दिया जाता है ज़ेल में
सच में कितना विरोधाभासी है समय यह
इस ज़हरीले और पेंचदार समय में भी
कुछ लोग पहुँच ही जा रहे हैं
राजा की राजधानी में जंतर-मंतर पर
उनका तीख़ा बयान आता है सोशल मीडिया पर
उसे सुनकर उचट जाती है
नींद बाहुबलियों ......माफियाओं की
सचमुच कितना विरोधाभासी है समय
एक ओर मनुस्मृति की दुहाई तो
दूसरी ओर देश के संविधान की बातें !
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2.रामराज
रामराज्य लोक तक पहुँचकर
रामराज बन गया
मूल अर्थ बदल गया
सबका विकास......सबका साथ कहकर
आसानी से वह छल गया !
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3.लोक
लोक छवियाँ गढ़ता है तो पोतता है
कालिख भी उनपर
लोक मूर्तियाँ गढ़ता है तो तोड़ता भी है
उनको उनपर चलाकर हथौड़ा
लोक निभाता नहीं है नकली रिश्ते
राम-रावण में फ़र्क़ करना जानता है वह
लोक पूजता है कर्मशील को
श्लील और अश्लील बीच
खींचना लकीर जानता है वह
लोक मानता है तर्कशील को
पर आस्था को भी पालता है वह
लोक की है छँटा निराली
सरलता को मानता है वह
पर कायरता सुहाती न उसे
वीरता को ही बखानता है वह
पत्थर को पूजता है तो उसे उछालकर
तबीयत से आसमान में
सुराख़ करना भी जानता है वह !
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4.लोक में लोक
लोक में ही दूसरा लोक विलोकिए
परलोक को बिसारिए
देश में परदेस ढूँढ़िए
और ताड़ पर चढ़कर तरकुल काटिए
जब जोर करे जठराग्नि तो
खजूर को भी ललचाइए
मन की बात से नीक है भइया कि
बबूल पर चढ़ राग मल्हार को गाइए!
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संक्षिप्त बॉयोडाटा
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नाम - चंद्रेश्वर
जन्मतिथिः 30 मार्च,1960
उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, प्रयागराज से चयनित होने के बाद 01, जुलाई 1996 से एम.एल.के.पी.जी. कॉलेज, बलरामपुर में हिन्दी विषय में शिक्षण का कार्य आरंभ किया | 30 जून, 2022 को अध्यक्ष एवं प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद लखनऊ में रहते हुए स्वतंत्र लेखन कार्य |
हिन्दी-भोजपुरी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में 1982-83 से कविताओं और आलोचनात्मक लेखों का लगातार प्रकाशन | अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित | तीन कविता संग्रह -'अब भी' (2010), 'सामने से मेरे' (2017), 'डुमराँव नज़र आयेगा' (2021) |
एक शोधालोचना की पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आंदोलन'(1994) एवं एक साक्षात्कार की पुस्तिका 'इप्टा-आंदोलनःकुछसाक्षात्कार' (1998) का प्रकाशन |
एक भोजपुरी गद्य की पुस्तक--'हमार गाँव' (स्मृति आख्यान, 2020 ) एवं 'मेरा बलरामपुर' (हिन्दी में स्मृति आख्यान, 2021) का भी प्रकाशन |
शीघ्र प्रकाश्य एक हिन्दी और एक भोजपुरी की पुस्तक-- 1.'हिन्दी कविता की परंपरा और समकालीनता' (आलोचना),
2.'आपन आरा' (भोजपुरी में संस्मरण) |
घर का स्थायी पता-- 631/58, 'सुयश', ज्ञानविहार कॉलोनी,कमता--226028
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल नंबर- 7355644658
ईमेलcpandey227@gmail.com
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